Monday, December 9, 2024
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पति के मरने के बाद उनका सब कुछ छप जाए यही मां का ध्येय था। सुष्मिता श्रीवास्तव

हिंदी के प्रसिद्ध लेखकों की पत्नियों की शृंखला में अब तक आपने 27
साहित्यकारों की पत्नियों के बारे में अद्भुत किस्से पढ़े और इस तरह आपने पाया कि पर्दे के पीछे इन पत्नियों का कितना बड़ा योगदान था लेकिन वे साहित्य की दुनिया में ओझल रहीं।इस बार आप पढ़िये हिंदी के प्रख्यात आलोचक कवि चिंतक एवम बुद्धिजीवी विजयदेव नारायण साही की पत्नी कंचन लता साही के बारे में।उनकी पुत्री सुष्मिता श्रीवास्तव अपनी मां के बारे में बता रही हैं।सुष्मिता जी भारतीय रेल सेवा की वरिष्ठ अधिकारी रही हैं।थिएटर एवम लेखन से लगाव के कारण उन्होंने ऐच्छिक सेवानिवृति ले ली है। तो आईए कंचन जी के बारे में पढ़िए लेकिन उससे पहले थोड़ा विजयदेव नारायण साही के बारे में आप जान लें या अपनी स्मृतियों को फिर से ताजा कर लें।साही जी तीसरे सप्तक के कवि थे और जायसी पर उनका अद्भुत कार्य था।वे नामवर जी के हमउम्र थे और उनकी तरह कुशल वक्ता और विद्वान थे।रामविलास जी की तरह अंग्रेजी के प्रोफेसर होते हुए हिंदी के आलोचक थे। आज़ादी के बाद हिंदी आलोचना की त्रयी में रामविलास शर्मा साही और नामवर जी का नाम शुमार होता है।

विजयदेव नारायण साही का जन्म 7 अक्टूबर सन् 1924 ई॰ को कबीर चौरा, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री ब्रह्मदेवनारायण साही तथा माता का नाम सूरतवन्ती साही था।

1 दिसंबर 1957 को प्रोफेसर मुरलीधर लाल श्रीवास्तव की पुत्री सुश्री कंचनलता से उनका विवाह हुआ।

1970 में वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में रीडर हुए और 1978 में वहीं प्रोफ़ेसर हुए।

साही ने अपना पूरा जीवन शोषित मजदूरों एवं महिलाओं के उत्थान के लिए लगाया। कालीन-बुनकरों को संगठित कर उनकी यूनियन बनायी, उनकी लड़ाई लड़ते रहे। महिला कताईकारों के लिए भी संघर्ष किया और उन्हें उचित वेतन दिलवाया। साही कानून की पुस्तकें पढ़ कर मजदूरों के मुकदमे को हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते थे और जीतते भी थे। इस कार्य में उन्होंने कार्यकर्ताओं को भी प्रशिक्षित किया
13सितंबर1982को लोहिया-जयप्रकाश जयंती के अवसर पर पटना में भाषण देकर लौटते ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा। यही उनका आखिरी भाषण सिद्ध हुआ। 5 नवंबर 1982 को बैंक रोड, इलाहाबाद में उनका निधन हो गया।

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मेरे पिता अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे और हिंदी उनकी सहचरी थी, पर इसे अलावा वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे: उर्दू, फ़ारसी और फ़्रेंच। उर्दू में वे यदा कदा लिखते भी थे।

वे समाजवादी मूल्यों में विश्वास रखनेवाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
पापा का जब 1957 में विवाह हुआ था तब वह 33 के थे और माँ 19 की थी। यह प्रेम विवाह था, पापा ने तो शायद शादी न करने का विचार कर लिया था। वे क़ालीन बुनकरों के लि काम कर रहे थे, उनको एकजुट कर रहे थे, उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, मुक़दमे तैयार कर रहे थे। शायद उनको परिवार के लिए कोई जगह नहीं नज़र आई होगी। पर माँ से मिलकर ये सब बदल गया।

मां का जन्म , 16 अप्रैल, 1938. को कानपुर में हुआ था पर उनकी पढ़ाई लिखाई इलाहाबाद में हुई थी।वह एम ए अंग्रेजी से थी और बाद में उन्होंने अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक जॉन गेल सवर्दी के महिला किरदारों पर पीएचडी की थी।वह इलाहाबाद विश्व विद्यालय में प्राणिविभाग के प्रोफेसर और डीन मुरलीधर श्रीवास्तव की बेटी थीं। मेरे नाना बलिया के थे।मेरी माँ अपने माता पिता की तीसरी संतान थीं।उनके दो बड़े भाई और दो छोटी बहने थीं।

मेरी सबसे बड़ी बुआ पापा से उम्र में काफ़ी बड़ी थीं। उनकी बेटी शीला, हमारी शिल्लो जीजी, माँ की बी ए की सहपाठी थीं, लिहाज़ा माँ और पापा की मुलाक़ात हुई।
माँ अपने आप में भी एक ज़हीन, स्नेही और रहमदिल महिला थीं। मेरी कई सहेलियाँ उनको बहुत पसंद करतीं और अपनी परेशानियाँ, अपने अनुभव और विचार उनसे बाँटती थीं इस यक़ीन के साथ कि वे हर बात को सुनेंगी और समझेंगी। कई सहेलियाँ उनको आजतक याद करती हैं।
शादी के बाद एक दम्पति के रूप में दोनों बहुत ख़ुश थे,।दोनों में बहुत प्रेम और परस्पर इज़्ज़त थी।दोनोंका बहुत बहुत शालीन, नैतिक और उदार आचरण,था घर में और बाहर,
भी। ये उदाहरण हम बच्चों के लिए उन दोनों ने स्थापित किया। पापा तो रचनाओं को छपवाने में ज़्यादा यक़ीन नहीं रखते थे, बहुधा वे भाषण दे देते थे या परस्पर बातचीत में किसी को विचार सुना देते थे। अब ये निजी वक्तव्य तो हवा के झोंकों की तरह चले गए या फिर सुनने वालों ने अपनी ख़ुद की किताबें उनको आधार बनाकर लिख डालीं, पर जो भी भाषणों की recordings वग़ैरह माँ प्राप्त कर सकीं, उन्होंने पुस्तक रूप में छपवायीं। बहुत मेहनत की उन्होंने,। पापा के मरणोपरांत उनके लिए जीवन का बस यही ध्येय की वो सारी चीजें छपे और , यही उनकी लगन भी थी।
पापा एक विलक्षण आदमी थे और मम्मी उनके व्यक्तित्व के वैभव को पूर्णतया पहचानती थीं। वे सम्मोहित भी नज़र आती थीं ओर नतमस्तक भी। उनमें कभी कोई मतभेद होता हमने तो नहीं देखा। मुझे लगता है कि उन्होंने निर्णय ले रखा था कि मतभेदों को आपस में सुलझा कर बच्चों के सामने हमेशा एकमत पेश आएँगे।
पापा कुछ भी fussy नहीं थे खाने पीने के मामले में या रोज़मर्रा के घरेलू मामलों में। लेकिन मम्मी ध्यान रखती थीं कि उनके पसंद की चीज़ें बनें। पर पापा का ध्यान उस किताब या उस शतरंज के खेल पर लगा होता था जो वे खाने की मेज़ पर अपने साथ ले आते थे। (बता दूँ कि हमारे घर में किताब मेज़ पर लाना वर्जित नहीं था, उसको “आधा भोजन “ की उपाधि प्राप्त थी। मन बहलाने के लिए शतरंज पापा को बहुत पसंद था। मेरे भाई से खेलते थे, पर भाई जल्दी ही अमरीका चले गए। हिंदी के प्रसिद्ध कवि जगदीश गुप्त से भी खेलते थे। पर ज़्यादातर अपने आप से ही खेलते थे, दोनों तरफ़ से । बहरहाल।)
तो मम्मी कुछ उनके ख़ास पसंद का बनाती थीं सो पहले ही आगाह कर देती थीं। मसलन “भिंडी आज कुरकुरी लहसुन वाली है, आपको पसंद है, ग़ौर करिएगा।” नहीं तो वह बिना ध्यान दिए खा लेते थे कि क्या खा रहे हैं और मम्मी के पूछने पर अफ़सोस करते थे कि अरे, पता ही नहीं चला।
शादी के बाद माँ ने पापा को रोका हो, ऐसा नहीं था। पर पापा के मज़दूरों के लिए किए जाने वाले काम की वजह से अमीर और ताक़तवर मिल मालिक उनके दुश्मन हो गए थे। जब भी पापा भदोही जाते, उनके ऊपर मंडराते ख़तरे की वजह से माँ, जिनकी उम्र ही क्या थी, रात रात सोती नहीं थी। इस की वजह से पापा ने भदोही जाना छोड़ दिया और दूर से, यूसुफ़ बेग़ के माध्यम से, काम करते रहे।
दोनों में अक्सर हँसी मज़ाक़ होता था। पापा देर रात तक जगते थे, विचारमग्न, या जैसे इमरजेंसी के दौरान उद्वेलित, पर मम्मी को नौ बजे ही नींद आने लगती। बेचारी कोशिश तो बहुत करतीं! पर झपकी आ ही जाती।
हमारा बड़ा सा, कच्ची दीवारों वाला, खपड़ैल की छत वाला, बड़े से आँगन वाला, पुराना सा घर था, जिसको साफ़-सुथरा और क़रीने से रखना लगभग असंभव था। इस संबंध में भी पापा मम्मी की कुछ मज़ेदार बातें होती थीं। पापा ने मम्मी को कह रखा था कि वे घर के चक्कर में अपने आप को थकाएँ नहीं। उनका कहना था कि उनको एक ख़ुश पत्नी चाहिए थी बनिस्बत एक साफ़ घर के।
पापा बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे। तो उनके पास हर बात का कोई कारण, कोई explanation होता था। एक बार मम्मी ने इच्छा व्यक्त की कि कार ले ली जाए क्या? तो पापा ने हाँ या ना में राय नहीं दी। बोले, सोच लीजिए। ये-ये ख़र्चे होंगे। फिर आपको दूसरे ख़र्चों के बारे में हर माह विचार करना होगा। अब आप सोच लीजिए कि आप कार चाहती हैं या ख़र्चों के बारे में कभी न सोचना। माँ को लगा दूसरे option में ज़्यादा चैन है, सो कार नहीं ली गई। इसी तरह से तर्कसंगत निर्णय वे दोनों बड़ी शान्ति से लिया करते थे, हर मामले में।
कुल मिला कर मैं यह बताना चाह रही हूँ कि पापा मम्मी से जो चाहते थे वह था उनका साथ । और पापा का साथ देना मम्मी के लिए उनकी हर ख़ुशी का स्रोत था।

पापा कुछ मामलों में बड़े absent minded भी थे। कई बार मम्मी के साथ कुछ प्रोग्राम बनाकर भूल भी जाते थे, अपने ख़यालों में गुम होकर। मुझे याद है कहीं शादी में जाने के लिए वे सज धज के तैयार बैठीं और पापा उनको लेने घर ही नहीं आए, जहाँ थे वहाँ से सीधे ही चले गए। बस भूल गए । एक बार तो हद ही हो गई। दोनों बाज़ार गए और पापा उनको एक दूकान पर भूल कर स्कूटर घर ले आए। मम्मी रिक्शे से घर आईं। पर कुछ भी हो, मम्मी के चेहरे पर इन बातों से कोई शिकन नहीं आती थी। वे जानती थीं कि पापा ऐसे ही हैं और ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं। मायने रखने वाली बातें दूसरी थीं, जिनका तो उनके पास ख़ज़ाना था।
एक बार की बात है, मैं कुछ १०-१२ साल की रही होऊँगी। एक पत्रिका में मैंने एक लाल मखमल का गाउन देखा। तो मैंने मज़ाक़ में मम्मी से बोला, आप इस में कैसी लगेंगी? पापा भी वहाँ थे, बोले : तुम्हारी मम्मी कुछ भी पहनें, सुंदर ही लगेंगी।

पापा खादी ही पहनते थे, और कुछ नहीं। मम्मी बताती थीं कि शादी करके नई नई आयीं तो पापा ने बड़ी सरलता से कह दिया कि के जी, २ पायजामे बना दीजिएगा। अब मम्मी को तो आता नहीं था पर वे पापा से ना नहीं कहना चाहती थीं। बोलीं अच्छा। मायका भी इलाहाबाद में ही था, सो कपड़ा ख़रीद कर झटपट दिन में मायके गईं, सीखसाखकर बना डाला। पापा को बहुत बाद में पता चला कि यह कला उन्होंने कैसे बहुत जल्दी में हासिल की।

मेरी माँ का स्वभाव बहुत प्रेमी था। नानी बताती थीं कि उनकी बीमारी के दौरान बारह साल की बालिका, मेरी मॉं, उनको एक एक गर्म रोटी बनाकर तीन माले चढ़ कर देती थीं।

एक बार जब बचपन में मैं पीलिया से पीड़ित महीना भर बिस्तर पर पड़ी रही तो मुझे बहलाने के लिए उन्होंने बच्चों के एक प्रसिद्ध उपन्यास गार्गान्तुआ को मुझे सुनाने के लिए पूरा हिंदी में अनूदित कर डाला!

माँ को पापा ‘के जी’ संबोधित करते थे।पापा के जाने के बाद मम्मी बस एक shell सी रह गई थीं, एक साध्वी सी, जिनमें अंदर जैसे कुछ जम गया। पापा की याद और अपने मन में पापा की छवि के सहारे न जाने कितनी पीड़ा में उन्होंने वैधव्य काटा, याद करती हूँ तो अब भी आँसू आ जाते हैं।:
मैं यहां एक लेख प्रस्तुत रही हूँ जो माँ ने लिखा था, पापा के बारे मैं। हो सकता है इससे आपको उनके विचारों को आंकने में सुविधा हो।

(सुष्मिता जी से यह लेख उनकी मित्र डॉ अनीता गोपेश जी के सौजन्य से मिला।वह साही जी के परिवार से अंतरंग रहीं हैं ।स्त्री दर्पण उनके प्रति आभार व्यक्त करता है।)

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