asd
Tuesday, July 23, 2024
Homeविमर्शस्त्री चिंतन के स्वर: महादेवी वर्मा और सीमोन द बोउवा

स्त्री चिंतन के स्वर: महादेवी वर्मा और सीमोन द बोउवा

अल्पना मिश्र
स्त्री दर्पण का यह मंच स्त्री चिंतन और लेखन से जुड़ी सामग्री निरंतर आप सबके साथ साझा कर रहा है।पिछले दिनों आपने मृणाल वल्लरी जी का सिमोन को समग्रता से समेटते महत्वपूर्ण लेख पढ़ा, इसी क्रम में प्रस्तुत है चर्चित कथाकार अल्पना मिश्र जी का महादेवी और सिमोन पर केंद्रित लेख। सिमोन और महादेवी दोनों ही भिन्न धरातल पर स्त्री सरोकारों को लेकर लिख रही थीं,अल्पना जी इस गंभीर लेख के माध्यम से दोनों रचनाकारों को जोड़कर देखते हुए बहुत से जरूरी सवाल उठाती हैं और इन दोनों लेखिकाओं को पढ़ने और समझने की एक नयी दृष्टि सामने रखती हैं…….

महादेवी वर्मा को अपनी रचनाओं का समझदार आलोचक नहीं मिल सका। आलोचना का यह कठिन सत्य महादेवी ही नहीं, लगभग सभी स्त्री सर्जकों के निकट एक जैसा है। इसका एक प्रत्यक्ष कारण पुंसवादी- मर्दवादी आलोचना का वह वर्चस्व है जो साहित्य ही नहीं हिंदी समाज में भी गहरे जड़ जमाए हुए है। इसलिए बाद में भी जो नगण्य आलोचना अथवा वक्तव्य महादेवी पर आए उन्होंने भी उनकी रचनाओं को खोलने, उनका अंतःसूत्र पकड़ने उनका अंतरपाठ करने की बजाय उनके वैचारिक पक्ष को नकारा ही। महादेवी ने अपने विभिन्न काव्य संग्रहों की लम्बी भूमिकाएं लिखी थीं, जिसे दूधनाथ सिंह ने ‘सात भूमिकाएं’ नाम से एक जगह संकलित कर के उसके संपादन का श्रेय हासिल कर लिया। भूमिकाओं के इस संकलन की जो भूमिका उन्होंने लिखी, उसकी शुरूआत ही होती है कि- ‘‘महादेवी की आलोचनाएं शब्द अलंकृति अधिक हैं, आलोचनाएं कम। उनका सारा वैचारिक गद्य लेखन ऐसा ही है। उनमें तर्क और विश्लेषण का अभाव है। अपनी हर अगली बात के लिए महादेवी तर्क की जगह कोई प्रतीक बिम्ब ढ़ूंढने लगती हैं।’’1.
यदि महादेवी का कोई वैचारिक पक्ष बनता ही नहीं तो फिर दूधनाथ जी को इन भूमिकाओं को संकलित करके संपादक बन जाने की क्या जरूरत आ पड़ी थी? या कि वे इस बहाने अन्य छायावादी कवियों को महादेवी से बड़ा और महादेवी को उनसे कमतर बताने का प्रयास कर रहे हैं? परंतु नहीं, हिंदी साहित्य की आलोचना का यह अपना ऐसा वैशिष्ट्य बन गया है, जिसने उसे लगातार हीनतर स्थिति में पहुंचाया है और आज आलोचक के विलीन हो जाने के पीछे येन केन प्रकारेण तात्कालिक लाभ प्राप्ति की जुगत वाला उसका नुस्खा एक बड़ा कारण है जिसने उसके आलोचकीय विवेक को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
इसकी अपेक्षा कृष्णदत्त पालीवाल ने महादेवी के रचना संसार पर एक अधिक महत्वपूर्ण बात कह दी है कि ‘‘गद्य और पद्य की रचनाओं को मिला कर उनके रचनाकर्म का समग्रता में ‘भाष्य’ किया जाना चाहिए।’’2. महादेवी के वैचारिक लेख निश्चित ही उनके काव्य को खोलने के सूत्र थमा सकते हैं। ऐसा अनेक कवियों के साथ उनकी रचनाओं को समझने के क्रम में किया भी जा चुका है। मुक्तिबोध के काव्य को समझने के सूत्र उनके लेखों से मिलते हैं, तो फिर वही मानदंड स्त्री रचनाकारों के लिए क्यों नहीं! किंतु तुरंत ही पालीवाल जी अपने इस आलोचकीय विवेक से निकल कर महादेवी को नारी संवेदना, नारी ममता के अद्भुत आत्मीय संसार में कैद कर देते हैं3. और एक नए बनते पाठ के रास्ते पर ‘आगे रास्ता बंद है’ जैसा बैरियर लगा कर दूसरे आसान रास्ते से निकल जाते हैं। इसतरह जब वे ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पर विचार करने की तरफ बढ़ते हैं और उनका ध्यान संस्कृति परम्परा से जुड़े प्रश्नों और नवजागरण की पृष्ठभूमि के कारण मुक्ति के उमड़ते घुमड़ते प्रश्नों तथा उसके अंतर्विरोधों की तरफ जाता है, तब वे तुरंत बाजार, भूमंडलीकरण आदि पर बात करने की बावत पूंजीवाद और मार्क्सवाद में उलझ कर रास्ता बदल कर किसी और ही दिशा में चल देते हैं और तब वे ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ का एक बेहद मामूली संदर्भजनित अभिधात्मक पाठ रख देते हैं जिससे न तो कोई समाजशास्त्रीय समझ बनती है और न ही कोई सांस्कृतिक पुनर्मूल्यांकन की दिशा। जबकि महादेवी को भारतीय समाज की गहरी समझ है, जिसे बार बार वे मानव विकास के इतिहास और पौराणिक- मिथकीय उदाहरणों आदि से समझाने का प्रयत्न करती हैं। परतों से ढके समाज की भीतरी तह खोलते ओर उसकी व्याख्या करते हुए उनका स्वर बेहद संतुलित बना रहता है जो उन्हें अपनी वैचारिकता के प्रकटीकरण में न बिम्बों प्रतीकों में भटकाता है न तर्क से दूर करता है और न ही स्त्री को सिर्फ वात्सल्य के घेरे तक सीमित रखता है। यद्यपि तत्कालीन समय में लिखते हुए भी महादेवी अपने समय से बहुत आगे खड़ी थीं तथापि यह स्वीकार करना चाहिए कि उनकी अपनी कुछ सीमाएं, जिन्हें गहरे भारतीय संस्कारों और युग संदर्भ के साथ जोड़ कर समझा जा सकता है, अवश्य ही बन जाती हैं। फिर भी स्त्री के संदर्भ में समूचे ज्ञान कांड को चीर कर उसके पीछे की तमाम दुरभिसंधियों को चिन्हित कर पाना यदि तत्कालीन समय में भी महादेवी के लिए संभव हो पाया था तो यह उनकी प्रखर वैचारिकता के कारण ही। उपर्युक्त पुस्तक में ‘अपनी बात’ लिखते हुए उन्होंने स्त्री जीवन को ले कर विचार किए गए अपने लेखों के बारे में स्पष्ट कर दिया था कि – ‘‘प्रस्तुत संग्रह में कुछ ऐसे निबंध जा रहे हैं, जिनमें मैंने भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक दृष्टिबिंदुओं से देखने का प्रयास किया है। अन्याय के प्रति मैं स्वभाव से असहिष्णु हूँ। अतः इन निबंधों में उग्रता की गंध स्वाभाविक है, परंतु ध्वंस के लिए ध्वंस के सिद्धांत में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा।’’4.
वस्तुतः महादेवी के गद्य में उनकी तेजस्वी प्रखरता के साथ उद्घाटित हुई है। कविताओं की तरह गहन अर्थसंकुलता का शिल्प वे यहाँ नहीं रचतीं। नारी अधिकारों के प्रति वे सजग भी है और उतनी ही स्पष्ट भी। वे साफ कहती हैं कि स्त्री को उसके अधिकार ‘‘भिक्षावृत्ति से न मिले हैं न मिलेंगे, क्योंकि उनकी स्थिति आदान प्रदान योग्य वस्तुओं से भिन्न है।’’5.
अत्यंत संतुलन के साथ वे आदर्श भारतीय नारी की रूढ़ छवि पर प्रहार करती हैं। यहाँ केवल विद्रोह नहीं है वरन पितृसत्तात्मक संरचना बदलती परिस्थितियाँ आदर्श के छल स्त्री शिक्षा अधिकार विभाजन आदि पर बाकायदा चिंतन मनन किया गया है। ध्यातव्य यह भी है कि वे ‘श्रृंखला की कड़ी’ न कह कर ‘कड़ियाँ’ कहती हैं अर्थात एक चेन है श्रृंखलाबद्ध एक क्रम है जो बहुत पीछे से जुड़ता है यातना का इतिहास और इसके लिए स्त्री की दिमागी कंडिशनिंग अर्थात यातना का स्वीकार आदि की पड़ताल करना जरूरी है और इसे नितांत तात्कालिकता में नहीं पहचाना जा सकता है। इसलिए उपर्युक्त पुस्तक ‘बौद्धिक आन्दोलन की आग’ हो या न हो, परंतु महादेवी के वैचारिक पक्ष का सबल दस्तावेज जरूर है, जिसका ऐतिहासिक संबंध सूत्र एक तरफ ‘सीमंतनी उपदेश’, ‘स्त्री पुरूष तुलना’, ‘हिंदू स्त्री का जीवन’ जैसी किताबों से जुड़ता है तो दूसरी तरफ द्विवेदी युग में स्त्रियों द्वारा समसामयिक स्त्री मुद्दों पर लिखे जा रहे वैचारिक लेखों व पत्र पत्रिकाओं के संपादन आदि में भी जिसके बीज तलाशे जा सकते हैं। किंतु इतने समुचित और समग्र रूप में विस्तार के साथ पहली बार महादेवी ने इस मुद्दे पर विचार किया है। इसी के साथ महादेवी की यह पुस्तक भविष्य में बनने वाले स्त्री विमर्श का देशज आधार भी तैयार कर देती है। इसलिए प्रारम्भिक कृति होने के कारण, किसी भी तरह से यह पुस्तक कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसे नारीवादी आन्दोलन की आधार कही जाने वाली सीमोन द बोउवा की पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ के साथ रख कर देखना दिलचस्प हो सकता है कि कैसे दो भिन्न देश की भिन्न परिस्थितियों के बीच, लगभग एक ही समय में स्त्री जीवन को स्त्री रचनाकारों द्वारा किस तरह देखा समझा जा रहा था।
सन् 1942 में प्रकाशित महादेवी वर्मा की यह पुस्तक उनके सन् 1931 से 1937 तक के लेखों का संकलन है। सन 1942 के बाद महादेवी पूरी तरह गद्य विधा में आ जाती हैं और उनके चिंतन की अभिव्यक्ति का माध्यम वैचारिक लेख बनने लगते हैं। ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ के लेख भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों की धुंधली रेखाओं को स्पष्ट करने के प्रयास में बहुत कुछ साफ कर देते हैं। यही वह समय भी है, जब पूरे विश्व में स्त्री मुद्दों पर अनेक कोणों से विचार विमर्श और आन्दोलन जारी हैं। नारीवादी आंदोलन का आधार बनने वाली किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ के प्रकाशित होने का समय भी सन् 1946 है जो इससे अधिक दूर नहीं है। दो भिन्न पृष्ठभूमि में भी दोनों लेखकों के विचारों में स्त्री जीवन और संघर्ष को लेकर कुछ समानताएं दिखाई पड़ती हैं। दो भिन्न देशों की भिन्न संस्कृतियों में होते हुए यह समानता दोनों की ही, काम के प्रति गंभीरता और संवेदनशीलता को उद्घाटित करती है। महादेवी और सीमोन का विद्रोही तेवर जगह जगह एक जैसा लगने लगता है। हालांकि यहाँ हम कई बार महादेवी के भारतीय संस्कारों के कारण उनकी विनम्र मुद्रा के भीतर छिपे विद्रोह के बीज को खोल कर देख पाते हैं, जो सीमोन में अधिक साफ है। तर्क भी दोनों जगह हैं, पर सीमोन के तर्क का अपना धरातल और विकास के कारण थोड़ी अलग लगती जीवन परिस्थितियाँ हैं। महादेवी के पास भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की ऐसी जकड़बंदी है, जिसे तोड़ने का उपक्रम उन्हें बार बार करना पड़ता है और इसके लिए सांस्कृतिक उदाहरणों का सहारा भी लेना पड़ता है।
एक और समानता का संयोग यह भी है कि दोनों लेखकों के रचनाकाल के समय की देशगत परिस्थितियाँ लगभग मिलती जुलती थीं। सीमोन ने फ्रांस के युद्धकाल को देखा था उसकी गुलामी का अनुभव उनके पास था फ्रांस का विद्रोह और आजादी का संघर्ष तथा आजादी प्राप्त फ्रांस भी उनके अनुभव का हिस्सा था। महादेवी भी गुलाम भारत में पैदा हुई थीं आजादी की लड़ाई का संघर्ष उन्होंने देखा था और फिर आजाद देश की समस्याएं भी उनके आँखों देखे सच में शामिल थीं। तात्पर्य है कि दोनों ही लेखकों ने अपने समय में अपने देश की जटिल स्थितियों को देखा और अनुभव किया था। इसलिए उनके बोध और प्रतिरोध का धरातल भी बहुत कुछ इन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में निर्मित हुआ था। स्वतंत्रता आन्दोलन की पृष्ठभूमि की बात आलोचकों ने छायावादी काव्य के संदर्भ में की है। शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद पर गाँधी के प्रभाव की बात भी कर दी थी। नवजागरण का प्रभाव भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। इसलिए महादेवी के बोध निर्माण की एक स्वाभाविक पृष्ठभूमि बनती दिखती है। इसतरह दोनों के लेखन में आजादी की लड़ाई की ध्वनि संघर्ष विद्रोह और अस्मिता के प्रश्न रचे बसे हैं। संयोग से दोनों के जन्म का समय भी आस पास है। सीमोन का जन्म सन् 1908 में होता है और महादेवी का जन्म सन् 1907 ई. में। और दोनों की बौद्धिक गतिविधियों का समय भी लगभग आस पास ही बनता है। फिर भी यह ध्यान देने की बात है कि उस समय भारत आधुनिक विकास क्रम में फ्रांस की अपेक्षा पिछड़ा हुआ था। महादेवी एक ऐसे समय में स्त्री स्वत्व की बात उठा रही थीं जब इस विषय पर विचार विमर्श करना एक मुश्किल काम था। इस पर कृष्णदत्त पालीवाल का ध्यान गया भी कि उनकी इस कृति ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ का हिंदी साहित्य समाज में उत्साहवर्धक स्वागत क्यों नहीं हुआ?6. इस पर उन्होंने हिंदी प्रदेश में नवजागरण के प्रभावशाली न बन पाने और सुधारकों के दुचित्तेपन को स्वीकार भी किया परंतु इसी के बरक्स स्वतंत्रता आन्दोलन और उसमें स्त्रियों की भागीदारी से खुलते चेतना के कपाट को नजरअंदाज कर गए।
महादेवी व्यावहारिक जीवन में भी स्त्रियों के सुख दुख के निकट थीं। वे व्यावहारिक जगत में भी स्त्रियों की मददगार साबित हुईं। सामाजिक जीवन में उनका यह सीधा हस्तक्षेप उनके विचारों को धार भी देता है और प्रामाणिक भी बनाता है। संभवतः इस एक कारण का भी योगदान होगा कि वे अपने समय और समाज की जड़ता को उसकी समग्रता में आँकने की तरफ बढ़ीं। यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि महादेवी स्त्री समस्याओं पर विचार करते हुए पारिवारिक ढाँचे के भीतर पुरूष वर्चस्व की स्थितियों को इतिहास के आलोक में जाँचने की कोशिश करती हैं। सारा नारीवादी आन्दोलन जिन अतियों से गुजरने के बाद पुरूष विरोध के एकांगी दृष्टिकोण से हट कर बाद के दिनों में संतुलन की राह तलाशता नजर आता है महादेवी अपनी दूरदर्शिता से उसे सन् 1942 के पूर्व ही देख लेती हैं। इसीलिए वे अपना मत साफ कर देती हैं कि ‘‘ध्वंस के लिए ध्वंस के सिद्धांत में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा।’’
उनकी दूरदृष्टि केवल आज के परिवेश को ही नहीं पहचानती, वरन वे राष्ट्रीय, सांस्कृतिक अस्मिता के नाम पर होने वाले युद्धों और सत्ता संघर्ष के बीच स्त्री की अमानवीय होती चली गई परिस्थितियों पर भी विचार करती हैं। किसप्रकार युगों के अनवरत प्रवाह में बड़े बड़े साम्राज्य ढह गए संस्कृतियाँ विलुप्त हो गईं जातियाँ आईं और मिटीं किंतु स्त्री के हिस्से डाल दिए गए जीवन में परिवर्तन की संभावना नहीं बन सकी। अनेक परिवर्तनों और हलचलों से भरे इतिहास को खंगाल कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि- ‘‘आज भी जब सारा गतिशील संसार निरन्तर परिवर्तन की अनिवार्यता प्रमाणित कर रहा है स्त्रियों के जीवन को काट छांट कर उसी साँचे के बराबर बनाने का प्रयत्न हो रहा है जो प्राचीनतम युग में डाला गया था।’’7. भारतीय परिवेश और पौराणिक दृष्टांतों का उपयोग वे पितृसत्ता की स्त्री विरोधी दृष्टि से समूची मानवता को दृष्टिहीन संवेदनाहीन बना देने की प्रक्रिया को समझाने के लिए करती हैं। पिता की आज्ञा से माता के वध को तत्पर हो जाने वाले मनुष्य के भीतर किसतरह की क्रूरता जड़ जमा चुकी है और वह किस तरह के नृशंस समाज का निर्माण करेगा ये चरित्र उसका उदाहरण हैं। ऐसे ही दृष्टांतों से अपनी बात समझाते हुए सीता आदि पात्रों के विशाल देवत्व की उपेक्षा और मूल्यहीनता का उल्लेख करते हुए वे लिखती हैं कि- ‘‘मनुष्य की साधारण दुर्बलता से युक्त दीन माता का वध करते हुए न पराक्रमी परशुराम का हृदय पिघला न मनुष्यता की असाधारण गरिमा से गुरू सीता को पृथ्वी में समाहित करते हुए राम का हृदय विदीर्ण हुआ। मानव पुरूष समाज के निकट दोनों जीवनों का एक ही मूल्य था। एक जीवित व्यक्ति का इतना कठोर त्याग इतना निर्मम बलिदान दूसरा हृदयवान व्यक्ति इतने अकातरभाव से स्वीकार कर सकता है यह कल्पना भी क्लेश देती है।’’8.
पौराणिक इतिहास की तमाम कहानियाँ यह बताती हैं कि यदि स्त्री ने पितृसत्तात्मक नियमावली का किसी भी प्रकार उलंघन किया तो दंड निश्चित है और यह भी मातृत्व का जो गौरवमय पद उसे प्रदान किया गया है निर्धारित आचार संहिता के थोड़ा भी विपरीत होने पर उसे उसी के पुत्र के हाथों दंडित किया जायेगा। और पुत्र भी कैसा जो तत्काल बिना विचलित हुए माता को दंड दे देता है। शायद यह पुरूष के भीतर माँ के लिए गहरे बैठी संरक्षकत्व की भावना को जड़ से उखाड़ फेंकने और स्वयं को माँ से अधिक वर्चस्वशाली की स्थिति में मान लेने का भाव पैदा करने के लिए भी रचा गया होगा और पुत्र के भीतर की कोमल भावनाओं को सुखा कर तोड़ कर उसे स्त्री के प्रति क्रूर एक निर्मित समाज का हिस्सा बनने के लिए तैयार किया जाना भी होगा। इसतरह संतान का पद पाने वाले पुत्र को माता को सजा देने की क्रूरता के लिए भी मानसिक रूप से तैयार कर देने की स्थितियाँ पहले ही बता दी जाती हैं।
स्त्री के गुणों का, उसकी बुद्धि का, उसके सामाजिक संबंधों का पुरूष संचालित समाज के निकट कोई मूल्य नहीं है। एक संवेदनशील समाज में ही जीवन मूल्य विकसित होते हैं, मनुष्यता फलती फूलती है, परंतु जिस समाज में संवेदना का कोई स्थान नहीं, जो माता के दुख से भी नहीं पसीजता, जो सीता को उचित स्थान दे पाने में अक्षम है, ऐसे समाज से करूणा, परहित आदि मूल्यों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
आज बाजार ने सांमतवाद से गठजोड़कर के स्त्री को वस्तु बनाने की प्रक्रिया को जिसतरह तेज कर दिया है और अति पुरूष और अतिनारीत्व की जो अवधारणा नये तरह से समाज पर थोपी है उसकी जड़े परम्परा और सामंतवाद में पहले से हैं इसी कारण उनका फैलाव इतना आसान बन सका। आज पूरा समाज इससे आक्रांत है। एकतरफ पुरूष अति व्यायाम दवाओं के सेवन आदि से अपने शरीर को अधिक सुदृढ़ बनाने में लगा है, जो उसके पाशविक बल का प्रदर्शन करता है और हिंसा के लिए उत्प्रेरक बनता है। दूसरी तरफ स्त्री अति कोमलता को पा जाने के लिए विकल ब्यूटी पॉलरों के सहारे हो जाती है, इससे कॉस्मेटिक कम्पनियों का व्यवसाय तो बढ़ता ही है साथ ही स्त्री का भय भी कई गुना बढ़ जाता है। उसके संपूर्ण जीवन का अर्थ इसी कोमलता और सुंदरता की प्राप्ति के प्रयत्नों की भेंट चढ़ जाता है। फिर प्रकृति प्रदत्त शरीर काल्पनिक शरीर के सौंदर्य का मुकाबला नहीं कर पाता। इसतरह उसका अधूरापन बना रहता है जो कभी भी उसे आत्मविश्वास से भरा नहीं रहने देता। नारीवाद की दूसरी लहर की विचारक जर्मेन ग्रीयर ने ‘द फीमेल यूनक’ में लिखा था कि- ‘‘स्त्रियों के शरीरों के प्रति निष्क्रिय सुंदर वस्तुओं की तरह पेश आकर हम स्त्री और उसके शरीर दोनों को विकृत कर देते हैं। स्त्री शरीर पर जड़े हुए कटाव चाहे पीनपयोधर धारिणी के उत्फुल भंवर हों या आर्ट नूवो के कुंडल वर्तुल वे गतिशील व्यष्टि देह का विकृतिकरण और स्त्री होने की संभावनाओं का सीमितीकरण है।’’9
इसतरह स्त्री तो असंतुलन की शिकार होती ही है, पुरूष भी उससे बच नहीं पाता और पूरा समाज इस विकृतिकरण की चपेट में आ जाता है। महादेवी की दृष्टि इस पर भी गई और उन्होंने सन 1933 में लिखे अपने लेख ‘नारीत्व के अभिशाप’ में समाज की इस संड़ांध को पहचाना। वे इसे कोमलता के आवरण में छिपी दुर्बलता मानती हैं और सदियों से स्त्री द्वारा कोमलता को ही अपना पूरा व्यक्तित्व मान लिए जाने के कारण चिंतित भी होती हैं। वे कहती हैं कि- ‘‘नारी के स्वभाव में कोमलता के आवरण में जो दुर्बलता छिप गई है, वही उसके शरीर में सुकुमारता बन गई। यह सत्य नहीं है कि वह इस दुर्बलता पर विजय नहीं पा सकती, पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह अनादि काल से उसे अपना अलंकार समझती रहने के कारण त्यागने पर उद्यत ही नहीं होती। उसके विचार में इसके बिना नारीत्व अधूरा है। दुर्बलता मनुष्य जीवन का अभिशाप रही है और रहेगी।’’10.
महादेवी अपनी स्थिति से अनभिज्ञ सामान्य स्त्री पर भी विचार करती हैं और श्रमशील मजदूर स्त्री पर भी। उदाहरणों द्वारा वे दोनों के जीवन की भिन्न परिस्थितियों और उससे उत्पन्न भिन्न समस्याओं की पहचान कराती हैं। वे कष्ट की दुःसह्य स्थितियों की व्याख्या करते हुए स्त्री के अभ्यासजनित संज्ञा शून्यता पर दुःख व्यक्त करती हैं। कष्ट सहन करते करते क्लेश की तीव्रता के अनुभव की चेतना ऐसी स्त्रियों में नहीं रह जाती है, इसलिए उसकी उपयुक्तता अथवा अनुपयुक्तता पर विचार करना उनके लिए संभव नहीं हो पाता है। पितृसत्तात्मक आचार संहिता ने हमेशा उसे एकरस, एक रूप, स्पंदनहीन, कंपन और विकार से रहित हो कर जीने की आज्ञा दी है, इसी से युगों तक इस तरह के जीवन का अभ्यास करते करते अपने एक रस जीवन और कष्टकारक कर्तव्य की परिधि में घूमती वह एक निर्जीव पिंड भर रह गई है।
इसी संदर्भ में उन्होंने दयनीय बना दी गई स्त्री की तुलना दुकान में रखी उस वस्तु से किया है, जिसे रखने और बेचने दोनों में ही दुकानदार को हानि की संभावना रहती है। सन् 1933 में ही महादेवी अत्यंत प्रखर दृष्टि के साथ स्त्री की पारिवारिक सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करती हैं। वे साफ कहती हैं कि ‘‘ जिस घर में उसके जीवन को ढल कर बनना पड़ता है…. जिस पर वह अपने शैशव का सारा स्नेह ढुलका कर भी तृप्त नहीं होती, उसी घर में वह भिक्षुक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। दुख के समय अपने आहत हृदय और शिथिल शरीर को ले कर वह उसमें विश्राम नहीं पाती, भूल के समय वह अपना लज्जित मुख उसके स्नेहांचल में नहीं छिपा सकती और आपत्ति के समय एक मुट्ठी अन्न की भी उस घर से आशा नहीं रख सकती…. पतिगृह, जहाँ इस उपेक्षित प्राणी को जीवन का शेष भाग व्यतीत करना पड़ता है, अधिकार में उसे कुछ अधिक परंतु सहानुभूति में उससे बहुत कम है।’’11.
इससे आगे वे स्त्री की उस यथार्थ स्थिति का वर्णन करती हैं जहाँ वह किसी भी प्रकार दोषी न होते हुए भी समाज द्वारा स्वीकृत दंड की भागी है। दुनिया का न्याय और समानता का मानवीय सिद्धांत स्त्री के लिए नहीं है। वह पितृसत्ता की आचारसंहिता के अनुसार चलने को बाध्य की गई है। इसलिए महादेवी यह कहने से नहीं चूकतीं कि ‘‘यदि वह विद्वान पति की इच्छानुकूल विदुषी नहीं है तो उसका स्थान दूसरी को दिया जा सकता है यदि वह सौंदर्योपासक पति की कल्पना के अनुरूप अप्सरी नहीं है तो उसे अपना स्थान रिक्त कर देने का आदेश दिया जा सकता है यदि वह पति कामना का विचार कर के संतान या पुत्रों की सेना नहीं दे सकती यदि वह रूग्ण है या दोषों का नितांत अभाव होने पर भी पति की अप्रसन्नता की दोषी है तो भी उसे उस घर में दासत्व स्वीकार करना पड़ेगा।’’12
किंतु यदि स्त्री अपनी इस स्थिति पर प्रश्न करे तो उसका उत्तर देने के लिए कोई बाध्य नहीं है न तो गृहस्वामी बाध्य है न तो समाज न ही धर्म। यह सत्य किसी भी जीवित प्राणी के लिए भयानक परनिर्भरता और भयानक दासत्व की हृदयविदारक स्थिति है। शास्त्र ने कहा है कि ‘‘स्त्री न स्वातंत्र्यम् अर्हति’’ अर्थात स्त्री स्वतंत्रता के योग्य ही नहीं है। महादेवी ऐसे शास्त्रोक्त कथनों को प्रसंगानुसार उद्धृत कर उन पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। इस करूणा की मूर्ति त्याग तपस्या की देवी स्त्री का वस्तुतः कोई घर नहीं है। आपातकाल में घर का अभाव स्नेह और सुरक्षा का अभाव जीवन में किसी भी प्रकार के विकल्प का अभाव अंततः उसे बाहर की दुनिया के और अधिक विकृत नरक में पहुँचाता है। यह नरक रचा ही गया है स्त्री को निहत्था और विकल्पहीन बनाने के लिए। नारी के देवत्व की इस विडम्बना और वैधव्य के अभिशाप पर लिखते हुए इस लेख का शीर्षक ही महादेवी देती हैं-‘नारीत्व का अभिशाप’।
महादेवी के विचार के केन्द्र में परम्परागत पारिवारिक ढाँचे में पिसती मध्यवर्गीय स्त्रियाँ तो हैं ही, अपहृत लड़कियाँ और वेश्याएं भी उनके विचार की परिधि में शामिल हैं। समाज से बहिष्कृत कर दी गई इन स्त्रियों पर बात करते हुए महादेवी इस सामाजिक संरचना, व्यवस्था की रणनीतियाँ और पितृसत्तात्मक वर्चस्व की व्यापक जकड़बंदी पर भी सवाल उठाती हैं। उनकी यह कोशिश दिखती है कि उनकी विचार दृष्टि से स्त्री जीवन का कोई भी कोण छूट न जाए। वे यदि स्त्री स्वातंत्र्य के लिए शिक्षा पर बल देती हैं तो साथ ही अपनी बेधक दृष्टि से स्थितियों के पीछे का सत्य देखते हुए उन समाज सुधारकों को भी नहीं बख्शतीं, जो अपनी यश लिप्सा के कारण सुधार कार्यक्रमों को लपक लेते हैं और स्त्री शिक्षा, स्त्री मुक्ति, समाज सुधार आदि के व्यावहारिक पक्ष को नहीं देख पाते। अपने मारक व्यंग्यात्मक लहजे में महादेवी उनकी खबर लेते हुए लिखती हैं कि ‘‘जब स्त्रियों को सुशिक्षिता बनाने के लिए सुविधाएं देने की चर्चा चली तो बहुत से व्यक्ति अगुआ बनने को दौड़ पड़े थे। यह कहना तो कठिन है कि इस प्रयत्न में कितना अंश अपनी ख्याति की इच्छा का था और कितना केवल स्त्रियों के प्रति सहानुभुति का। ….. ऐसे सुधारप्रिय व्यक्तियों का दृष्टिकोण भी संकुचित ही रहा। उन्होंने वास्तव में यह नहीं देखा कि बौद्धिक विकास के साथ स्त्रियों में स्वाभावतः अपने अधिकारों और कर्तव्यों को फिर से जाँचने की इच्छा जागृत हो जायेगी तथा वे घर के बाहर भी कुछ विशेष अधिकार और उसके अनुरूप कार्य करने की सुविधाएं चाहेंगी। ऐसी परिस्थिति में युगों से चली आने वाली व्यवस्था के रूप में भी कुछ अंतर आ सकता है।’’13.
महादेवी की यह दृष्टि आज के स्त्री प्रश्नों से सीधे संबंध को देख पाने में समर्थ है। इसे उनकी भविष्योन्मुखी दृष्टि की तरह पढ़ा जा सकता है। स्त्री शिक्षा के कारण जिस बड़ी दुनिया का पर्दा स्त्री के सामने खुल गया और धीरे धीरे ज्ञान के बहुविध क्षेत्रों में प्रवेश ने उसे सोचने समझने और अपनी सार्थकता के नए इलाकों से परिचित कराया उसने परम्परागत स्त्री शिक्षा पर प्रश्न का साहस भी उन्हें दे दिया। इस बौद्धिक हस्तक्षेप ने समूचे विश्व में स्त्रियों द्वारा शिक्षा व्यवस्था की निर्मितियों पर प्रकाश डालना और उन्हें प्रश्नांकित करना शुरू किया। शिक्षा और सामाजिक मानसिकता के अंतःसंबंधों का विश्लेषण करते हुए वर्जीनिया वुल्फ ने भी इसकी पहचान कराई थी और स्त्री शिक्षा के साथ साथ पुरूषों की शिक्षा को भी प्रश्नों के भीतर लिया था। वे कहती हैं कि ‘‘उनकी भी शिक्षा एक तरह से उतनी ही गलत रही है जितनी कि मेरी। इसने उनके भी भीतर उतने ही बड़े विकारों को जन्म दिया है।’’14
इसतरह महादेवी स्त्री शिक्षा को अत्यंत आवश्यक मानती हैं किंतु इसी के साथ शिक्षित किंतु मध्यवर्गीय निष्क्रिय स्त्री भी उनकी चिंता के दायरे के भीतर आ जाती है। शिक्षिताओं से महादेवी सक्रिय भूमिकाओं की अपेक्षा रखती हैं पर यह देखना भी नहीं भूलतीं कि शिक्षा के बावजूद सामाजिक संरचना की जटिलताएं उसे इस तरह अपनी गिरफ्त में लेती हैं कि प्रायः ही वह शिक्षा के प्रयोजन को भूल जाती है और तर्क के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टि के आलोक में यथार्थ को समझने की बजाय नियति और परनिर्भरता के घेरे में डाल दी जाती है। इन शिक्षिताओं से उनकी अपेक्षा और उनका समाजशास्त्रीय विश्लेषण, सत्तर के दशक की नारीवादी विचारक जर्मेन ग्रीयर की पुस्तक ‘द फीमेल यूनक’ की याद दिलाते हैं। जर्मेन ग्रीयर अपने शोध में इस वर्ग की स्त्री पर पूरा अध्याय ही लिखती हैं। ‘ऊर्जा’ नामक इस अध्याय में वे स्त्री की पॉजिटिव ऊर्जा के निगेटिव ऊर्जा में बदलने वाले सामाजिक कारकों की ओर ध्यान खींचती हैं। अनेक उदाहरणों द्वारा वे स्पष्ट करती हैं कि यदि स्त्री की ऊर्जा को घर के अतिरिक्त नहीं लगाया गया तो किस तरह निगेटिव ऊर्जा में बदल कर अपने ही घर को नुकसान पहुँचाने लगती है।15 महादेवी भी इस सत्य की पहचान की तरफ सन् 1934 में लिखे लेख ‘घर और बाहर’ में जाती हैं। वे शिक्षित महिलाओं के जीवन की उपयोगिता पर बहुत बल देती हैं और ऐसा नहीं होने पर स्त्री के असंतोष से घर का जो नकारात्मक वातावरण बनेगा उससे सावधान भी करती हैं-‘‘ऐसी शिक्षित महिलाओं के जीवन को अधिक उपयोगी बनाने के लिए…… घर- बाहर की समस्या का समाधान आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। अन्यथा उनके मन की अशांति घर की शांति और समाज का स्वस्थ वातावरण नष्ट कर देगी।’’16
शिक्षिता स्त्री की चर्चा करते हुए महादेवी बुद्धिमती स्त्री के प्रति पुरूष के भय के मनोविज्ञान को भी प्रश्नांकित करती हैं। जब एक अनपढ़ स्त्री बड़े से बड़े विद्वान से विवाह करते समय भयभीत नहीं होती तो पुरूष ही अपने समान बुद्धिमती स्त्री से विवाह करने में क्यों भयभीत होता है? इस प्रश्न का उत्तर वे पुरूष के उस स्वार्थ में देखती हैं, जो स्त्री से अंधभक्ति और मूक अनुसरण चाहता है। विद्या, बुद्धि में जो उसके समान होगी, वह प्रश्न कर सकती है, संतोषजनक स्थितियों के न होने पर अपने विरोध के द्वारा पुरूष के साम्राज्य की शांति भंग कर सकती है। पुरूष का यह भय कि वह पढ़ी लिखी, बुद्धिमती स्त्री के जीवन संगिनी बनने पर एक ऐसे आज्ञाकारी दास को खो देगा, जो उसके क्रूरतम अमानवीय कृत्य को भी नकार सकने का साहस नहीं रखता और किसी भी परिस्थिति में, सारी अवमाननाओं के बावजूद उसका सत्कार करना नहीं छोड़ता। बल्कि उसका डर यह भी है कि ऐसी स्त्री समानता, न्याय आदि के प्रश्न उठा कर मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में हलचल पैदा कर सकती है। सन् 1861 में लिखी गई पुस्तक ‘द सब्जेक्शन ऑफ वुमेन’ में जाफन स्टुअर्ट मिल लिखते हैं कि ‘‘वे इस बात से डरते हैं कि कहीं वे यह जिद न करने लगें कि विवाह बराबरी की शर्तों पर होना चाहिए, कहीं सभी योग्य और सक्षम महिलाएं, जो उनकी नजरों में पतित नहीं है, उससे विवाह करना अधिक पसंद करें, क्योंकि विवाह से उन्हें ऐसा मालिक मिलता है, जो उनकी सारी सम्पत्ति का स्वामी बन जाता है।’’17.
मिल विवाह की समस्या का मूल कारण कानून व्यवस्था में देखते हैं वे मानते हैं कि स्त्री पुरूष के मौजूदा सामाजिक संबंधों को जो सिद्धांत नियंत्रित कर रहा है यानी कि कानूनन एक का दूसरे के अधीन होना, पूर्णतः गलत है और मानव विकास की प्रक्रिया में प्रमुख बाधा भी है।18. कानून द्वारा मान्यताप्राप्त यह व्यवस्था समाज में गहरे व्याप्त है। अर्थात मान्य रूप से यह अवधारणा समाज में प्रचलित है कि पत्नी अपने पति के अधीन होती है और इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता, क्योंकि पति ही उसकी सुरक्षा का जिम्मेदार है और यदि उसके पास कोई सम्पत्ति है, तो उसका मालिक भी।
विवाह को सीमोन भी स्त्री जीवन से जुड़ी एक प्रमुख और जटिल समस्या की तरह देखती हैं। वे कहती हैं कि ‘‘विवाह की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यह स्त्री को अपेक्षित सुख नहीं देता। सुख के विषय में विवाह किसी प्रकार का आश्वासन नहीं देता। यह स्त्री को विकृत कर देता है।’’19. समस्या यह भी है कि पुरूष पत्नी से चाहता है कि वह उसे अपना सर्वस्व प्रदान करे किंतु वह पत्नी को सर्वस्व देने के लिए तैयार नहीं होता।20. न ही वह कभी पत्नी की अच्छाइयों की तारीफ करता है, भारतीय संदर्भों में पत्नी को धन्यवाद देना तो कपोल कल्पना ही मानी जायेगी, इसकी कोई आवश्यकता उसे नहीं है। वह भूल जाता है कि पत्नी किसी परम्परा से चली आ रही पवित्र किंतु निर्जीव वस्तु मात्र नहीं है, वह एक जीती जागती प्राणी है। उसकी वफादारी, ईमानदारी, धैर्य और शालीनता को वह मनुष्य के प्रयत्न के रूप में न देख कर नियमस्वरूप ही देखता है। इसतरह स्त्री के सारे प्रयत्नों को महत्वहीन साबित करता रहता है। विवाह के साथ जुड़े अनेक प्रकार के प्रतिबंध प्रणय की स्वाभाविक स्थिति प्रायः बनने ही नहीं देते। सीमोन कहती हैं कि प्रणय के भाव प्रतिबंध नहीं मानते, वरन् वे उन्हें तोड़ कर साहस के साथ प्रकट हो उठते हैं अतः प्रणय पर ही विवाह में जो प्रतिबंध लगाए जाते हैं वे पति पत्नी को एक दूसरे को समझने की स्थिति बनने नहीं देते। सीमोन लिखती हैं कि ‘‘पति यह नहीं समझ पाता कि पत्नी भी कुछ ऐसी निजी समसयाओं से ग्रस्त हो सकती है, जो उसे परेशान कर सकती हैं। क्या वह पति से वास्तव में प्यार करती है? क्या वह उसकी आज्ञाओं का पालन कर के सुखी है? वह इन प्रश्नों को नहीं पूछना चाहता। उसे ये प्रश्न भयंकर प्रतीत होते हैं।’’21.
सीमोन द बोउवा के समय तक स्त्रियाँ नौकरियों में जाने लगी थीं और उनकी बेसिक सुविधाओं की समस्या उठ खड़ी हुई थी। किंतु भारत में, महादेवी के समय तक नौकरी में प्रवेश करनेवाली पहली पीढ़ी की स्त्रियाँ, अपने स्वतंत्र चुनाव के तहत नौकरी में नहीं गई थीं, वरन् जीवन की किन्हीं खास परिस्थितियों के परिणामस्वरूप उन्हें नौकरी करनी पड़ रही थी। वे अभी तक अपनी परेशानियों को समझ कर अपने लिए कुछ मूलभूत बेसिक सुविधाओं की माँग नहीं उठा सकी थीं। यही करण है कि सीमोन अपने उदाहरणों में बड़े पद पर कार्यरत डॉयरेक्टर औरत का उदाहरण रख पाती हैं और उसकी अलग तरह की समस्याओं पर प्रकाश डालती हैं- ‘‘वह लड़की नौकरी के कारण अपने आप को स्वतंत्र व्यक्तित्व समझने लगती है। उसकी इच्छाओं का संबंध उसके परिवार से नहीं होता, प्रायः उसको पुरूषों की अपेक्षा ज्यादा काम करना पड़ता है। रात में थक कर लौटने के बाद भी घर का काम, माँ की आज्ञा और अपने व्यक्तिगत काम। वह दुखी हो जाती है। उसे एक मिनट की भी राहत नहीं मिलती, जबकि उसके भाई को घर का काम नहीं रहता। फलतः वह विद्रोही हो जाती है।’’22.
भारत में यद्धपि मध्यवर्गीय स्त्रियों की स्थिति नौकरीपेशा स्त्री की समस्याओं के साथ जुड़ना शुरू ही हुई थी। अनेक कहानियों में इसकी यत्र तत्र प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ने लगी थी किंतु मजदूर स्त्री के साथ यह स्थिति भयावह रूप में उपस्थित थी। वहाँ काम का बोझ इतना था कि सोचने के लिए कोई अवकाश ही नहीं था। न शारीरिक श्रम की थकान के बाद विश्राम की कोई सुविधा थी वरन् इसके विपरीत बच्चों की जिम्मेदारी और मद्यप पति का अमानवीय व्यवहार भी उन्हें झेलना पड़ता था। महादेवी ने इस पर गंभीरता से विचार किया है। इसके विपरीत मध्यवर्गीय स्त्री के लिए घर से बाहर का कार्य क्षेत्र चुनना, घर से निर्वासन का दंड भोगना था। बहुत सीमित नौकरियों के क्षेत्र में गई यह, वह पीढ़ी थी, जिसमें या तो किन्हीं कारण से कुमारी रह गई स्त्रियाँ थीं या विधवाएं या परित्यक्ताएं। समाज के भीतर नौकरी करने वाली स्त्रियों को लेकर बहुत ही नकारात्मक विचार फैलाए गए थे। यह एक तरह से सामाजिक भयाक्रांत बनाने के प्रयत्न का हिस्सा था। प्रायः नौकरी करने वाली स्त्रियों को तेज तर्रार, लड़ाकू, झगड़ालू तथा चरित्रहीन तक माना जाता था और उनके साथ सामंजस्य की बात को कल्पना कहा जाता था। ऐसे स्त्री विरोधी समाज में, स्त्रियों के वास्तविक हित की बात उठाना एक साहसिक कदम ही कहा जाएगा। क्योंकि समाज की निगाह में यह एक सामाजिक हित का मुद्दा था ही नहीं। यह भारतीय समाज की धारणा उसके विडम्बनापूर्ण चरित्र को दिखाती है, जो इन मुद्दों पर गहन चिंतन करती ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ को किसी भी तरह महत्व नहीं दे पाता है। ऐसे समाज से संतुलित, समता और न्याय पर आधारित व्यवस्था की अपेक्षा करना आशावादिता का बेहतरीन उदाहरण ही हो सकता है। नौकरीपेशा स्त्री की वास्तविक स्थिति इस फैलाई गई धारणा के सर्वथा विपरीत थी। नौकरी करने वाली स्त्री, सामान्य घरेलू स्त्री की अपेक्षा अपनी विवेक बुद्धि का इस्तेमाल अधिक करती है। अतः वह कहीं अधिक समझदार हो सकती है। किंतु विषम और भयावह परिस्थितियाँ तथा जीविकोपार्जन में सक्षम होते हुए भी समाज में हीन बना दी गई स्थिति उन्हें रूक्ष और असहिष्णु बनाने के लिए पर्याप्त रही है। 23. साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य विषय है कि यही वह पीढ़ी भी थी, जिसे देख कर उस पीढ़ी की मॉओं को अपनी नई पीढ़ी के भविष्य के लिए कुछ संभावना नजर आई होगी और अगली पीढ़ी की बच्चियों ने भी बेहद ललक और चाव के साथ इनके जीवन से आत्मनिर्भरता के तत्व का प्रभाव ग्रहण किया होगा। यह स्वाभाविक भी रहा होगा और भविष्य को नई गढ़न देने वाला भी।
पत्नीत्व के साथ परित्यक्ता और तलाक की स्थितियों पर भी महादेवी विचार करती हैं। यद्धपि उस समय तक तलाक की स्थितियाँ नगण्य थीं और सहमति से तलाक का कानून तो मन्नू भंडारी के ‘आपका बंटी’24. के प्रकाशित होने तक भी नहीं बना था। यह पूरी दुनिया का कड़ुआ सच था कि स्त्री के हित में कानून उपलब्ध नहीं थे। इसलिए तलाक की बात उठाते हुए महादेवी स्त्री के लिए बने आधुनिक कानूनों को भी कटघरे में खड़ा करती हैं। वे जानती हैं कि स्त्रियों के जीवन सुधार में कानून कोई खास योगदान नहीं कर पाता। आज जब स्त्री के पक्ष में अनेक कानून बना दिए गए हैं तब भी स्त्री के लिए न्याय पा सकना आसान नहीं है। स्त्री के लिए बनाये गए कानून पितृसत्तात्मक दृष्टि से अलग नहीं हैं, इसलिए उसमें तमाम छिद्र और चोर दरवाजे भी हैं। आज भी एक लड़की अपने विवाह के बाद पिता की सम्पत्ति में अपना हिस्सा नहीं माँग पाती है अथवा आज भी इस बात को सिरे से नजरअंदाज किया जाता है कि पुत्री को भी विवाह के बाद उसके पिता की सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए। प्रायः तो इस संदर्भ को विचारणीय ही नहीं माना जाता। इस तरह व्यवहार में अभी भी कानून कारगर नहीं हो सके हैं। ऐसी दयनीय स्थिति में स्त्रियों के प्रति प्रदर्शित सारा प्रेम कल्पनामय ही लगता है। सीमोन भी कहती हैं कि ‘‘बिना स्वातंत्र्य के न कोई प्रेम कर सकता है, न अपने व्यक्तित्व का निर्माण।…… स्त्री के कामनात्मक जीवन के नियन्त्रण के प्रयास में विवाह उसकी इच्छाओं को खत्म ही कर देता है।’’25. महादेवी भी स्त्री के लिए विवाह को सार्वजनिक जीवन से निर्वासन के रूप में देखती हैं। हिंदू स्त्री के पत्नीत्व पर विचार करते हुए वे आगाह भी करती हैं कि अपनी स्थिति का बोध होने पर स्त्री ‘‘बंदिनी बनाने वाली श्रृंखलाओं को स्वयं तोड़ देगी।’’26. इस संदर्भ में वे अन्य देशों के उदाहरण देती हैं कि किस तरह अन्य देशों में स्त्री जीवन के साथ जुड़ी बर्बर परम्पराएं विकास के साथ खत्म हुईं और स्त्री वहाँ कुछ स्वतंत्रता अर्जित करने में सक्षम हो सकी। टर्की, सोबियत रूस आदि के उदाहरण सिद्ध करते हैं कि महादेवी विश्व के इतिहास और उसकी स्थितियों से नितांत अनभिज्ञ नहीं थीं।
महादेवी उस जमाने में पैतृक सम्पत्ति में लड़कियों के अधिकार की बात पूरी शिद्दत से उठाती हैं और सीमोन द बोउवा का भी इस पर विशेष बल है। यह महादेवी की दूरगामी दृष्टि है कि वे उस समय स्त्री स्वालम्बन की वकालत कर सकीं, जिसे आगे जा कर स्त्री स्वातंत्र्य की पहली शर्त माना गया। यद्धपि आर्थिक स्वतंत्रता पर बात करते हुए वे अधिक आगे नहीं बढ़तीं, परंतु उस समय और समाज के भीतर उनका इस बिंदु पर आवश्यक बल देना अपने आप में अभूतपूर्व रहा होगा। जबकि सीमोन द बोउवा स्त्री के आर्थिक पक्ष पर खुल कर और विस्तार से बोलती हैं। इसके लिए उनके पास पर्याप्त उदाहरण भी मौजूद हैं।
आज ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ का पाठ करते हुए लगता है कि कई जगहों पर महादेवी अधिक खुल कर अपनी बात कह सकती थीं या उन्हें और खुल कर अपने विचार रखने चाहिए थे। किंतु यह शायद तत्कालीन समय की अपनी सीमा रही होगी। फिर भी उस समय, और पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज को देखते हुए समझा जा सकता है कि क्यों उस समय के विद्वानों, आलोचकों, लेखकों, कवियों को महादेवी का यह रूप नहीं भाया होगा। अन्यथा उनकी कविताओं को उनके विचारों के आगे आवरण की तरह रख कर, उनकी वैचारिकता को टाल जाने का यह सायास प्रयत्न न दिखाई पड़ता। उनकी कविता में रहस्यवाद और आध्यात्मिकता की चर्चा कर के उसमें छिपे भीतरी सत्य और मूल उद्देश्य से किनारा किया जाता रहा और परिणामस्वरूप उसका सामाजिक पक्ष प्रायः अनदेखा ही रह गया। कविता की तकनीक अलग जरूर है, पर वहाँ भी किसी न किसी प्रकार वे दुर्ग द्वार पर ही दस्तक दे रही हैं। कविता के भीतर भी उनका संघर्ष आध्यात्मिकता से ज्यादा स्त्री के स्वत्व का संघर्ष है। जैसे- ‘‘कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो…।’’ स्वतंत्रता की यह विकल आकांक्षा ही है, जो अपनी करूणा में बृहत्तर आयाम ग्रहण करता हुआ स्त्री जीवन की परिधि से निकल कर समूची मानवता को अपने विस्तार में समेट लेता है। उनकी चिंता समूचे जगत की चिंता से बनी है। यह ऊपर से वैयक्तिक लगता हुआ बाना निर्वैयक्तिक होकर कण कण के क्रंदन से अपना नाता जोड़ लेता है-
‘‘अलि, कण कण को जान चली मैं
सबका क्रंदन पहचान चली मैं।’’
स्त्री जीवन की ‘लघुता’ को स्वाभिमान और दृढ़ता की आभा देने का बड़ा काम महादेवी ने किया। उनके यहाँ यही ‘लघुता’ अपनी महत्ता में स्वत्व को बड़ा बना देती है और इसकी एवज में मिलने वाले स्वर्ग को ठुकरा देने का साहस रखती है-‘‘ क्या अमरों का लोक मिलेगा….।’’ यह स्वाभिमान, अभिमान नहीं है और यह मात्र देवलोक का निषेध भर नहीं हैं यह अपने आदर्श और मूल्यों के पक्ष में दृढ़ता से डटे रहना भी है। यह ऐसा आदर्श है, जो करूणा से बना, सृजा है। इसे आम भारतीय स्त्री के आत्मविश्वास अर्जित करने के साहस और अपनी लघुता में भी जीवन के सुख सौंदर्य को समझने स्वीकारने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए उनकी कविताओं की परतें खोलने के लिए उनके गद्य को समझना जरूरी है।
महादेवी जी ने जितना काम सन् 1942 तक कर दिया था आज निःसंदेह उसके आगे काम हुआ है। लगातार संघर्षरत स्त्रियों के प्रयास जारी हैं। तब भी यह वास्तविक यथार्थ है कि स्त्रियाँ आज भी समस्याओं से जूझ रही हैं और उनके लिए बहुत कम संसाधन संभव हो पाया है। उनके लिए विकल्पों की स्थिति आज भी शोचनीय बनी हुई है। लेकिन आश्चर्य इस बात से भी है कि जो महादेवी स्त्री स्वातंत्र्य के लिए देशव्यापी आंदोलन की जरूरत समझती रहीं उन्हें स्वतंत्र भारत के संघर्षरत महिला संगठनों ने भुला दिया। उनके लिखे से सामग्री ले कर कभी पर्चे नहीं बाँटे गए। उनकी बातों को घर घर तक पहुँचाने का कभी कोई प्रयास नहीं किया गया। आश्चर्य यह भी है कि सन् 1931 से 1934 तक लिख दिए गए ऐसे लेखों को हम विश्वस्तर तक कभी नहीं पहुँचा पाए और नारीवादी आंदोलनों के सारे विश्व इतिहास में अपने को अनुपस्थित ही सिद्ध करते रहे।
स्त्री विमर्श के युग को बीता हुआ बता कर आज फिर स्त्री के वैचारिक हस्तक्षेप को नकारना शुरू हो चुका है। स्त्री लेखन हो या उसकी बौद्धिक उपस्थिति हो, उसे लगभग हर मंच से उतार कर चैन की सांस लेने का पितृसत्तात्मक उपक्रम अब अपनी पराकाष्ठा पर है, तब एक बार फिर महादेवी अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद प्रासंगिक हो उठती हैं, जिनकी उपर्युक्त पुस्तक का स्वागत साहित्य जगत में उत्साह से नहीं किया गया था।
———————
संदर्भ –
1. सात भूमिकाएं, संपादक- दूधनाथ सिंह, पृ. 5
2. नवजागरण और महादेवी का रचना कर्म स्त्री विमर्श के स्वर, कृष्णदत्त
पालीवाल, पृ. 14
3. वही
4. अपनी बात, श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 9
5. वही
6. नवजागरण और महादेवी का रचना कर्म स्त्री विमर्श के स्वर, कृष्णदत्त पालीवाल,पृ.281
7. अपनी बात, श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 21
8. श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 40
9. द फीमेल यूनक, जर्मेन ग्रीयर, पृ.
10. श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 37
11. वही, पृ. 41
12. वही, पृ. 42
13. वही, पृ. 65
14. अपना कमरा, वर्जीनिया वुल्फ, पृ. 47
15. विद्रोही स्त्री, जर्मेन ग्रीयर, पृ. 63
16. श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 70
17. स्त्रियों की पराधीनता, जॉन स्टुअर्ट मिल, पृ. 59
18. वही, पृ. 33
19. द सेकेंड सेक्स, हिंदी अनुवाद- स्त्री उपेक्षिता, सीमोन द बोउवा, पृ. 207
20. वही, पृ. 209
21. वही, पृ. 206
22. वही, पृ. 138
23. श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 70
24. आपका बंटी, मन्नू भंडारी, प्रकाशन वर्ष सन् 1971
25. द सेकेंड सेक्स, हिंदी अनुवाद- स्त्री उपेक्षिता, सीमोन द बोउवा, पृ. 184
26. श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा, पृ. 22
———————————–
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली – 7
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!