Tuesday, May 14, 2024
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सत्यवती मलिक की कहानियाँ

स्मृतियों के गहरे बुने तार
अरविन्द कुमार
1906 में जन्मी सत्यवती मलिक का रचनाकाल मूलतः 1935 से 1951 के बीच का है। सत्यवती मलिक महादेवी वर्मा और सभद्राकुमारी चौहान की समकालीन थीं। इनकी छोटी बहन उर्मिला देवी ने सत्याग्रह-संग्राम में मेरठ से जेल-यात्रा की थी। 1911 में जन्मी इनकी एक और छोटी बहन पुरुषार्थवती देवी, जिनका विवाह चन्द्रगुप्त विद्यालंकार से हुआ था, ने उस दौर में सरस्वती, हंस, सुधा, विष्वमित्र एवं प्रताप के लिए लगातार कविताएँ लिखी थीं और एक काव्य-संकलन ‘अन्तर्वेदना’ के नाम से प्रकाषित भी हुआ था। इसका प्रकाषन विष्व-साहित्य ग्रंथमाला, मैैक्लेगन रोड, लाहौर से हुआ था और इसे तब काफी सराहा गया था। मात्र बीस वर्ष की अवस्था में उनकी एक कविता ‘बधिक के प्रति’ काफी प्रषंसित हुई थी।
सत्यवती मलिक के समकालीनों में तब होमवती देवी तथा कमला चौधरी भी कहानियाँ लिख रही थीं। होमवती देवी का रचनाकाल 1939 से 1950 तक का माना जाता है जबकि कमला चौधरी का लेखन 1934 से 1957 के बीच का है। होमवती देवी का पहला कथा-संकलन ‘निसर्ग’ है जो 1939 में प्रकाषित हुआ था जबकि कमला चौधरी का प्रथम कथा-संग्रह ‘उन्माद’ है जो 1934 में आया था। सोमवती देवी तथा कमला चौधरी की कहानियों में मुख्य रूप से स्त्री है, खासकर विधवाओं की समाजिक स्थिति एवं लैंगिक भेदभाव तथा स्त्री-उत्तराधिकार इनके विषय हैं। ….होमवती देवी की कहानी ‘गोरे की टोपी’ तो पूरी तरह रूढ़ियों के विरुद्ध खड़ी हो जाती है जहाँ नवल विधवा मंजरी को सहर्ष अपनी वाग्दत्ता बनाने का फैसला करता है तथा मंजरी के पुत्र प्रवाल को वह अपना पुत्र मानने लगता है। उसे जमाने की कोई परवाह नहीं। वह मानता है कि विवाह के फैसले पर तो पूरी तरह स्त्री का अधिकार होना चाहिए। वह जानता है कि एक स्त्री के लिए वैधव्य कितना बड़ा दुख है जहाँ उसे दूसरों की कृपा पर जिन्दगी काटनी होती है। स्त्री के विधवा हो जाने में उसका कोई कसूर तो है नहीं। इसी तरह ‘उत्तराधिकारी’ कहानी में स्त्री को वंषवाद से बाहर किए जाने का विरोध किया गया है। आखिर एक स्त्री वंष क्यों नहीं चला सकती? संतान तो वह भी है। लड़की को संपत्ति का उत्तराधिकारी क्यों नहीं बनाया जा सकता। कहानी का पिता यह कहता है कि ‘लड़कियों से कब किसी का वंष चला है। लड़की पिता का वंष नहीं चला सकती। फिर उसे धन-सम्पत्ति का हकदार बनाकर क्या मिलेगा।’….जबकि कमला चौधरी की कहानियों में लैंगिक भेदभाव का जिक्र तो है, पर होमवती देवी की तरह विद्रोही स्वर नहीं है। चाहे वह उनकी कहानी ‘अजाब’ हो या ‘दृष्टि का मूल्य’ दोनों में स्त्री अपनी इच्छाओं की बलि देती है और कोई पुरुष उसे जीवन के उस अंधकार से मुक्त नहीं करा पाता। यहाँ तक कि ‘प्रसादी कमण्डल’ की विधवा बुआ भी अपना वैधव्य दूसरों की सेवा करते हुए काट लेती हैं। ….हालाँकि स्त्री के प्रति सोच की यह आहट उषादेवी मित्रा की कहानियों में विद्यमान है।
सत्यवती मलिक की कहानियाँ मूलतः पारिवारिक कहानियाँ हैं। सत्यवती मलिक की प्रारंभिक षिक्षा कष्मीर में हुई थी, बाद में कुछ समय वे शांति निकेतन में रहीं और रवीन्द्रनाथ ठाकुर का सान्निध्य पाया। वे कलकत्ता, लाहौर, दिल्ली में भी रहीं और इस अलग-अलग प्रवास के अनुभवों को अपनी कहानियों में उतारा। उनकी पहली कहानी ‘क्या यह सब स्वप्न था?’ श्रीनगर में रहते हुए लिखी गयी थी जो गाँधी जी के अछूत आन्दोलन पर आधारित थी और जो गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार की पत्रिका ज्योति में सम्भवतः 1935 में प्रकाषित हुई। फिर उसी वर्ष उनकी दो और चर्चित कहानियाँ आईं, वे थीं – ‘नारी हृदय की साध’ एवं ‘दो फूल’। ‘नारी हृदय की साध’ कलकत्ता प्रवास में लिखी गयी जबकि ‘दो फूल’ लाहौर प्रवास में। ‘दो फूल’ तबके ‘विषाल भारत’ में प्रकाषित हुई जबकि कई अन्य कहानियाँ ‘विषाल भारत’ के साथ-साथ ‘विष्वभारती’, ‘नया समाज’ एवं लाहौर से निकलने वाले पत्र ‘आर्य’ में भी छपीं। सत्यवती मलिक की कुल कहानियाँ जिनकी संख्या तीन दर्जन के करीब हो सकती है उनके चार संकलनांे – ‘दो फूल’, ‘वैषाख की रात’, ‘नारी हृदय की साध’ और ‘दिन-रात’ में संकलित हैं।
‘नारी-हृदय की साध’ और ‘दो फूल’ उनके कथा-लेखक के प्रारंभिक दौर की कहानियाँ हैं जिनमें खिलखिलाती अठखेलियाँ करती प्रकृति सामने आती है। सत्यवती जी काफी भ्रमणषील थीं और प्रकृति के विभिन्न अवयवों से जुड़ी रहती थीं, इस नाते इन कहानियों से प्रकृति के सौन्दर्य को आप बखूबी समझ सकते हैं, उसका आनन्द ले सकते हैं। ‘नारी हृदय की साध में’ वे प्रकृति को उपालम्भ मानकर उस असीम सत्ता से मिलना चाहती है जिससे मिलने की चाह हर प्रेमी हृदय में मौजूद होती है। इस कहानी को दो हिमानी नदियों को रूपक बनाकर खड़ा किया गया है। … वे कहती हैं – ‘नारी हृदय की साध’, ‘भाई-बहन’ एवं ‘कैदी’ को रचकर सर्वाधिक सृजन-सुख प्राप्त हुआ क्योंकि इन्हें दुहराते समय अब भी वे पुराने पहाड़ी रास्ते, सघनवन, शेषनाग, लम्बोदरा, चन्दभागा, विस्तार के तीर, कैदी की विवषता और भाई-बहन का असीम स्नेह याद आता है।’ …जाहिर है, कष्मीर उन्हें बेहद प्रिय है, इसलिए वहाँ की अठखेलियाँ करती नदियाँ उन्हें आकर्षित करती रही हैं। इसी आकर्षण से प्रेरित होकर उन्होंने ‘नारी हृदय की साध’ जैसी कहानी लिखी। यह प्रकृति का नियम है कि छोटी नदियां बड़ी नदियों में समाहित हो जाती हैं। इसी तरह जीवन भी किसी बड़ी शक्ति में समाहित हो जाता है, खासकर नारी जीवन अपनी सार्थकता तभी पाता है जब वह जीवन के उस विराट रूप में घुल जाए यानी अपना होम कर दे, अपने को तिरोहित कर ले। इसे उन्होंने लम्बोदरा नामक हिमानी नदी के माध्यम से व्यक्त किया है जो अपने प्रियतम से मिलने को व्याकुल है। लम्बोदरा का नारी हृदय प्रेम की जिस चरम सीमा तक पहुँच पाया है, उसकी कल्पना भी उसका भाई शेषनाग नहीं कर सकता। उसने तो एक ही धुन में अपनी रहस्यमयी साध को पूरा करने की आषा में न जाने कितने दिन, कितने महीने और कितने वर्ष बिता दिए हैं! न जाने कितनी अंधेरी और कितनी चाँदनी रातें उसने सिसक-सिसककर काटी हैं! ….शेषनाग कहता है – ‘बहन, ऐसा उन्माद किस काम का?’ तो लंबोदरा तपस्वनी की भाँति कह उठती है – ‘भाई, इस तरह चुपचाप अपना अस्तित्व मिटा देने की चाह ही तो नारी-हृदय की सबसे बड़ी साध है!’ …नारी का यह समर्पण सत्यवती जी की अन्य कहानियों में भी है। वे कहती हैं – ‘नारी हृदय की साध निर्मल मन पर अंकित एक ऐसा अमर सूक्ष्म भाव है जो उन दो छलछलाती हिमानी नदियों के समान युग-युगांतर से प्रवाहित होता आ रहा है और जबतक सृष्टि की यह रचना है, मानव मन में तरंगित होता रहेगा। बिना स्नेह-बंधन के जीवन सूना है। भाई-बहन, सखा-सखी, पति-पत्नी, पिता-पुत्री किसी भी पवित्र प्रेम में जीवन की सार्थकता है।’
सत्यवती जी की अधिकांष कहानियाँ मानवीय संस्पर्ष की कहानियाँ हैं। एक ऐसी ही कहानी है – भाई-बहन, जिसमें मुहर्रम में ताजिए के जुलूस को देखते-देखते एक भाई के कुछ देर के लिए आँखों से ओझल हो जाने पर बहन बेचैन होकर रोने लगती है और उसके मिलते ही उससे लिपटते हुए कहती है – ‘पगले! तू कहाँ चला गया था?’ कमल कहता है – ‘मुझे गुब्बारा लेना था पर पैसे नहीं थे।’…तो निर्मला उसे अपने पैसों से दो गुब्बारे लाकर देती है और उसे भुजाओं में जकड़कर कहती है – ‘गधे! तू चला क्यों गया था?’ …ऐसा सरल और निष्कपट प्रेम शायद उस पहाड़ी धरती की देन था जहाँ हिन्दुओं और मुसलमानों की साझी संस्कृति बिना किसी अवरोध के फलती-फूलती आई थी। इसी तरह ‘माली की लड़की’ में विजय के मन में मुक्ता के लिए जो अनुराग पैदा होता है, वह प्रकृतिगत भाव की ही देन है जहाँ फूलों और वृक्षों का संसार उन्हें एक-दूसरे के निकट लाता है। हालाँकि उनका यह बाल-प्रेम इससे आगे बढ़े इससे पहले ही परिस्थितियां उन्हें अलग कर देती हैं। विजय शहर लौट जाता है और मुक्ता उस पहाड़ी बंगला की रखवाली करने अपने माली पिता के पास खड़ी आँसुओं में डूब जाती है। कथाकार लिखती हैं – ‘माली की लड़की मुक्ता, जो सबेरे से ही जंगले पर मुँह लटकाए खड़ी थी, उस मेघाच्छन्न आकाष और उस सुनसान घेरे को एक बार चारों ओर से देखकर सिसक पड़ी। बेचारा माली यह भी न जान सका कि उसकी प्यारी बच्ची के किस कोमल स्थान पर कौन-सी गहरी चोट पहुँची है।’ ….वे पुनः कहती हैं – ‘मुक्ता कितने ही दिनों तक उस पथरीले झरने की झरझर में, उस सुरभित पवन की सरसराहट में और उन ऊँची शाखाओं पर झूम-झूमकर गाते हुए पक्षियों के कलरव में एक गहरे विषाद और घनी उदासी की छाया अनुभव करती रही।’ अभी कुछ ही दिन पहले तक वह अपने व्यक्तित्व को दूसरे पहाड़ी बालकों से श्रेष्ठ समझ रही थी और उनके ‘हय: मुक्ता!’ पुकारने का जवाब उदंडतापूर्वक दे रही थी। विजय के साथ ने उसके भीतर एक अतिरिक्त आत्मविष्वास पैदा कर दिया था।…इसी तरह ‘दो फूल’ कहानी में जीवन के दो कालखण्ड प्रकट होते हैं – एक जवानी और दूसरा बुढ़ापा। अपनी जवानी में जो फूल खिलकर प्रकृति को सुरभित कर रहे थे, बुढ़ापा आते ही उनकी सारी पंखुड़ियाँ झड़ गयी थीं। कथाकार लिखती हैं – ‘उस गमले की ओर देखा तो हृदय नाच उठा। दोनों फूल पूरी गुलाबी रंगत लिए भीनी-भीनी महक के साथ यौवन के उन्माद में हिलोरें ले रहे थे। उन दोनों में अजीब मोहिनी मस्ती थी लेकिन वे फिर लिखती हैं – ‘उफ्, उसका सारा जीवन ही चार दिनों का था। इन्हीं चार दिनों में वह नव विकसित कलिका बनी, इन्हीं चार दिनों में उसने यौवन-मद की हिलोरें खाईं और अब इन्हीं चार दिनों में वह इतिहास की चीज बन गया-सा दिखाई देता है।’ …वे कहती हैं – ‘एक क्षण तक बड़े गम्भीर भाव से मैंने उस मुरझाए गुलाब के फूल की ओर देखा। उसके बाद मेरे शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ गई। मानो वह मुझसे कह रहा था – ‘क्या तुम्हारे मानव-जीवन का इतिहास भी मेरे समान नहीं है?’ …सत्यवती जी की यह छोटी-सी कहानी जीवन को लेकर बहुत कुछ कह देती है। कितने खुष थे उनके बच्चे कपिला, केषी और भाषी, कितनी सरलता थी उनके शब्दों में ….‘अन्ना जी, जरा बाहर चलकर देखो तो, सारा फूल खिल गया है। कैसा सुन्दर है।’
पर क्या जीवन की यह मस्ती और खुषी स्थायी थी? नहीं, क्योंकि जीवन में यदि वसंत है तो पतझड़ भी है। 1936 की एक कहानी ‘वसन्त है या पतझड़?’ में वे ऋतुओं के परिवर्तन को जीवन से जोड़ती हुई लिखती हैं – ‘मैं भयभीत हो उठी। मुझे अपनी अवस्था सामने फलों की सुन्दर तष्तरी में रखे गए उस काष्मीरी सेब के समान जान पड़ी जो वहाँ करीब दो सप्ताह से पड़ा रह गया था और जिसकी गुलाबी रंगत क्रमषः सिकुड़न में विलीन होती जा रही थी। ओह! आज वसन्त है या पतझड़? अब मुझे साफ दिखाई दे रहा था कि निष्ठुर काल अपनी तीव्र और अदृष्य गति के अमिट चिह्नों की छाप मेरे इस लाड़-प्यार से पाले गए शरीर पर लगाता चला जा रहा है। इन गड्ढ़ों, खाइयों, उभरी हुई हडियों और नीली रेखाओं को एक साथ देख मैं अधीर हो उठी।’…शरीर की स्मृतियों के साथ कई दूसरी स्मृतियां भी हैं जिसमें हसन, सुभाना, प्रेमा, नूरी और बुत जैसी छायाएं हैं जो बार-बार सामने आकर मन को कचोटती हैं। ‘हसन’ में वे लिखती हैं – ‘यह संसार दूर से इतना सुहावना, इतना कोमल और इतना सरस क्यों जान पड़ता है? जो नहीं है, उसे ही पाने की आकांक्षा मनुष्य को हर घड़ी घेरे रहती है? मानव की यह मृगतृष्णा क्या दयनीय नहीं है?’ …हसन कभी यह नहीं जान सका कि उसे अब भी निकम्मा-निठल्ला नामों से क्यों पुकारा जाता है और घर में घुसते ही उसकी माँ रोहनी का उस पर रोषपूर्ण व्यवहार क्यों है? जबकि वह पिछले पाँच वर्षों से ‘लाहौर मेटल मार्ट’ का कर्मचारी है। तो क्या माँ अब उसका घर लौटना पसन्द नहीं करती? सुभाना भी तो ऐसे ही अकेला हो गया है। सफेद लट्ठे के वस्त्रों में पूरी शान के साथ घंटी बजा-बजाकर श्रीनगर के तंग गली-मुहल्लों-बाजारों में तांगा चलाने की नौकरी कुछ कम नहीं होती। कथाकार लिखती हैं – ‘आज सुभाना की अवस्था एवं चाल-ढाल का ऐसा दयनीय परिवर्तन देखकर भीतर ही भीतर मुझे क्लेष और आष्चर्य हुआ। मैली-सी सलवार, गर्म पट्टी का फटा कोट, गिरती हुई पगड़ी, झुर्रीदार सूखा-सा चेहरा।’…सुभाना ने इन बीच के वर्षों में अपनी घोड़ी जो उसकी शान और जीविका का प्रतीक थी, को खो दिया था। फिर अपनी घरवाली और तीन बड़ी-बड़ी बच्चियों को। ….समय का घूमता पहिया सत्यवती जी की कथा में नये-नये रूपों में प्रकट होता है। सुभाना कहता है – ‘बीबी जी, कुछ अच्छा नहीं लगता।’ उसकी आँखें छलछला जाती हैं। – ‘सुख नहीं-सुख नहीं।’ ….यह सुख तो नूरी से भी छिन गया है क्योंकि उसके भी माँ-बाप नहीं हैं और इस बालपन में ही वह अकेली हो गई है। लेखिका के पूछने पर वह कहती है -‘बाब छुस न, मौज छुस न। सछुस बेचारा कबरसमंज।’ यानी बाप नहीं, माँ नहीं, वे बेचारे तो कब्र में पड़े हैं। और कुछ ऐसा ही दुख प्रेमा का भी है। प्रेमा जिस समाज से आती है, वहाँ बच्चियों की शादी वयस्क होने से पहले ही कर दी जाती है। उन्हें तो विवाह का सही अर्थ भी पता नहीं होता। प्रेमा मात्र बारह वर्ष की है जो विवाह के बाद विधवा हो चुकी है। हालाँकि उसे इस शब्द का कोई विषेष अर्थ पता नहीं। जब लेखिका उससे पूछती है – ‘तेरे कड़े, हंसली, चूड़ी सब क्या हुए?’ तो उसकी बड़ी बहन कहती है – ‘अजी! यह तो विधवा भी हो गई।’ और फिर एक नासमझ खिलखिलाहट। किन्तु प्रेमा का चेहरा रक्तहीन सफेद-सा हो गया। सत्यवती जी लिखती हैं – ‘उस बाल नारी-मूर्ति के अन्तर की घर-घर, साँझ के हल्के उजाले के साथ मेरे सारे कमरे में असीम व्यथा-सी फैलाने लगी।’ मैंने पूछा – ‘तो इसकी दुबारा भी तो शादी हो सकती है?’ तो बड़ी बहन ने कहा – ‘जी हाँ, लेकिन हममें दुबारा कोई शादी नहीं होती, बैठाय देते हैं…मेरे ही एक देवर हैं।’…..‘अजी अबके वैषाख में तो सबसे छोटी की भी शादी हो जाएगी। माँ कहती है गौना पीछे हो लेगा। एक ठिकाने तो हो जाए, क्वांरी लड़की जाने कहाँ-कहाँ डोलत गिरे।’ कुछ ऐसी ही स्थितियाँ ‘बुत’ में भी हैं। यहाँ भी एक विवाहिता स्त्री होने के पूर्व ही अपना सौभाग्य खो बैठी थी। दुबारा उसका विवाह देवर के साथ रचाया गया पर छह मास बाद ही उसने भी बड़़े भाई का अनुगमन किया, अब सबसे छोटा कुल नौ साल का था जिससे कानूनन विवाह न हो सकता था। तब कुल एवं जायदाद के प्रष्न के कारण तीसरी बार चचेरे भाई को ले सुहागन हुई पर वहाँ भी किसी कारण से सन्देह होने पर निकाल दी गई। अब इस घर में विधुर के साथ बैठ गई। ….बस एक ढुलकता मिट्टी का ढेला, हाड़़-माँस, सोने-चाँदी और लाल छपी ओढ़नी से ढका बुत, जो कहीं भी समाई नहीं।
सत्यवती मलिक के पास स्मृतियों की एक लम्बी शृंखला थी। कष्मीर की पूरी प्रकृति और वहाँ रहने वाले लोगों के आन्तरिक जीवन से उनका बेहद लगाव था। साथ ही उनके अपने परिवार की भी ढेरों स्मृतियाँ थीं जिनमें स्त्रियों का संघर्ष प्रमुख था। अपनी माँ से वे बेहद प्यार करती थीं और उन्हें वे अपना आदर्ष मानती थीं। उन्होंने लिखा है कि माताजी की धारणा थी कि बच्चे जैसे ही बोलना-समझना प्रारंभ करें, अक्षर-ज्ञान से पूर्व ही उन्हें वेद-मन्त्र, दोहे, गीत, कहानियां कंठस्थ करा देना चाहिए। उनका हृदय राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत था। विदेषी वस्त्र शायद ही कभी आए हांे। लोकमान्य तिलक की वे अनन्य भक्त थीं। ‘केसरी’ पत्रिका की वे नियमित ग्राहिका थीं। एक वाक्य उनका कहा हुआ याद आता है – ‘जिब्हा शीरीं, मुलक जगीरी’ अर्थात यदि तुम्हारी वाणी में मिठास है तो सारा संसार तुम्हारा अपना है। …सत्यवती जी की कहानियों में माँ की इस सीख की स्पष्ट छाप है। उनकी एक कहानी है – ‘स्मृति’ जो 1938 में लिखी गई है। पुरातत्व-विभाग के अफसर राय बहादुर जीवन लाल सेठी एक निस्तब्ध रात में गाना गाते हुए चक्की पीसती एक स्त्री को देखकर इतने विचलित हो जाते हैं कि उन्हें अपनी माँ याद आ जाती है जो उनके बचपन के दिनों में रात के बारह बजे तक चर्खा कातती और पुनः सबेरे चार बजे उठकर चक्की पीसने लगती। माँ की छवि उन दिनों ठीक ऐसी ही लगती थी जैसी रात के सन्नाटे में चक्की पीसती इस औरत की लग रही है। ….चाँदी की बालियां, मैले दुपट्टे से ढंका गोल-सा श्वेत मुख, कितनी ही वेदनाओं के भार से झुकी हुई आँखें। ऐसे ही कभी बगल में, कभी सिर पर कलसे रखे वह सुबह-षाम शाहों के घर पानी पहुँचाने जाती और नाज की टोकरियाँ और रुई के ढेर रात के काम के लिए ले आती।….उसी मुहल्ले के एक कोने में थी उनकी लम्बी-सी कच्ची कोठरी जिसकी एक ओर चौकी पर पीतल-लोहे के दो-चार बर्तन तबा-चूल्हा आदि थे, छत में टंगे हुए फालतू कपड़े और मिट्टी की गिरती दीवारों से सटी हुई मूंज की दो खाटें।कोठरी में रात-भर चूहे और नेवले दौड़ा करते। ….और माँ और बुआ के पास एक ही ओढ़नी थी, जिसे वे बारी-बारी से पहन लेतीं। राय बहादुर के सामने चाँदी की बालियां पहरे स्वर्गीया जननी की प्रतिच्छाया-सा उसी पहाड़ी स्त्री का स्वरूप खड़ा हो आया। …वैसा ही सूखा चेहरा, वैसी ही भरी हुई आँखें। कितना भयंकर रुदन था उन आँखों में!
कुछ ऐसी ही स्मृतियाँ ‘आँसू’ में भी हैं। दमयन्ती और शोभा बहनें हैं। दमयन्ती का विवाह हो चुका है और शोभा अविवाहित है। शोभा पढ़ी-लिखी है और खुले विचारों की है। उसे अपने अनुकूल एक पुरुष मिलता तो है पर विदेष जाने के बाद उसका मन भी परिवर्तित हो जाता है। ….दमयन्ती सोचती है – ऐसे आकर्षक, मोहक पाष फैलाने और क्षण-भर में समेट लेने की क्रूर व्यंग्य-भरी भावना प्रकृति में क्यों निहित है? उसके आगे अषोक द्वारा भेजे गए अनेक पत्र चलचित्र की भाँति घूम गए, जिनमें बार-बार शोभा के प्रति असीम अनुराग का वर्णन और उसके अलौकिक रूप गुणों का आख्यान होता, वे रंगीन संध्याएं जब घंटों ही वैज्ञानिक एवं चिकित्सा सम्बन्धी प्रयोगों की प्रतिमा शोभा को चकाचौंध से भर देती। जब वह आधुनिक षिक्षा-प्राप्त लड़कियों का स्वच्छन्द भाव से घूमना और अधिक आयु तक कुंवारा रहना भी पसन्द नहीं करती। किन्तु आज उसे विरहिणी होना पड़ गया था। सचमुच विरह और विच्छेद में कितना मृत्यु का-सा महान अन्तर है। दमयन्ती नहीं जानती थी कि शोभा को लेकर अषोक के विचार इतनी जल्दी बदल जाएंगे। शोभा केे हाथों में पड़े हुए अषोक के पत्र की ये पंक्तियां तीक्ष्ण अन्त की भांति उनदोनों के हृदय को बेध रही थीं। अषोक ने लिखा था – ‘आज की दुनिया में भावुकता को स्थान देना निरी मूर्खता है। माना कि हम दोनों का परस्पर यह निजी चुनाव था, किन्तु वास्तव में वह अपने को धोखा था, प्रेम करने की चेष्टा-मात्र थी। नये सिरे से जीवन बनाने और मिटाने की स्वतंत्रता इस युग के प्रत्येक व्यक्ति को मिलनी चाहिए। फिर तुम जैसी नव षिक्षा में पली स्वच्छन्द प्रकृति की नारियों के लिए यह तनिक भी कठिन नहीं।’ पर दमयन्ती के बहाने लेखिका का यह मानना है कि ‘इस अगाध सागर में न जाने कितने व्यक्तियों से नित्य नए सम्बन्ध बनते और टूटते हैं, पढ़-लिखकर भी स्नेह के क्षीण तन्तु से चिपटे रहना नारी की दुर्बलता एवं मूर्खता नहीं तो क्या? अतीत के इस छली आवरण को एक झटके में तोड़कर नव-निर्माण करो मेरी बच्ची।’ एकान्त में विरह-मंदिर की पुजारिन बनकर करुण गीत गाने का कोई फायदा नहीं। ….जीवन का नव-निर्माण होना ही चाहिए।
सत्यवती मलिक की मात्र दो पृष्ठों की एक कहानी है – ‘बेकारी में’ जो मेहतर जाति को सामने रखकर लिखी गयी है। कहानी का वाचक खुद बेरोजगार हो गया है और एक वर्ष से इस जुगाड़ में है कि कोई नौकरी मिले। सिर पर पाँच-पाँच बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और रोटी-पानी का जिम्मा है। उसे पिछले एक वर्ष से कोई तनख्वाह नहीं मिल रही है पर उसके घर मैला साफ करनेवाली मेहतरानी को तनख्वाह मिल रही है। उसे यह कुछ अजीब लगता है तो वह पूछ बैठता है – ‘जल्लो, तनख्वाह मिल गयी?’ जल्लो खुष थी, उसके हाथ में चमकता हुआ एक रुपया था, वह उसे आषीष देते हुए कहती है – ‘जीते रहो बाबूजी, बच्चे बने रहें बाबूजी?’ …वह अपने को कुंठित महसूस करता है और पूछता है – ‘कितने रुपए हो जाते होंगे?’ वह ऐसा पूछकर अपने मन को समझा रहा है। …’छह-सात रुपए बन ही जाते हैं बाबूजी और कुछ कपड़े-लत्ते …माँ जी बहुत परवरिष करती हैं। अब यह बात है बाबूजी, गरीब मानस कभी रांधे, कभी न रांधे। ’ ….नायक कहता है – ‘मैंने एक बार पुनः सिर से पैर तक उस मलिनता की पुतली को देखा। अत्यन्त मैली ओढ़नी से ढंका जिस्म और जगह-जगह से फटी सलवार को पतली रस्सी से कसकर बंधी टाँगें! …मेरे शोकाकुल नेत्रों में उसकी जीवन-गाथा समा गयी और आँसुओं का बाँध फिर एकबारगी टूट पड़ा। भगवान! सहिष्णुता और सब्र का यह बंधन तुमने दरिद्रता के साथ ही जोड़ रखा है क्या?’ ..यह प्रेमचन्द युग में सत्यवती मलिक द्वारा लिखी गयी एक महत्वपूर्ण कहानी है जो चुपके से दलित संवेदना का विस्तार कर जाती है। एक दलित स्त्री की मूक पीड़ा का इतना सरल बयान सत्यवती जी ने कथा-लेखन की विषेषता है। पूरी कहानी एक भावनात्मक संस्पर्ष से लबरेज है जहाँ बगैर किसी पृष्ठभूमि के एक हाषिए का समाज दिखता है। और दिखती है एक स्त्री जो उस हाषिए में ही संतुष्ट है।
स्मृतियों की यह शृंखला आगे भी चलती है। 1951 की कहानी ‘पर जो चला जाता’ में एक पात्र हबीबा के बहाने एक खास पंक्ति पर जोर दिया गया है कि जो चला जाता है, वह मिलता नहीं। यानी जो बीत गया, वह दुबारा लौटने वाला नहीं है। समय अपनी अबाध गति से सबकुछ पीछे छोड़कर आगे निकल जाता है, बचती हैं तो सिर्फ स्मृतियां जो जीवन के एकान्त में सहचर का काम करती हैं। कहानी की नायिका सावित्री को आज भी हबीबा याद है, ठीक वैसे ही जैसे सुभाना कहानी लेखिका को याद है। सावित्री अमरनाथ की यात्रा पर है जहाँ पहाड़ियाँ उसे बेहद आकर्षित करती हैं पर ऊपर जाने के लिए जो लड़का अपने घोड़े पर उसे ले जाता है, उसका नाम हबीबा है। पहाड़ हमें भले ही आकर्षित करते हों पर पहाड़ का जीवन काफी कठिन होता है। इस कठिनता को सिर्फ वहाँ के मूल निवासी ही समझ पाते हैं कि वहाँ पानी की बहुत किल्लत होती है, कि वहाँ अस्पतालों में कमरों का अभाव हमेषा बना रहता है, कि वहाँ सामान्य जरूरतों के लिए भी पहाड़ों से नीचे आना पड़ता है, कि पहाड़ के लोग बाहर की दुनिया से बिल्कुल कटे होते हैं।….पहाड़ पर रहनेवाले हबीबा ने समतल की दुनिया तो नहीं देखी पर वहाँ की बुराइयों से वह परिचित है और यह कहता है कि पहाड़ों में भी अब चोरियाँ होने लगी हैं कि यहाँ भी लालच की दुनिया बढ़ती जा रही है। वह सावित्री से कहता है – ‘हम दो भाई थे। साहब के पास बारी-बारी से घोड़ा ले जाते। दूसरा घोड़ा काला था। हमारा छोटा भाई भी ऐसा ही था एकदम जवान। परसाल ही तो भाई चला गया….ओह! उसे कितना दर्द उठता था डाक्टर तो अब सब …तीन साल से कोई नहीं आया। ताबीज लाया, पीर के पास भी गया पर कुछ नहीं हुआ। और घोड़ा भी रात में कोई खोलकर ले गया। …इधर चूर (चोर) भी अब आता है। किसको बोलेगा? हुजूर को तो सब मालूम है।’ हबीबा बड़ी सरलता से अपना दुख उड़ेलता है। वह नहीं जानता कि सैलानी सवार उस दुनिया से आ रहा है, जहाँ मरना-जीना, चोरी-डकैती, धोखा आदि तनिक भी अनोखी बातें नहीं। जीवन के मूल्य जहाँ प्रतिक्षण बदल रहे हैं। ….सावित्री घोड़े से उतर पड़ी। पैसे चुका दिए और सामने के घने अन्धकार की ओर बढ़ चली जिसमें सुख-दुख, प्रेम-विछोह और जीवन की समस्त अनसुलझी उलझनों को ठांप लेने की क्षमता है। हालाँकि इसके ठीक पहले उसने हबीबा से कहा था – ‘हबीबा, हम सब भाई-भाई हैं। एक ही जमीन और एक ही आसमान के पुत्र-पुत्रियां हैं, एक ही जान हवा और पानी की तरह सबमें समायी है। तो फिर यह लड़ाई-झगड़ा क्यों होता है? इन्सान को इतना लालच क्यों है?’
अतः सत्यवती मलिक का नाम उन आरंभिक कथा-लेखिकाओं के साथ लिया जा सकता है जिन्होंने हिन्दी कथा-लेखन को अनेक दृष्टियों से समृद्ध किया। वैसे भी तीस का दषक हिन्दी कहानी का समृद्ध दषक माना जा सकता है। और उसे राजेन्द्र बाला घोष, उषा देवी मित्रा की परम्परा से जोड़कर देखा जा सकता है। राजेन्द्र बाला घोष ने बीसवीं सदी के पहले दषक में समय से आगे जाकर कहानियाँ लिखी थीं, जिसमें 1907 में लिखी गई ‘दुलाईवाली’ को आज भी याद किया जाता है। उन्हें हिन्दी नवजागरण की पहली लेखिका माना जाता है। बंगला में वे प्रवासिनी के नाम से लिखती थीं और हिन्दी में बंगमहिला के नाम से। स्त्री षिक्षा तथा स्त्री स्वातंत्र्य की वे प्रबल समर्थक थीं तथा उन्होंने पुरुष सत्तात्मक समाज को चुनौती दी थी। वे स्वदेषी की समर्थक भी थीं जिसका उल्लेख ‘दुलाईवाली’ के एक प्रसंग में साफ-साफ दिखाई देता है। उन्होंने इस कहानी में एक जगह लिखा है – ‘नवल कट्टर स्वदेषी हुए हैं न! वे बंगालियों से भी बढ़ गए हैं। और बात भी ठीक है। नाहक विलायती चीजें मोल लेकर क्यों रुपए की बरबादी की जाए। देषी लेने से दाम लगेगा सही, पर रहेगा तो देष ही में।’ …जबकि उषा देवी मित्रा ने स्त्री-अस्मिता के साथ-साथ स्त्री समानता की भी बात की है। उनकी ‘भूल’ कहानी में सुप्रभा अपने वैधव्य में एकादषी का व्रत करते हुए ज्वर से पीड़ित होने पर महरी के हाथ का पानी पीकर कहने को अपना धरम बिगाड़ लेती है। हालाँकि महरी से यह कहने पर कि ‘तूने जान-बूझकर क्यों बहू का धरम बिगाड़ा?’…महरी कहती है – ‘वह मर जो रही थी। तुम्हारे धरम से मेरा धरम लाख गुना अच्छा।’ यानी जीवन बचाने के लिए कुछ भी किया जाना नैतिक है और जीवन से बड़ा धर्म हो ही नहीं सकता। स्त्री के प्रति सोच की यही आहट होमवती देवी में भी है और कमला चौधरी में भी।
सत्यवती मलिक ने अलग-अलग मिजाज की कहानियाँ लिखीं। इन्हीं में से एक कहानी है ‘कैदी’ जो कैदी जीवन की विडम्बनाओं पर आधारित है। सत्यवती मलिक के लेखन में भाषा का जो ठाठ है, वह अद्भुत है। उनकी अधिकांष कहानियों में काष्मीर और उसके निकटवर्ती इलाके हैं, उनकी खूबसूरती के किस्से हैं, उनकी लुभावनी तस्वीरें हैं और उसी के बीच जीवन की अद्भुत सच्चाइयां भी हैं। दोनों ओर महान पर्वतों के बीचों बीच अकेला एक छोटा-सा पर्वत खण्ड- कुछ भग्नावषेष। यही किला है काष्मीर का कालापानी। पहले महाराज के समय में जिसे आजन्म कारावास होता था, उसे यहीं छोड़ देते थे। …कैदी गा रहा है- ‘ओ मेरे छलछलाते देष, बर्फ पिछल गई है, नवीन कोंपलें फूट निकली हैं।’ .. वह एक जीवित मांस की लोथ-सा दिखाई देता था। सफेद रक्तहीन चेहरे पर कीच-युक्त अधखुली आँखें, मुँह से बहती हुई लार जो उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी पर से एक डोरे की तरह टपक रही थी और जिस पर मक्खियों ने अपना डेरा जमा लिया था। ….चीड़ वृक्षों में से सरसराती हवा, सन्ध्याकालीन नीले आकाष में जहाँ-तहाँ छितराए बादल, एक-एक मोड़ के बाद ऊँचाई। …कैदी पानी माँग रहा है – ‘पोम…पोम, त्रेष….त्रेष।’ …कोई कह रहा है – ‘अजी यह तो जेल में झुलस गया है।’ ….कैदी चाय माँग रहा है – ‘भाई जी, आज चाय पिलायँगा। जे आज चाय नहीं पियँगा, ते फेर कद पियँगा? जिन्दगानी, परवरदिगार तैनूँ…।’ …कोई फिर कह रहा है – ‘अजी, सात वर्ष इसने चाय नहीं पी। सात वर्ष इसने भात नहीं खाया। सात वर्ष तमाकू नहीं पिया और सात वर्ष किसी स्त्री और बच्चे का मुख नहीं देखा।’ …कैदी अपनी मस्त तान से काष्मीरी-भाषा में गाता चला जाता था और सड़कों पर काम करनेवाले कुली, खेतों पर काम करनेवाले किसान, लम्बे कुरते और टोपियाँ पहने काष्मीरी बच्चे मोटर-बस की तेज चाल में से भी कैदी की आत्मा के साथ एकाकार हो रहे थे। और हरी-हरी धान की खेतियाँ, सफेदों से घिरी सड़कें, फलों से झूलते पेड और नव-वस्तु के सौरभ से आलोड़ित समूची उपत्यका मानों उसका आतिथ्य कर रही थीं। …सात वर्षों बाद वह एक स्त्री का दिया हुआ कुद का कलाकन्द खाकर खुष है और जिज्ञासु है कि मिठाई देनेवाली माई जी क्या कल भी होंगी? …इसी तरह एक छोटी-सी कहानी ‘सगाई के दिन’ के विद्याधर को स्मृतियाँ इतनी कचोटती हैं कि उन्हें अपने बचपन के वे दिन याद आते हैं जब पिता के नहीं होने पर माँ से पैसे माँगने पर उनकी विवाहिता बड़ी बहन ने माँ को बुरी तरह डाँटते हुए कहा था – ‘बच्चों को बहुत बिगाड़ा न कर, कौन बैठा है तेरा यहाँ कमाने वाला!’ और अपने भानजे की तरह ब्लेजर का हरा कोट मांगने पर उनके बहनोई एक डंडा लेकर उसकी ओर दौड़े थे- ‘इतना साहस तेरा! कमीने!’ ….विद्याधर को आज भी लग रहा था कि जीवन में पिता और माँ का होना कितना जरूरी होता है। क्योंकि जब से उसने होष संभाला, अपने को बड़ी बहन के घर में पलते देखा। …‘मेरी माता जी’ में लेखिका पहले भी माँ के महत्व को बता चुकी हैं जब बीमार माँ को देखकर मोटर ड्राइवर बोल उठा था – ‘आपणियाँ माँवा ठंडियां छांवा’- अर्थात अपनी माँ शीतल छाया होती है।
इसी तरह ‘वैषाख की रात’ में पद्मा के अल्हड़पन का जो वर्णन है, वह अद्भुत है। वे लिखती हैं – ‘पानवाले की दूकान से लेकर चौराहे तक का सिपाही उसके आतंक से दुखी है। स्कूल से आते ही गले में उलझे केष डाले, साड़ी का लम्बा छोर पीछे लटकाए, नवजात उद्धत बछड़े की भांति वह इधर से उधर छलांगें लगाती है। झट से मोहन की साइकिल उठा गली-मुहल्लों के बच्चों को लादे दूर बाग-बाजारों तक चक्कर काटती घूमती है- घर के नौकरों, महरी, धोबी, बच्चों को घर पर पढ़ाने वाले मास्टर तक को रुला, खिजा गिनकर वेतन देती – हँसती, डाँटती है। सारा शहर मानों उसका निजी क्रीड़ा स्थल है। …नीलिमा उसकी सहपाठिनी है पर यदि उसके काका कविता लिखें, पाठ करें, तो झट कॉपी में लिखने बैठ जाना, सगे भाई -बहनों, अपने घर-बार की सुधि छोड़ उन्हें रसोई के काम मे सहायता देना, उसके मधुर कंठ, निष्कपट आँखों, गौरवर्ण ने मानों नव परिचितों को लुभा लिया है। अभी कुछ ही मास पूर्व सामने क्वार्टरों में नया बंगाली परिवार आकर बसा है।’ ….सत्यवती जी की कलम में एक ऐसी जादुई ताकत है जो कहानी के सामान्य प्लॉट को भी विषिष्ट बना देती है। गंगा प्रसाद विमल ठीक ही कहते हैं कि ‘सत्यवती मलिक की कहानियाँ भाषिक संरचना की दृष्टि से हिन्दी की आरम्भिक आधुनिक कहानियां कही जाएंगी। उनमें स्पष्टतः बेबाकपन और स्वच्छन्दता की ऐसी भावलहरी प्रतिबिम्बित होती है जो प्रायः दुर्लभ होती है।’ …वे आगे कहतें हैं कि ‘सत्यवती मलिक और उनकी अनेक समकालीन लेखिकाओं ने हिन्दी कथा की समृद्धि में जो योगदाना दिया, वह उल्लेखनीय है। उल्लेखनीय सिर्फ इसलिए नहीं कि वे एक महिला लेखक थीं, बल्कि उल्लेखनीय इस अर्थ में भी कि पुरुष वर्चस्व की कथाओं की तुलना में कथात्मकता का स्वाभाविक प्रभाव भाषिक दृष्टि या अभिव्यंजना की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। केवल संवेदना का ही पक्ष लें तों स्पष्ट हो जाता है कि मानवीय भावनात्मकता का अत्यन्त महीन आदर्ष पुरुष कथाएं प्रस्तुत नहीं करतीं, अपितु महिला लेखिकाओं की कथाएँ प्रस्तुत करती हैं। …इसे सत्यवती मलिक, होमवती देवी तथा कमला चौधरी की कहानियों में देखा जा सकता है।
सत्यवती मलिक की कहानियों का प्रमुख काल वैसे तो 1951 में समाप्त हो गया था पर वे जीवन पर्यन्त कथा के पात्रों के साथ चलती रहीं। वे काष्मीर पर कहानियाँ लिखनेवाली पहली महिला लेखिका थीं। काष्मीर उनके ख्वाबों का शहजादा था जिससे अलग होकर जीना उनके लिए मुष्किल काम था। उनके जीवन की यही साध भी थी कि वे काष्मीर के लिए जिएं और काष्मीर के लिए मरें। तब का काष्मीर आज का काष्मीर नहीं था जहाँ संगीनों के साये में सुबह होती हो और न ही ऐसा काष्मीर जहाँ घृणा और नफरत का राजनीतिक जाल बुना जाता हो। उनके पुत्र केषव मलिक कहते हैं कि सत्यवती जी का दृष्टितोण किसी समाज या सम्प्रदाय विषेष तक ही सीमित नहीं रहा। उन्हें जहाँ से प्रकाष मिला उसे ग्रहण करने का प्रयत्न वे निरन्तर करती रही हैं। देखा जाए तो यही प्रकाष उनके जीवन में प्रेम बनकर बरसता रहा जहाँ वे कहती रहीं –
‘आज की रात रहो, प्रिय, आज की रात रहो!
पथ में फूल बिछा देती हूँ
मेरे साजन, आज की रात रहो!’
कहीं यह लेखिका का पाठकों के लिए अपनी कहानियों में रुकने का निमंत्रण तो नहीं? सत्यवती जी मानती थीं कि प्रकृति ने उन्हें कई रूपों में सृजित किया है – माता, पत्नी, बहन और पुत्री के रूप में। एक परिवार के लिए इन सभी की समान उपादेयता है।
उनकी कहानियाँ भारतीय समाज में परिवार का बहुविध महत्व प्रतिपादित करती हैं जिनसे गुजरना जीवन के नये-नये आयामों से परिचित होना है। सत्यवती जी आजादी के दिनों में महात्मा गाँधी और कस्तूरबा के जीवन-आदर्षों से बहुत प्रभावित रहीं और उन्हें अपना आदर्ष मानती रहीं। सत्यवती जी की छोटी बहन उर्मिला द्वारा लिखित पुस्तक ‘कारागार’ की भूमिका बा ने ही लिखी थी, सम्भवतः उर्मिला से उनका परिचय कारावास के दिनों में हुआ हो और दोनों ने एक-दूसरे को बखूबी समझा हो। इसलिए भी उनके मन में बा के लिए एक विषेष आदर का भाव रहा। इस तरह सत्यवती जी कथाकार के साथ-साथ एक क्रांतिकारी भी मानी जा सकती हैं, जो आजादी का अर्थ जानती थीं और इससे कुछ भी कम उन्हें स्वीकार्य नहीं था।

अरविन्द कुमार

502, महेष अपार्टमेंट, बड़ी खंजरपुर, भागलपुर – 812001

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