Friday, November 22, 2024
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“काफ्का का आत्म संघर्ष”

अब काफ़्का की डायरी का दूसरा भाग : –

पिछले रविवार को आपने काफ़्का की डायरी का एक भाग पढ़ा। आज पढ़िये उसका दूसरा हिस्सा। कल्पना पंत और तनु बाली ने बहुत सजीव अनुवाद किया है। इसमें काफ़्का के आत्मसंघर्ष की झलक दिखती है। काफ़्का की डायरी को पढ़कर उसके बारे में एकदम से कोई निष्कर्ष निकाल लेना सहज नहीं है। डायरी और अन्य कृतियों का अनुवाद करना अत्यंत कठिन कार्य है। अंग्रेजी में भी उनकी कृतियों के अनुवाद में अनेकार्थी शब्द गुंथे हुए हैं जिनका अनुवाद करने के लिए निरंतर बहुत संघर्ष करना पड़ता है डायरी को पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि कई प्रश्न हैं जिससे लेखक निरंतर जूझता रहता है और उसका आत्म संघर्ष निरंतर चलता रहता है।
पृष्ठ संख्या-32-33
दिसंबर 15,
अपनी वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों पर में विश्वास नहीं करता हूँ, इस परिस्थिति को एक वर्ष हो चुका है, मेरी हालत बहुत गंभीर है, वास्तव में, मैं तो ये भी नहीं जानता कि यह परिस्थिति नवीन है भी या नहीं। हालाँकि मेरा वास्तविक मत है कि यह परिस्थिति भिन्न है-इसी प्रकार की स्थिति कई बार आई है, परंतु इस जैसी कोई नहीं, ऐसा महसूस होता है जैसे मैं पत्थर से बना हूँ, जैसे मैं अपनी ही क़ब्र का पत्थर हूँ, इसमें शंका या विश्वास, प्रेम या घृणा, साहस या व्याकुलता, विशेष या सामान्य के लिए कोई रास्ता नहीं है, सिर्फ एक धुंधली आशा है, परंतु वह भी क़ब्र के पत्थर पर, खुदे हुए शब्दों से बेहतर नहीं है। मेरे लिखे शब्द एक दूसरे से टकराते हैं, मैं व्यंजनों की परस्पर टकराहट को सुनता हूं और स्वर, किसी संगीत सभा में गाते हुए नीग्रो लोगों की भाँति लगते हैं।प्रत्येक शब्द मुझे सशंकित करता है। शब्दों को देखने से पहले ही मेरे मन में शंका उत्पन्न हो जाती है। इस कारण शब्दों को देखना मेरे लिए कठिन हो जाता है और फिर मैं शब्दों को गढ़ता हूंँ।बेशक यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य नहीं होगा, मुझे केवल ऐसे शब्दों का आविष्कार करने में सक्षम होना चाहिए जो लाशों की गंध की भांति किसी अन्य दिशा की ओर सीधे न जाकर मेरे और पाठकों के चेहरे की ओर भी आएं। जब मैं अपनी डेस्क पर बैठता हूँ उस व्यक्ति की तरह महसूस करता हूँ जिसके दोनों पैर प्लेस डी ल’ ओपेरा की भीड़-भाड़ में गिरने से टूट जाते हैं। सारी गाड़ियां, अपने शोर के बावजूद सभी दिशाओं में बेपरवाही से जाती हैं, परंतु उस व्यक्ति की पीड़ा जरा भी कम नहीं होती, पीड़ा के चलते उसकी आँखें मुंद जाती हैं और वह महसूस करता है की ‘प्लेस’ तथा गलियां वाहनों के, वहां होने के बावजूद भी खाली हैं। अत्यधिक हलचल उसे व्याकुल करती है क्यूँकि वह, यातायात में एक बाधा है, लेकिन , खालीपन भी कम तक़लीफ देह नहीं है, क्योंकि यह उसकी वास्तविक तकलीफ को उसी अवस्था में स्थिर कर देती है।
पृष्ठ संख्या -35
दिसंबर 18,
यद्यपि यह पूर्ण रूप से निश्चित नहीं होता कि मैं पत्रों को क्यों ( यहाँ तक कि वे पत्र भी जिनके महत्वहीन विषयों के बारे में मुझे पहले से, इस पत्र की भांति जानकारी हो सकती है) थोड़े समय के लिए सिर्फ दुर्बलता तथा कायरता के कारण यूँ ही बिना खोले हुए पड़े रहने देता हूँ मैं पत्र को खोलने में उतना ही झिझकता हूँ जितना लोग उस कमरे का दरवाजा खोलने में झिझकते हैं जिसमें कोई, संभवत पहले से ही मेरा व्यग्रता से इंतजार कर रहा है, कोई स्पष्ट कर सकता है कि इन पत्रों को इस प्रकार से पड़े रहने देना उन्हें पूरा पढ़ने से बेहतर है, यानि कि, स्वयं को एक सम्पूर्ण व्यक्ति न मानकर, मुझे पत्र से संबंधित प्रत्येक संदर्भ में यथासम्भव विलम्ब करने का प्रयास करना चाहिए, मुझे पत्र को धीरे से खोलना चाहिए, उसे पढ़ना चाहिए, धीरे -धीरे बारंबार, एक दीर्घ अवधि तक उस पर विचार करना चाहिए, कई मसौदों के उपरांत एक अंतिम प्रति तैयार करनी चाहिए और अंतत: भेजने में भी विलंब करना चाहिए, ये सब कुछ मेरे वश में है, केवल आकस्मिक प्राप्ति को ही नज़रंदाज नहीं किया जा सकता, खैर इस प्रक्रिया को मैं स्वयं भी टालता हूँ, मैं लम्बे समय तक इसे नहीं खोलता, यह मेरे समक्ष मेज पर पड़ा रहता है, ये लगातार स्वयं को मुझे पेश करता है, निरंतर मैं इसे ले लेता हूँ, परंतु स्वीकार नहीं करता हूँ ।
पृष्ठ संख्या -41
जनवरी 12, इन दिनों मैंने अपने विषय में अधिक कुछ नहीं लिखा है, कुछ हद तक अपने आलस्य के कारण (आजकल मैं खूब ज्यादा और अच्छी नींद लेता हूँ , जब मैं सोता हूँ तो काफी बोझिल होता हूँ) तथा कुछ हद तक आत्मबोध के गलत ठहरने के भय से । यह भय उचित है, क्योंकि आत्मबोध को लेखन में आकस्मिक निष्कर्षों तथा सत्यता की कसौटियों पर निर्णायक तौर पर कसने के बाद स्थापित करना चाहिए यदि यह नहीं होता है – और किसी कारण से मैं इसे करने में सक्षम नहीं होता हूँ – तो जो लिखा गया है, अपने उद्देश्य के अनुसार तथा पूरी शक्ति द्वारा, मूल रूप से महसूस किए गए को इस प्रकार प्रतिस्थापित कर देगा कि वास्तविक अनुभूतियाँ विलुप्त हो जायेंगी जबकि जो पहले लिखा गया है उसकी व्यर्थता देर से ही सही, सिद्ध हो जायेगी।
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