Tuesday, May 14, 2024
Homeकविता“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

महादेवी वर्मा की जयंती में शुरू की गई ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। जैसा कि आप सभी जानते हैं इस शृंखला में स्त्री कवि की कविताओं को प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें उनकी प्रकृति संबंधी कविताएं होंगी।
इस शृंखला के तहत पिछले दिनों आपने राष्ट्रीय चेतना की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएं पढ़ी। इसी शृंखला की अगली कड़ी के रूप में आज सुमित्रा कुमारी सिन्हा की कविताएं प्रस्तुत की जा रही है।
छायावादोत्तर काल की प्रसिद्ध कवयित्री एवम लेखिका सुमित्रा कुमारी सिन्हा का जन्म 1913 को हुआ। वह हिंदी के प्रसिद्ध लेखक अजितकुमार एवम तीसरा सप्तक की कवयित्री कीर्ति चौधरी की मां थी। महाकवि निराला से उनका घरेलू सम्बन्ध था और युग मंदिर उन्नाव से निराला की किताबें भी उन्होंने प्रकाशित की थी।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।

कवयित्री सविता सिंह
…………………………

स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की हमारी तीसरी कवि सुमित्रा कुमारी सिन्हा हैं जिनकी कविताओं को पढ़ते हुए प्रकृति की मादकता से गुजरना होता रहा। उसकी हर भंगिमा खुद में उतरी हुईं जान पड़ती रही। भीतर बसी जीवन की लालसा अपनी कामुकता में फूलों के सुगंधों सी मिली, महकती सी, बदन से लगती रही। भोर में महुआ के टपकने को देखना प्रकृति का एक ऐसा रोमान रचता रहा जो प्रकृति का अपना भी रोमन है। महूए की महक प्रकृति के नशे में मुझे डुबाती रही। ऐसे में प्रेम भी किस गहराई तक ले जा सकता है मनुष्य को, इसका भी अहसास होता रहा। धरती और आकाश का मिलना संभव होता रहा। इसे कवि देखती रहीं और खुद पर रीझती रही। कल्पना और स्त्री-यथार्थ में फर्क यहां नहीं हो रहा। सुमित्रा जी इस अर्थ में एक संपूर्ण प्रकृति कवि हैं। इनको यदि नहीं पढ़ा गया तो एक विरल अनुभव से वंचित होना ही माना जाएगा। इतनी संस्लिष्ट, प्रकृति के इतने पास और भीतर, शायद उनके समय की दूसरी कोई और कवयित्री न गई हो। वह तो प्रकृति से एकाकार हैं। दोनो के होठ मिलें हुए। इसमें वह कितनी सन्तुष्ट है! कितनी उल्लास से भरी ! ऐसे ही स्त्रियां होना और रहना चाहती हैं। यहां पितृसत्ता का अहसास भी नहीं। यहां हवा है, मंद मंद और स्त्री है प्रसन्न प्रसन्न।
आप भी इस विरल कवि से मिलें और पढ़ें —
शरद पुनो की राका आई है
मादकता सी तरल हंसी
अवनी तल पर लहरायी है….
सुमित्रा कुमारी सिन्हा का परिचय :
———————
सुमित्रा कुमारी सिन्हा हिन्दी की छायावादोत्तर काल की प्रसिद्ध कवयित्री, लेखिका जिनका जन्म 1913 को विजयादशमी के दिन, फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश, में हुआ था। इन्हें पाठक कम ही जानते होंगे। देश के स्वाधीनता आंदोलन में उनका सक्रिय योगदान रहा। कवि-सम्मेलनों में मधुर कंठ से उनके कविता पाठ को याद किया जाता रहा। वे आकाशवाणी लखनऊ से सम्बद्ध रही। 30 सितम्बर, 1994 लखनऊ मेडिकल कॅालेज में उनका देहांत हुआ।
कविता संकलन : विहाग – १९४०, आशापर्व – १९४२, बोलों के देवता – १९५४।
कहानी संग्रह : अचल सुहाग – १९३९, वर्ष गाँठ – १९४२।
अन्य रचनाएँ : पंथिनी, प्रसारिका, वैज्ञानिक बोधमाला, कथा कुंज, आँगन के फूल, फूलों के गहने, आंचल के फूल, दादी का मटका।
सुमित्रा कुमारी सिन्हा की कविताएं :
———————
1 (विहाग 30)
मोहिनी सी डालतीं वे झूमती मधु-भार सी रे
आ रहीं नव-ज्योति सी उन्माद का ले ज्वार सी रे
हा ! न जाने दूर से किस दूर से वे आ रही है
चिर-विकल अनुभूतियाँ हलचल मचाने आ रही हैं
प्राण में जा बैठने, हिय कि व्यथा हिय से बताने,
पग-पलक-दल में मचल-चल-जलमयी बरसात लाने,
खोलती उर-द्वार धीरे वे चली ही आ रही है
मदिर एक मरोर से बेसुध बनाने आ रही है
डूबती निःसीम में अनुभूतियाँ निःस्तत्व सी यों,
चमक कर सौदामिनी हो मग्न नभ के अंक में ज्यों
*********
2 (विहाग 21)
कितना छवि-रस भर आज
शरद पूनो की राका आयी है !
मादकता की सी तरल हँसी
अवनी-तल पर लहराई है !
है सरोवरों में फूल रहे,
नव कुमुद शारदी लहर-लहर !
यह मलयालिन कुछ कानों में
कह रहा आज क्या सिहर-सिहर !
ज्यों सरित-वक्ष पर रजत-रश्मि
हो खेल रही चापल्य-संग,
त्यों विधुर-हृदय के कम्पन से
है होड़ ले रही नव उमंग
नव-आशा का संसार जगा,
भर गई हृदय में अमिट चाह !
है आज असह यह प्रणय-पीर
बह चला आँसुओं का प्रवाह !
वसुधा पर फैला है कितना
ज्योत्सना का यह सागर अपार !
बस, एक बार तो आज निकट
आ जा ओ मधुर प्यार !
*****
3 कितना मोहक, कितना मादक (विहाग 19)
कितना मोहक, कितना मादक,
कितना अभिनव यह मधु प्रभात।
नभ, तरु,तृण, पल्लव में आया
ऋतुराज आज मानो सगात।
मंगलदायिनी इस बेला में
ऋतुपति का प्यार उमड़ता है।
यौवन फूलों में चित्रित कर
उषा का राग छलकता है!
कलियां कुंजो में सुरभि-सनी
घूंघट-पट, खिसका, मुस्का कर
आधारों में परिमल के मधु-कण
देती मधुकर को लिपटा कर।
प्रिय आम्र-मंजरी को सुवास
ले मलय-वात बिखारती है।
किसलय विकसित होते उन्मद-
पिक पंचम तान सुनाती है।
पर आह वही पिक-कूजन सुन,
अस्थिर हो उठता मेरा मन।
जाने क्या है इस ध्वनि में जो,
उर में भर जाता सूनापन।
जाने किस गत स्मृति की कसकन
अंतःस्थल में उठती मरोड़।
स्वर-लहरी कंपित मौन शून्य में
करुणा की अनगनित हिलोर।
*****
4
आ गई बरसात फिर यह क्षितिज पर छाये सघन घन
आज खल खिल गा रही नभ-बूँद रिमझिम राग उन्मन
दे रही सन्देश जगती को,
लूटा दो दिन उमंगे
आज हरियाली बिछी है,
दो उठा उर की तरंगे
क्यों उठे फिर भी सजल-घन वेदना के पलक में घिर ?
क्यों रहे आख्यान उर के आँसुओं के ज्वार में तिर ?
क्यों बहें, ठंडी उसाँसे भार पीड़ा का उठा कर ?
झूलती दुख-दोल उसाँसे भार पीड़ा का उठा कर ?
हा ! मुझे अभिशाप ज्वाला
का मिला औ अश्रु-विनिमय,
आज रे काली अमा में,
कौन दे शशि-हास मधुमय
जानती हूँ जगत में जीवन-अरुणिमा है घड़ी भर
खींच दी है पर नियति ने रेख काली सित लड़ी पर
******
5 (आशापर्व 19)
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
लम्बे ऊँचे सघन पेड़ की फैली दूर दूर तक बाँहें,
अमराई के एक किनारे पथ में लेती ठंडी छाँहें,
हरी भरी टहनी की गोदी में नरमीले चिकने किसलय,
नाच रहे थे किलक रहे थे किरनों के खेलों में तन्मय
केसर-उज्ज्वल मोती-जैसे गोल गोल मधुपूरित सुन्दर-
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
पीकर महक मधुर मद भीनी शीतल पवन सिहर बल खाता,
कोने कोने में लहरा कर तरु के यश के गान लुटता
अनावृता अवनी अलसाई बिन शृंगार किये थी सोती,
आज चैत की मोहन-माला में इस तरु ने गूँधे मोती
फूला फूला मन धरती पर मुक्त हृदय से कर न्योछावर –
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
तरु के उल्लासों का झरना झर झर कर नीचे था आता,
खेतों की मेडों तक जाकर कुछ मीठे संवाद सुनाता
सोने की छाया में फूलों की रस-भरी कहानी लिखकर –
मानो तरु ने अपने जीवन का पन्ना उलटा था सुन्दर
झूम झूमकर मदहोशी से अनगिन चुम्बन की वर्षा कर –
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
उन्मद यौवन का मदिरा-घट मानो पल-पल पर छलकाता
प्रिय-पग का प्रक्षालन करने मानो नयना नांबुज़ ढुलकाता
कंचन-किरनों के समुन्द्र में वृन्त-पलक-सीपियां किलोलें,
मानो तरु ने सुघर मोतियों भरे अनेक खज़ाने खोले
विरह-व्यथा-मूर्छित उर्वी पर कुसुमायुध-सा बरसाता शर –
आज भोर महुओं को मैंने सुने वन में चूते देखा
वन खेतों की पगडंडी से उस बेला बालायें आतीं,
धरे कमर पर डलिया हँसती चंचल अंचल छोर उड़ातीं
दौड़ रही थीं होड़ लगाकर कौन अधिक महुआ बीनेगी,
किसकी आँख बचाकर उनमें कौन उन्हें बरबस छिनेगी
‘चल री सखि, रस-महुआ बीनें’- गाने की ध्वनि पर मँडराकर-
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
घनी बिछी ताज़े महुओं की ढेरी लगती कितनी सुन्दर,
रोदन या कि हास हो तरु का कितना मीठा मदिर मनोहर
मधुराई में डूबा तन मन कितना नशा उँडेल रहा था
हरे पल्लवों की छाया में कंदुक-क्रीडा खेल रहा था
मदिरा के रँग भरे कुमकुमे नन्हें नन्हें फेंक फेंक कर-
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
जिसकी सुधि में व्यर्थ अश्रुओं को पिघले मोती कह कहकर –
चेतन कवि गर्वित होता है, देखे जड़ व्यापार सफलतर
क्यों इस तरु को किसी की इतना मदिरामय कर डाले :
पी पी उसका अश्रुहास हों मदमाते से पीनेवाले
एक पहर की क्षुधा निवारण मानो दीन दरिद्रों की कर –
आज भोर महुओं को मैंने सूने वन में चूते देखा
****
6 उत्सव है प्रकृति (विहाग 99)
उत्सव है प्रकृति-वधू-घर, वैभव ले ऋतुपति आया
मदिरा से भीना पुलकित उल्लास-हास है छाया
मदमदाती गूँजों में है अलि की उठती नूपुर-ध्वनि
अग-जग को मुखरित करता मलयज का मुरली-निस्वन
सुरधनु-काया ले आई तितली डालों पर चंचल
गाती मदमदाती कोयल झरने हँसते-से कल कल
सरिता की लहर लहर में उठ गया पुलक का कम्पन
अलसाई किरनें जागीं, हँस पड़ा विश्व का कण-कण
मतवाली माधव-यामिनि का फूटा यौवन अलसित
उमड़ी दिशि-दिशि रस-धारा मकरंद मधु- विलसित
कोकिल-काकली मधुर सुन कलियों ने घूँघट खोला
किरणों के स्वर्णिम-कर ने कमलों में परिमल घोला
लतिका-चितवन से फूटी उन्मद फूलों की धारा
अलि के लालस सालस की बनती मन मोहक कारा
ले मीठी श्वास सुरभि की मलयज मंथर गति आता
तृण तृण के उर में जीवन की लहर आबाध उठता
शत शत रंगों के चुम्बन-अंकित नव फूल खिले हैं
माधवी लता की डालों से मधुकर गले मिले हैं
झोली भर निधि ले भागा कुंजों से चोर समीरन
खिलती कलियों पर उन्मन डोला मधुपों का गुंजन
तरु तरु में हास जगा है फूटी पल्लव में लाली
दिशि दिशि में लहर उठी है छाई छवि की हरियाली
मेरी भी संज्ञा जागी तंद्रा जा अलग पड़ी है
जागा उल्लास हृदय में चंचल मनुहार खड़ी है
निस्पंद हृदय के पट से टकराती एक प्रतिध्वनि
युग युग का संयम पिघला है जाग पड़ा उर-कम्पन
कलरव कर जाग पड़ी हैं मन-पंछी-नवल-उमंगे
तिमिरावृत उर में हँसती फैली आलोक-तरंगे
फूलों में खुल खुल खेलों, संकेत चेतना करती
मधु भार न यह संभालेगा, प्रेरणा नई है भरती
जाने किन जादू –फूलों से गूँथ गई मन-डाली
जिससे दुलकी पड़ती है सौरभ मदिरा मतवाली
अभिलाषाएं जीवन की चुपके चुपके मुसकाती
ये लुकी छिपी-सी साधें घूँघट धीरे सरकातीं
………………………
7 धरा आकाश मिलते हैं (बोलो के देवता 11)
घुमड़ते घिर रहे हैं घन गगन का प्यार ले आकुल,
बुझाने को अवनि-तृष्णा चले रसधार से आकुल,
बने आकांक्षा दुर्दम झुके आते सजल जलधर,
दिगंतों को गुंजाये दे रहे ये आगमन के स्वर,
धरा को बाँध लेने को समर्पण-क्षण मचलते हैं
धरा आकाश मिलते हैं
उमड़ती घन घटाओं के बिखेरे आज भुज बन्धन,
उतर आकाश बूंदों में धरा के ले रहा चुम्बन,
मची है धूम वाद्यों की निरत है नृत्य में चपला,
हुई बौछार मोती की शस्यमय हो गई अचला,
उठी है मोह की लहरें मधुर छवि-स्वप्न खिलते हैं
धरा आकाश मिलते हैं
निविड़ तम में छिपी आलोक-जीवन की तरंगे हैं,
हुई फिर मूर्त पावस में छहों ऋतु की उमंगे हैं,
हरित परिधान में पुलकित मन्दिर सपनों भरी धरती,
किये शृंगार फूलों का सुरों का भी हृदय हरती,
विहँसती कह रही ऐसे प्रणय के प्राण पलते हैं
धरा आकाश मिलते हैं
***********
8 याद आ रही मुझे सखी (विहाग 13)
याद आ रही आज मुझे सखी
मृदु शैशव के सावन-घन की।
रिमझिम का राग मनोहर
वह हरियाली वन-उपवन की।
हंस आनंद मानती थी सखी,
आम्र-साख पर झूम हिंडोले।
रस का धर बहती थीं
वारिद मालाएं हौले-हौले!
मंजू-मयूरी का नर्तन लख,
पुलक प्रेम से उर उठता था।
हाय ! पपीहों की पुकार सुन,
मन कौतुक से भर उठता था।
हृदय नाचने लगता था-
लाख चंचल तितली का उड़ना
हरे हरे पत्ते लहराते
लख, विकसित पुष्पों का हंसना।
नीलम मेघ-पटों में चपला
चमक चौंध कर छिप जाती है,
हीय में सुन गंभीर नाद
मेघों का, हलचल मच जाती थी।
अरे, गले मिल गया कहां वह?
खोल द्वार यौवन का शैशव!
आज बादलों से मिल रोता
हृदय, लुटा प्राणों का वैभव!
*****
9
यह ऋतु भी अब चल दी, साथी !
शान्त हो गया मेघों का मन,
मौन पड़ा बूँदों का गायन,
देने मधुर गुदगुदी किरणें
आईं आज फिसलती, साथी
यह ऋतु भी अब चल दी, साथी
सर में सरसिज अब फूलेंगे,
उनमें अलि के मन झूलेंगे,
घूँघट डाले शीत गुलाबी
मीठी अनिल मचलती, साथी
यह ऋतु भी अब चल दी, साथ
चटक खिलेगा जब धूमिल दिन,
हँस देगी मधु-ज्योत्सना-यामिनि;
स्फूर्ति-लहर दौड़ेगी मानव-
मन में कोलाहल की, साथी
यह ऋतु भी अब चल दी, साथी
बीते अब तो मेरी मावस,
रीते झर-झर कर यह पावस ;
अब तो पल भर के स्थिर जल में
विकसे मिलनोत्पल भी, साथी
यह ऋतु भी अब चल दी, साथी
*****
10 (बोलो के देवता 39)
मुझे नहीं विश्राम, आज है मेरी गति अविराम
गहरी साँस सिन्धु के तट से हो जाती है पार,
उठती रात कराह, अँधेरे से हो एकाकार,
टकराती हैं लहरें तट से ले अन्तिम उन्माद,
किन्तु न जाने कौन किया करता मुझसे संवाद,
किसके प्रेरक आहवाहनों से पूर्ण हुए निशि याम
मुझे नहीं विश्राम, आज है मेरी गति अविराम
ऊषा का उल्लास, साँझ का अलस मदिर अभिसार,
पंछी के कंठों से निकाली गीतों की मधु-धार,
किरणों की आभा में सुरभित हँसता मधु-ऋतु-भोर,
और सरित की कूल विचुंबित उठती मंजु हिलोर,
खींच न पाती है ; मेरे क्षण आज हुए निष्काम
मुझे नहीं विश्राम, आज है मेरी गति अविराम
चित्र पूर्ण है ; भूल गई हूँ रेखा का इतिहास,
स्वयं रागिनी बनकर खोया स्वर का आज विकास,
डूब चुका है ध्येय ध्यान में ; पथ में मंजिल-द्वार ,
सपनों में अस्तित्व लूटा सो गई नींद भी हार,
मूर्त कल्पना में पाया है मैंने जग अभिराम
मुझे नहीं विश्राम आज है मेरी गति अविराम
*********

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!