Tuesday, May 14, 2024
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गोर्की का अंतिम उपन्यास — “क्लिम समगीन की ज़िंदगी”

“क्या गोर्की ही समगीन थे ?”
मित्रो, आपने रूस के विश्वप्रसिद्ध लेखक मैक्सिम गोर्की की किताबें जरूर पढ़ी होंगी लेकिन क्या आपने उनके महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘क्लिम समगीन की ज़िंदगी’ को पढ़ा है? हिन्दी में पहली बार उनका यह उपन्यास छपा है।चार खण्डों में प्रकाशित इस उपन्यास में करींब 700 पात्र हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कितना बड़ा उपन्यास है। टॉलस्टॉय के वॉर एंड पीस से बहुत बड़ा। गोर्की गांधीजी से एक साल बड़े थे और भारतेंदु के समकालीन थे। प्रेमचन्द से 12 साल बड़े थे लेकिन उनका निधन 1936 में हुआ। प्रेमचन्द का निधन 36 में हुआ था। गोर्की, लेनिन के मित्र थे स्टालिन के भी।टॉलस्टॉय, गोर्की और चेखव की तिकड़ी रूसी साहित्य के जगमगाते सितारें हैं।
आज आप पढ़िए विद्यानिधि छाबड़ा का यह महत्वपूर्ण लेख। उन्होंने गोर्की के इस उपन्यास के चौथे खंड का सुंदर अनुवाद किया है। गोर्की का यह आत्म कथात्मक उपन्यास है जो रूस का जीता जागता इतिहास है।
मई दिवस पर विशेष :
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गोर्की का अंतिम उपन्यास — “क्लिम समगीन की ज़िंदगी”
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गोर्की को किसने नहीं पढ़ा? उनके उपन्यास उनके जीवन की कथा रहे हैं और रूस की आम जिंदगी के साक्षी भी। एक समय में समाजवादी यथार्थवाद के साहित्यिक प्रतिमान भी उनके उपन्यासों ने ही निश्चित किए। लेकिन गोर्की के अंतिम उपन्यास ‘क्लिम समगीन की जिंदगी’ का कुछ अलग ही हश्र हुआ।
1925 से 1936 के दस सालों के दौरान लिखा गया यह उपन्यास उनकी जीवन-यात्रा का वह अंतिम सोपान था जिस पर आज तक बात ही नहीं हुई, जिसे सराहा भी नहीं गया, बल्कि जो समय के अंधकार में दबा दिया गया। अधिकांश लोगों को आज भी नहीं पता कि कभी गोर्की ने इसी पूरी शिद्दत से लिखा था और यह सोचकर लिखा था कि यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना होगी। उन्होंने इसे अपना” वसीयतनामा” कहा था। उन्हें यकीन था कि क्लिम समगीन एकमात्र ऐसी पुस्तक है जो हमेशा उनके लिए बनी रहेगी। उन्होंने यहां तक कहा था —
‘‘वे (आलोचक) मेरे बारे में ऐसा कहेंगे कि मैंने कई बुरी किताबें पर एक अच्छी भी लिखी है।’’ यानी समाजवादी यथार्थवादी चित्रण की अपनी सुप्रसिद्ध रचनाओं की कमज़ोरियां भी वह पहचान रहे थे और इस उपन्यास की संभावनाएं भी। वह समाजवादी चित्रण और दृष्टि के अंतर को भी भली-भांति समझ चुके थे और उन्हें लग रहा था कि यह उपन्यास समाजवादी क्रांति के अंतर्विरोधों की पहचान करने वाली विचारधारात्मक दृष्टि के कारण साहित्यिक जगत में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। लेकिन इसी बात ने इस उपन्यास के ख़िलाफ़ एक माहौल तैयार किया। सामाजिक क्रांति की सामूहिकता के उस युग में गोर्की के ‘व्यक्ति’ की बात कौन सुनना चाहता था? इसलिए यह उपन्यास सोवियत संघ में पढ़ा ही नहीं गया। अंग्रेज़ी के इतर किसी भाषा में इसका अनुवाद नही हुआ इसलिए वह विश्व के सामने खुलकर आया ही नहीं। अंग्रेज़ी अनुवाद भी एक ही बार छपे और वह भी वक्त की गर्द में खो गए।
अभी एक महीना पहले ही यह उपन्यास संवाद प्रकाशन से छपकर आया है। इसके चार खंड हैं — ‘साक्षी’, जिसका अनुवाद डा. देव ने किया है। दूसरा है ‘आकर्षण’ जिसका अनुवाद अनुपमा ऋतु ने किया है। तीसरे खंड ‘दावानल’ का अनुवाद अंग्रेज़ी संस्करण न उपलब्ध होने के कारण चारूमति दास ने सीधे रूसी से ही किया है। चौथे खंड ‘छायामुक्ति’ की अनुवादक मैं हूं। हर खंड का आकार काफी बड़ा है — लगभग 600-700 पन्ने और कीमत 600 रूपए प्रति खंड है। मई दिवस के विशेष संदर्भ में इस उपन्यास पर बात करना मुझे इसलिए आवश्यक जान पड़ा कि इसके माध्यम से व्यक्ति और क्रांति के पारस्परिक अंतर्विरोधों की उस पड़ताल तक पहुंचा जा सकता है जो क्रांति के पक्षधर गोर्की ने अपने जीवन के अंतिम सालों में की थी।
इस उपन्यास का उपशीर्षक था — चालीस साल। इसका विराट फलक था। गोर्की के लिए यह 1917 की रूसी क्रांति से पहले के चालीस सालों का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ था। विदेशी प्रेस के लिए लिखी गई संपादकीय भूमिका में गोर्की ने लिखा था — ‘‘इसमें रूसी जीवन के चालीस साल दिखाए गए हैं — 1877 से लेकर 1918 तक। यह एक ‘क्रोनिकल’ यानी ऐतिहासिक वृतांत की तरह लिखा गया है। इसमें इस दौरान हुई सारी मुख्य घटनाएं शामिल हैं, खास तौर पर निकोलाई द्वितीय के शासनकाल की। उपन्यास की पृष्ठभूमि मास्को, सेंट पीटर्सबर्ग और दूसरे प्रांतों में रची-बसी है। इसमें सभी वर्गो के पात्रों का चित्रण है — रूसी क्रांतिकारी, कट्टरपंथी, वर्गच्युत लोग इत्यादि।’’
यह उपन्यास गोर्की के लिए ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तियों का संधान तो था ही, आत्म-संधान भी था। गोर्की के मित्र बोल्शेविक अनातोली लूनाचारस्की ने लिखा था — ‘‘चालीस साल बहुत लंबा समय होता है। जब एक लेखक 40 साल काम करने के बाद अपनी ​ ज़िंदगी को मुड़कर देखता है तो उसे वह एक लंबी नदी की तरह दिखाई देती है, जिसका उद्गम स्थल प्राचीन इतिहास की तरह ही सुदूर होता है…..गोर्की भी पीछे मुड़कर देखते हैं। क्लिम समगीन की यह महान संरचना चार दशकों की गोर्की की स्मृतियों की गतिमान चित्रमाला ही है। इसमें 800 से ज़्यादा पात्र और घटनाएं हैं, कथा-पात्रों की वैचारिक बहस में दार्शनिकों और राजनीतिज्ञों के 70 से अधिक नामों का उल्लेख किया गया है। तॉल्सतोय पर 100 से भी ज़्यादा पन्ने लिखे गए हैं। दस्तोयेव्स्की भी वहां है और लियोनिद आंद्रयेव भी। वहां ‘मील के पत्थर’ पर चिंतन भी है और स्वयं गोर्की का असली रूप भी। इस उपन्यास में गोर्की ने अपना संपूर्ण अनुभव व्यवस्थित कर साझा किया है।’’
वाकई इस उपन्यास के विस्तृत फलक के चालीस सालों में गोर्की के संपूर्ण लेखन के सामाजिक सरोकार समाहित थे। यह उनकी वह साहित्यिक विरासत थी जिसे वह विश्व के लिए छोड़ जाना चाहते थे। कितनी अजीब बात है कि जिस पुस्तक में गोर्की अमरत्व खोज रहे थे, उसे उनके संपूर्ण लेखन की सबसे भयावह विफलता मान लिया गया और खारिज कर दिया गया।
बोरिस परमानोव ने लिखा — ‘एक महाकाव्य जैसा आकार, लेकिन महाकाव्य के लिए बिलकुल अयोग्य नायक! एक औसत योग्यता का बुद्धिजीवी नायक नहीं हो सकता।…..यहां तक कि इस उपन्यास के सारे किरदार मुख्य किरदार से ज़्यादा दिलचस्प हैं।’
व्लादिमीर नेतनोविच पोरस ने लिखा — ‘‘समगीन एक आभासी व्यक्तित्व है। वह एक विशेष प्रकार के रूसी बुद्धिजीवी की पैरोडी है। वह रूसी वास्तविकता की जमीन में यूरोपीय संस्कृति के आदर्शों और मूल्यों — स्वतंत्रता और व्यक्तिगत आजादी को — बोना चाहता है। एक ही समय में समगीन दो मिथ तोड़ देता है। पहला यह कि बुद्धिजीवी राष्ट्र का सामाजिक और सांस्कृतिक नेतृत्व करता है और दूसरा यह कि जनता आध्यात्मिक सिद्धांतों और नैतिक चेतना की वाहक होती है। …….गोर्की का उपन्यास अतीत का अवदान नहीं बल्कि आने वाले समय की उदास भविष्यवाणी है।’’
और भी कई नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी सामने आईं — ‘एक नकारात्मक नायक वाला उपन्यास विश्व-साहित्य की दुर्लभ वस्तु है और बहुत ही निराशाजनक है।’…..’इसे पढ़ना ग्रेनेड को निगलने जैसा है।’…..’इससे दो ही निष्कर्ष निकलते हैं — या तो लेखक ने अपने बारे में लिखा है या फिर यह सब जीवन है।’ एंटी हीरो के इस चित्रण को गोर्की का ‘साहित्य के लिए अभूतपूर्व दुस्साहस’ माना गया।
यहां तक कि 1931 में हुई ट्रेड यूनियन की केंद्रीय समिति के प्रकाशन-संस्थान की एक संपादकीय बैठक में गोर्की को अपने मकसद और नायक पर स्पष्टीकरण देना पड़ा —
‘‘इस किताब को मैंने काफी पहले शुरु किया था — पहली क्रांति के पांचवें-छठे साल में — जब वह बुद्धिजीवी वर्ग, जो अपने आप को क्रांतिकारी मानता था और जिसने प्रथम क्रांति में भाग भी लिया था, सातवें और आठवें साल में आकर दक्षिणपंथी होने लगा था। उस समय ‘मील के पत्थर’ और वैसी ही कई किताबें आई थीं, जिनमें साबित किया गया था कि बुद्धिजीवी लोग श्रमिक वर्ग और क्रांति के साथ तो थे लेकिन उनके साथ सड़क पर नहीं थे। मैं ऐसी ही एक शख्सियत को, ऐसे ही ‘टिपीकल’ बुद्धिजीवी को प्रस्तुत करना चाहता था। मैं ऐसे बहुत-से बुद्धिजीवियों को व्यक्तिगत रूप से जानता था। बुद्धिजीवी की यह किस्म सिर्फ रूस में ही नहीं थी बल्कि फ्रांस और इंग्लैंड में भी थी। यह एक ऐसा बुद्धिजीवी था, जिसकी बौद्धिक क्षमता औसत दर्जे की थी, जिसमें प्रखर योग्यताओं का अभाव था और जो 19वीं सदी के साहित्य में भरा पड़ा था। वह हमारे यहां भी था। वह क्रांतिकारियों के घेरे का सदस्य था पर कालांतर में बुर्जुआ वर्ग में शामिल होकर उनका रक्षक बन गया। बुद्धिजीवियों में ऐसे कई समगीन मौजूद थे जिन्होंने अचानक पैंतरा बदल लिया, अचानक पलट गए और सामाजिक क्रांति को अस्वीकार कर दिया। वे अपनेआप को सर्वश्रेष्ठ मानते थे लेकिन ग़लत साबित हुए क्योंकि जो होना था, वह हुआ। उसके होने के बाद उन्होंने झट एक वर्ग को पीठ दिखाईऔर दूसरे वर्ग की तरफ झुक गए। और क्या कहूं? मैं समगीन के रूप में एक औसत दर्जे के बुद्धिजीवी को दिखाना चाहता था जो कई तरह की बदलती मन:स्थितियों से गुजरता है, जिंदगी में अपने लिए सर्वाधिक स्वतंत्र जगह ढूंढना चाहता है, जहां उसे आर्थिक और आंतरिक रूप से चैन और आराम हो।’’
गोर्की ने समगीन जैसा नायक गढ़ने की सफाई तो दी लेकिन सच इतना सरल और इकहरा नहीं था। पहली नज़र में कथा का नायक समगीन औसत क्षमताओं वाला एक औसत बुद्धिजीवी अवश्य दिखाई देता था। एक काल्पनिक व्यक्ति, एक अनिच्छुक क्रांतिकारी, खुद को ‘इतिहास द्वारा सताया हुआ’ मानने वाला। एक व्यक्तिवादी बुद्धिजीवी। अंतर्विरोधों से ग्रस्त। अपरिहार्य परिवर्तनों से सशंकित। अपनी पीड़ा पर गर्व करने वाला आत्महंता।
इस रूप में तो समगीन का चरित्र गोर्की के व्यक्तित्व से पूर्णत: विपरीत बैठता था जबकि वह स्वयं इसे ‘आत्मकथात्मक’ उपन्यास कह चुके थे। इसका मतलब समगीन उनका वह नायक है जो उनके विचारों का संवाहक है और जिसमें वह अपनी झलक देखते हैं। वैसे भी, हम यह कैसे सोच सकते हैं कि गोर्की जैसे महान लेखक का मकसद किसी औसत बुद्धिजीवी की नज़रिए से बीसवीं सदी को देखना रहा होगा। ज़ाहिर है, वह उनका अपना नज़रिया था। गोर्की समगीन के बहाने इन चार दशकों में विश्व के विराट परिप्रेक्ष्य में रूसी मानसिकता को समझना चाह रहे थे, अपने अस्तित्व के अंतर्विरोधों की बार-बार पड़ताल करना चाह रहे थे। यानी बात काफी गहरी थी और इसे गोर्की पुरालेखागार में प्राप्य कुछ पत्रों के आधार पर समझा जा सकता है।
15 मार्च 1925 को गोर्की ने एस. जिव्ग को एक खत में लिखा — ‘‘वर्तमान में उन रूसी लोगों के बारे में लिख रहा हूं, जो किसी और से ज़्यादा अपने स्वयं के जीवन का आविष्कार कर सकते हैं, खुद का आविष्कार कर सकते हैं।’’ इसी साल 14 मर्इ को उन्होंने लिखा — ‘‘मैं इस उपन्यास में रूसी बुद्धिजीवियों के जीवन के तीस साल का चित्रण करना चाहता हूं। यह श्रमसाध्य और कठिन काम मुझे भावुक कर देता है।’’ एक दूसरे पत्र में उन्होंने लिखा — ‘‘मैं कुछ ‘विदाई जैसा लिख रहा हूं। रूसी जीवन के चालीस साल का एक निश्चित क्रोनिकल उपन्यास। यह कई पाउंड की, भारी किताब होगी। मैं इस पर डेढ़ साल से लगा हूं।’’ 16 अगस्त, 1927 में एक पत्र में लिखा ‘‘यह पुस्तक जीवन के दासों के बारे में है। एक विद्रोही के बारे में, अनैच्छिक रूप से।……सही समझे आप! समगीन एक नायक नहीं है।’’
स्पष्ट है कि 40 सालों की अपनी संपूर्ण कथा-यात्रा को मुड़कर देखने के बाद गोर्की को लगा कि उनके पूर्ववर्ती यथार्थवादी लेखन में यथार्थ काफी हद तक छूट गया है और उन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से अपने खोए” आत्म “को दोबारा खोजने का प्रयास किया। इस “आत्म” की तलाश में समगीन को गढ़ने में उन्हें 12 साल लगे, तब भी वह पूरा नहीं हो पाया। चौथा खंड पहले तीन की तुलना में सबसे बड़ा था। सबसे अहम भी। समगीन गोर्की के लिए इसी चालीस साल के लंबे वक्त का गवाह था।
कभी गोर्की ने कहा था कि इस उपन्यास के वंशज ही उसके रहस्यमय अर्थ की प्रतीति कर पाएंगे। ऐसा ही हुआ। ‘पेरेस्त्रोइका’(पुनर्निमाण) के बाद क्लिम समगीन को पढ़ने-समझने और व्याख्यायित करने का ढंग बदल गया। समगीन में गोर्की के “आत्म “को देखने के प्रयास किए गए। कहा गया कि ‘समगीन लेखक का मनोवैज्ञानिक आत्मचित्र है, वह गोर्की का अवचेतन है, उसकी छाया है।’ यह सवाल पूछा गया कि ‘समगीन के भीतर गोर्की का अपना क्या है? उसकी कड़वाहट या फिर कर्तव्य?’ (रूसी में गोर्की का अर्थ कड़वा होता है।)….क्यों गोर्की उन औसत बुद्धिजीवियों की नियति को दिखाता है, जो इतिहास से छले जाते हैं? यह सवाल भी उठाया गया कि क्यों समगीन को ही अंदर से दिखाया गया है, बाकी सब चरित्रों को बाहर से?……‘क्यों समगीन की आंतरिक चेतना प्रक्रियाएं साफ, सीधी और प्रत्यक्ष दिखाई गई हैं जबकि अन्य नायकों की आंतरिक दुनिया केवल उनकी धारणा और सीधे भाषण में है?’
कहने का अभिप्राय यह था कि गोर्की ने समगीन को एक ऐसे पात्र के रूप में चित्रित किया जो बुद्धिजीवी के रूप में उनके लेखकीय “आत्म” की पहचान था। गोर्की यदि क्रांति के पक्षधर और उसके लिए प्रतिबद्ध थे तो तत्कालीन समाज के अंतर्विरोधों को भी भली-भांति जानते-समझते थे।
बोल्शेविकों ने इतिहास ज़रूर रचा था लेकिन विरोधी विचारों के प्रति उनकी असहिष्णुता कम नहीं थी। किसी भी तरह के विरोध को दबाने में वे काफ़ी माहिर थे। अपने विचारों को आस्था में बदलने की सैद्धांतिक क्रांतिकारिता उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी थी। कभी क्रांति की जीत खुद गोर्की की जीत थी। लेकिन जब क्रांति देश के लिए त्रासदी बन गई तो गोर्की के लिए भी त्रासदी बन गई। गोर्की की त्रासदी ही समगीन की त्रासदी थी। इसीलिए गोर्की ने ‘आत्म की व्यक्तिगत त्रासदी के सामने सामाजिक राजनीतिक मुददे गौण हैं’ मानने वाले समगीन को खारिज नहीं किया। इसके विपरीत उन्होंने समगीन के अस्तित्ववादी सरोकारों की अभिव्यक्ति द्वारा उसके चरित्र और व्यक्तित्व में सत्य और विश्वसनीयता की प्रतिष्ठा की।
यह उपन्यास समगीन की आंखों से देखा गया बीसवीं सदी का वह संघर्षपूर्ण समय था जिसमें विभिन्न विचाराधाराएं एक बेहतर दुनिया बनाने का सपना देख रही थी और उसमें अपनी भूमिका निश्चित कर रही थी। यह उपन्यास विभिन्न वर्गों — रूढ़िवादी और क्रांतिकारी, नास्तिक, नीत्शे और नए ईसाई धर्म के समर्थक, आशावादी और निराशावादी, पतनवादी और संशयवादी, पापुलिस्ट और सामाजिक लोकतंत्रवादी इत्यादि — की मानसिकता, दार्शनिक विवादों और नियति को दिखाता था। समगीन का “आत्म” इन वैचारिक, दार्शनिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों के साथ संवाद तो कर ही रहा था, साथ-साथ उनका मूल्यांकन भी कर रहा था।
उसके चरित्र का आंतरिक विरोधाभास यह था कि एक तरफ सच्चाई उसकी महत्वाकांक्षा थी लेकिन दूसरी तरफ वास्तविकता से असहमति होने पर वह उससे दूर जाने को तैयार था। यह अलग बात है कि समगीन ने अपने मौन एकालापों में अपनी आंतरिक असंगतियों का आत्म-मूल्यांकन भी किया।
समगीन नाम ही बड़ा साभिप्राय था। रूसी में ‘सम’ का अर्थ है — स्वयं या आत्म। खुद के भीतर एक आत्म या स्वयं के होने की इच्छा समगीन के लिए उसके अस्तित्व की सार्थकता का सवाल था। समगीन के “आत्म” को घेरे हुए कई राजनीतिक मुद्दे थे, आपस में टकराती कई विचारधाराएं थी और उनसे जुड़े आत्मीय मित्र। यही स्थिति गोर्की की भी थी। उन्होंने बोल्शेविक कुतुज़ोव में लेनिन की छवि दिखाई, लियुतोव को रूसी अराजकतावादी विचारक साव्वा मोरोज़ोव के आधार पर गढ़ा। कहीं दमीत्री समगीन, समोवा जैसे क्रांतिकारियों का चित्रण किया, जिन्होंने अपनी प्रतिबद्धता के कारण स्वयं निर्वासन या मृत्यु का वरण किया। कहीं स्त्रातानोव और नोगाइत्ज़ेव जैसे लोकतंत्रवादी पात्रों की सृष्टि की, जो सही-गलत रास्तों से पैसा कमा रहे थे। कहीं बर्दनिकोव, पपोव, क्रीटन जैसे पूंजीवादी व्यापारी सामने रखे जो अपने स्वार्थ के लिए हत्या करने या करवाने में समर्थ थे। कहीं वरवरा, मरीना, इलेना, तौसिया जैसी कई आकर्षक स्त्रियों का वर्णन किया, जो समगीन की जिंदगी में इसलिए आई कि उसके खालीपन को अपनी इच्छानुसार भर सकें। कहीं द्रोनोव, तगील्स्की, यरमालोव जैसे मित्र और सहयोगी दिखाए, जो समगीन को आईनादिखा सकें।
इनके बीच समगीन था, जो पहली नज़र में एक बौद्धिक ‘स्नॉब’ दिखता था। अपने मौलिक चिंतन का प्रशंसक, लेकिन औरों के प्रति संदिग्ध और सतर्क, उनका मज़ाक उड़ाने वाला। उसका मानना था — ‘‘मेरा संदेह करने का अधिकार तक ये मुझसे छीन लेना चाहते हैं।…….हर व्यक्ति को अपने युग ओर परिवेश के दबावों से मुक्त होकर आज़ादी से सोचने का अपरिहार्य अधिकार है।’’ समगीन में ऐसे कई पक्ष थे जो लेखक के ‘स्वयं’ से संबंधित थे जैसे, निर्णय और आकलन, संदेह और संशय, आस्था और अविश्वास, दर्शन में ब्रह्मांडवाद आदि। यह कहना गलत नहीं होगा कि गोर्की खुद समगीन थे, अपनी सारी सहमति-असहमति के साथ।
उपन्यास में एक जगह समगीन का कथन था — ‘‘शब्दों की छायाएं नहीं होती, जो उनके पीछे अंतर्विरोध लेकर चलें।’’ लेकिन ‘स्वयं’ समगीन के व्यक्तित्व की छायाएं भी थी और अंतर्विरोध भी। अगर उसके लिए अकेलेपन का रेगिस्तान था, अजनबीपन, उदासीनता और अवसाद था, तो इसलिए कि क्रांति का ‘आदर्श’ उसके लिए गायब हो चुका था। उसे अपने लिए उसमें कोई भूमिका नहीं दिखाईदे रही थी। उसे लगता था — ‘‘वे लोग शब्दों की एक व्यवस्था को शब्दों की एक ऐसी दूसरी व्यवस्था से बदल रहे हैं जो मेरे विचारों की स्वतंत्रता को बाधित करने पर आमादा है। वे मुझसे आस्था की मांग करते हैं, जबकि मैं ज्ञान की बात करता हूं।’’
क्रांति को उस वक्त किसी स्वतंत्र बुद्धिजीवी के ऐसे ज्ञान की कतई ज़रूरत नहीं थी। बोल्शेविक कुतुज़ोव का कथन था — ‘मुझे नहीं लगता कि सर्वहारा बुद्धिजीवियों के सामने मिठाइयां परोसेंगे।’ उसके लिए बुद्धिजीवी लोग वर्गीय मूर्खता के शिकार थे। क्रांति की अपनी निर्मम भविष्यवाणी में कुतजोव ने बहुमत की मृत्यु को स्वीकार किया था — ‘‘बहुमत निष्क्रिय रूप से या सक्रिय रूप से क्रांति का विरोध करेगा और इस पर उसका विनाश होगा।’
ऐसी निर्मम सोच का नैतिक मूल्यांकन समगीन ने अमानवीय क्रूरता के रूप में किया। यह उसके लिए ऐसा सरलीकरण था जो जीवन के लिए बहुत खतरनाक होता है। समगीन अलग तरह से सोचता था। उसके लिए संपूर्ण विश्व ही विरोधाभासों का अबाध प्रवाह था इसलिए लगातार बदलते संसार में निष्कर्षों के पीछे भागना उसके लिए मूर्खता की बात थी। उसे लगता था कि संविधान या क्रांति किसी व्यक्ति को स्वतंत्र नागरिक नहीं बनाते, केवल आत्मज्ञान ऐसा कर सकता है।
तमाम तरह की छायाओं से घिरा समगीन जीवन भर जीने का अर्थ खोजता रहा। अपने गहन-गंभीर चिंतन-मनन से उसने कुछ ऐसा नया सिद्धांत देना चाहा जो मौलिक, अपूर्व और अद्वितीय हो। लेकिन तत्कालीन विचारधाराओं के जाल में उलझे होने के कारण हर बार उसे अपने विचारों में औरों की छाया ही दिखाई देती रही। उसे हमेशा लगता रहा कि उसके व्यक्तिगत जीवन-अनुभव औरों के शब्दों में रचे गए हैं। वह ताउम्र इन छायाओं से घिरा रहा जब तक कि वक्त उसे पीछे छोड़कर आगे नहीं निकल गया और समाज को मौलिक ज्ञान देने की अतृप्त इच्छाएं संजोए वह एक आम आदमी की तरह एक अनजान मौत मर गया। उसके लिए मौत ही दरअसल इन तमाम छायाओं से मुक्ति थी।
अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में गोर्की ने कहा था — ‘‘मैं इस उपन्यास को पूरा करके ही मानूंगा। किए बिना मरूंगा नहीं।’’ लेकिन उपन्यास का चौथा खंड अधूरा ही छूट गया। आरंभिक कुछ अध्यायों को छोड़कर वह इस पुस्तक का संपादन तक नहीं कर पाए। नोट्स देखे तो पचास से ज़्यादा पन्ने नहीं होंगे जो लिखने बाकी थे। कहने को तो इसे पूरा न कर पाने का कारण निमोनिया था, जिसने उनकी जान ले ली। लेकिन अधूरा रह जाना शायद नियति थी। लेखक की भी और रचना की भी।
गोर्की ने अपने लिए कोई वीरतापूर्ण या महान मृत्यु नहीं सोची थी। यह उनकी कल्पना थी कि उनकी मौत किसी जुलूस में भीड़ द्वारा कुचल दिए जाने से होगी। समगीन भी कोई आदर्श सुंदर मौत नहीं मरा। मरने के बाद भी उसकी एक आंख खुली ही रह गई, शायद अतृप्त इच्छाओं के प्रतीक के रूप में, जिसे लकड़ी के फट्टे से जबर्दस्ती बंद कर दिया गया।
शायद उम्र के इस पड़ाव में गोर्की ने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि उनके जैसे लेखक और समगीन जैसे बुद्धिजीवी रूस की नए बौद्धिक परिवेश में फिट नहीं होते। उन्हें मंच छोड़कर जाना पड़ता है।
उपन्यास इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसमें प्रश्नों के सीधे सरल समाधान नहीं हैं। उपन्यास का अंत पाठक के निष्कर्षों के लिए खुला है। सिर्फ नोट्स है मृत्यु के। समगीन की ​ज़िंदगी की सार्थकता और हमारे अपने वक्त और हालातों में उसकी प्रासंगिकता हमें खुद खोजनी है। यह उपन्यास आज अगर और भी अधिक प्रासंगिक है तो इसलिए कि आज के परिवेश में अपनी विचारधारात्मक छायाओं से मुक्त होकर स्वयं अपने आत्म का आविष्कार करना हमारा अधिकार भी है, प्रारब्ध भी।
– विद्यानिधि छाबड़ा
परिचय –
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डा. विद्यानिधि छाबड़ा
29 नवंबर 1960 को दिल्ली में जन्मी। वहीं पली-बढ़ी। पिछले 30 सालों से देवभूमि हिमाचल में रची-बसी। राजकीय महाविद्यालय, सुन्नी, ज़िला शिमला से एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्ति।
उच्च-शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय एवं जवाहरलाल विश्वविद्यालय से। ‘निराला के उपन्यासों में स्वच्छंदतावादी चेतना’ पर लघु-शोध प्रबंध। ‘निराला और पुश्किन की कविता में विद्रोह : एक तुलनात्मक अध्ययन’ पर डाक्टरेट की उपाधि के लिए शोध-प्रबंध।
आजीविका के प्रारंभिक प्रयास पत्रकारिता से। कभी प्रकाशन-संस्थानों में नौकरी तो कभी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में फ्रीलांस लेखन।
तदन्तर अनेक भारतीय एवं विदेशी लेखकों की पुस्तकों, लेखों, कहानियों, कॉमिक्स और बाल-कथाओं के हिंदी अनुवाद।
राजेंद्र यादव की ‘कांटे की बात’ के 11 खंडों और तीन अन्य पुस्तकों का संपादन-समायोजन एवं भूमिका-लेखन।
अनेक कहानियों के नाट्य-रूपांतरण और साहित्यिक वृत्त्ा-चित्रों का पटकथा-लेखन।
इन दिनों अनुवाद, हिमाचली लोकगाथाओं पर एक पुस्तक और साहित्यिक आलोचनाएं लिखने में व्यस्त।
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