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Tuesday, July 23, 2024
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रामेश्वरी नेहरु और स्त्री दर्पण

मित्रो पिछले दिनों आपने प्रज्ञा पाठक का स्त्री दर्पण पर लेख देखा।आज उस पत्रिका की संपादक रामेश्वरी नेहरू पर किंग्स्टन पटेल का हम लेख देख रहे है।

रामेश्वरी नेहरु का जन्म 10 दिसंबर 1886 ई. को और मृत्यु 8 नवंबर 1966 को हुई। वे भारत में शुरुआती दौर की महिला समाज सेविका थी। लेखन के क्षेत्र में कई महिलाएं सक्रिय थी, लेकिन रामेश्वरी नेहरु ही ऐसी थी जो लेखक के साथ-साथ स्वाधीनता सेनानी और समाज सेविका भी थी। इन्होंने स्त्रियों, गरीबों, वेश्याओं और उत्पीड़तों के लिए काम करने का बीड़ा उठाया था।
रामेश्वरी नेहरु की शिक्षा दीक्षा घर पर ही हुई थी, क्योंकि उस दौर में कुलीन घरों की लड़किया स्कूल नहीं जाया करती थी, फिर रामेश्वरी नेहरु तो कश्मीरी पंडित थी। उनके पिता दिवान बहादुर राजा नरेन्द्र नाथ कश्मीर छोड़ पंजाब में आकर बस गये थे। रामेश्वरी नेहरु का विवाह सोलह साल की उम्र में कश्मीरी पंडित बृजलाल से हुआ, जो जवाहरलाल नेहरु के चचेरे भाई थे। नेहरु परिवार की अधिकांश औरते बहुत सक्रिय रही थीं। वह चाहे जवाहरलाल की पत्नी हो या उनकी बहन या बेटी या परिवार की अन्य स्त्रियां। इस घर में आने के बाद स्वयं रामेश्वरी नेहरु ने जो किया वह उस दौर में बहुत की क्रान्तिकारी कदम था। जिन स्त्रियों, वेश्याओं को सबसे पतित माना जाता था उसके उत्थान के लिए उन्होंने आवाज उठायी। उन्होंने दलितों और स्त्रियों को, जिनके लिए शिक्षा का श्रेत्र बहिस्कृत था उन्हें विभिन्न माध्यमों से शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। हम लोगों की तरह उनके पास स्कूली विद्या नहीं थी, लेकिन उन्होंने जिस तरह से गरीबो, दलितों, स्त्रियों और बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास किया वह उनके परिश्रम और वंचितों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
रामेश्वरी नेहरु ने 1909 में स्त्री दर्पण पत्रिका की शुरुआत की । स्त्री दर्पण पत्रिका मासिक थी, जो 1909 ई. से 1920 ई. तक इलाहाबाद के लॉ जर्नल प्रेस से और 1923 ई. से 1929 ई. तक ईस्टर्न प्रेस, कानपुर से निकलती थी | बीच-बीच में अनियमित हो जाने और किसी भी पुस्तकालय में सम्पूर्ण अंक न मिल पाने के कारण प्रामाणिक रूप से यह बता पाना संभव नहीं है कि इसके कुल कितने अंक प्रकाशित हुए हैं |
हिन्दी साहित्य जगत में यह पहली ऐसी पत्रिका थी, जिसकी संपादक, व्यवस्थापक और वितरण का पूरा जिम्मा स्त्रियों ने खुद संभाला था | नेहरू परिवार की रामेश्वरी नेहरू और उमा नेहरू के संपादकत्व और देख-रेख में निकलने वाली यह पत्रिका पुरुषवादी समाज की उस धारणा को ध्वस्त करती है, जो यह मानती है कि स्त्रियों में कुछ नया रच और कर सकने की मेधा नहीं होती है और न ही वे आय-व्यय का हिसाब रख सकती हैं |
स्त्रियों के लिए निकलने वाली अन्य पत्रिकाएँ जहाँ दो-चार सालों में ही काल-कलवित हो गईं, वहीं स्त्री दर्पण लगातार बीस वर्षों तक निकलती रही | यही नहीं यह पत्रिका अपने स्वरूप और विषयवस्तु में भी विविधता लिये हुए थी | इसमें स्त्रियों को मात्र ‘कुलधर्म’ सिखाने वाले आलेख ही नहीं छापे जाते थे, बल्कि स्त्रियों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए सामग्री का चयन किया जाता था | भिन्न आयु की अविवाहित कुमारियों के लिए अलग से आलेख ‘कुमारी दर्पण’ नाम से छापे जाते थे | पत्रिका के सम्पूर्ण आलेखों को बहुत ध्यान से पढ़े और गुने तो हम पायेंगे कि स्त्रियों की शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, उनके अधिकार और कर्तव्य के साथ-साथ देश-विदेश में स्त्रियों की प्रगति से संबंधित लेखों की बहुतायत है | सामाजिक कुरीतियों जैसे- दहेज प्रथा, परदा प्रथा, बहु विवाह, विधवा समस्या, सती प्रथा, अनमेल विवाह इत्यादि समस्यामूलक आलेखों में पुरुषवादी समाज और इन समस्याओं को बरकरार रखने के लिए पुरुषों की स्वार्थी प्रवृत्ति को जिम्मेदार ठहराया गया है | ‘अबलाओं पर अत्याचार’ नामक आलेख में देवेन्द्र चन्द्र धूत लिखते हैं कि “किन-किन अत्याचारों का वर्णन किया जाय | पुरुष समाज ने जितने भी अत्याचार स्त्री जाति पर किए और करते चले जा रहे हैं उसके जिम्मेदार खुद हैं | समाज को अधः पतित कर देने का मुख्य दायित्व पुरुषों पर ही है |” (स्त्री दर्पण, अगस्त, 1928) स्त्रियों को राजनीतिक गतिविधियों से अवगत कराने वाले लेख भी हैं, जो यह बताते हैं कि अब राजनीति केवल पुरुषों के बीच की चीज नहीं रह गई, बल्कि स्त्रियों के लिए भी देश-दुनिया की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों को समझना आवश्यक समझा गया |
बालाबोधिनी सरीखे अन्य पत्रिकाओं के विपरीत यह पत्रिका मनोरंजन विहीन मात्र उपदेशात्मक नहीं थी, बल्कि इसमें किस्से, कहानियाँ, पहेलियाँ, पढ़ो और हँसो जैसी मनोरंजक सामग्री को भी स्थान मिला | यह मनोरंजक सामग्री स्त्रियों को ‘बिगाड़ने वाली शिक्षा’ के रूप में नहीं, बल्कि सहज आनन्द और ज्ञान का विकास करने वाली सामग्री के रूप में जगह पाती है | यथा-
“१- राम मनोहर से कहता है कि मैं तुम से १० वर्ष बड़ा हूँ | ५ वर्ष में मैं तुम्हारी उमर से दूना बड़ा हो जाऊँगा | तो बताओ उनकी वर्तमान अवस्थाएं क्या हैं ?
५- आदि कटे पर लीन है | मध्य कटे पर भात |
कुल मिलाकर एक देश है, जग में है विख्यात ||
[ जो कन्या सब से प्रथम व सही उत्तर भेजेगी उसे एक सुन्दर पुस्तक पुरस्कार स्वरूप भेंट की जाएगी ]”
(स्त्री दर्पण, दिसम्बर, 1925)
इस पत्रिका में बड़ी मात्रा में विज्ञापन और चित्रों को छापा गया है | ये विज्ञापन और चित्र स्त्रियों की शिक्षा, मातृत्व, सुन्दरता और उनकी कर्मठता को दर्शाते हैं | विषयों की विविधता यह रेखांकित करती है कि जब कोई पत्रिका स्त्री के संपादकत्व और नेतृत्व में निकलती है तो उसमें केवल सतीत्व, मातृत्व और परिवार की मर्यादा को हर-हाल में बचाये रखने वाली स्त्रियों की ही सामग्री नहीं छपती, बल्कि स्वयं उनके अपने स्वास्थ, शिक्षा और आत्मनिर्भरता के सवाल भी जगह पाते हैं |
बीसवीं सदी और स्वयं इस पत्रिका में स्त्री शिक्षा केन्द्रीय बहस का मुद्दा थी | ‘स्त्री शिक्षित हो यह नये उभरते भद्र मध्यवर्गीय परिवारों और शिक्षित नवयुवकों की जरूरत थी’ इसीलिए स्त्री शिक्षा उस दौर की जरूरत बन गई थी, लेकिन विवाद का विषय था स्त्री की शिक्षा कैसी और कितनी हो ? ‘शीलवती’ स्त्री बनाने और पतिव्रत धर्म सिखाने वाली शिक्षा हो या स्त्री को आत्मनिर्भर बनाने और उनका स्वतंत्र विकास करने वाली शिक्षा ? स्त्री शिक्षा का यह द्वंद्व स्वयं स्त्री दर्पण पत्रिका के अधिकांश लेखों में है |
स्त्रियों की दयनीय स्थिति में सुधार की प्रक्रिया में इस पत्रिका में स्त्री की सामाजिक गतिविधि में भागीदारी, चयन की स्वतंत्रता, आर्थिक आत्मनिर्भरता और संपत्ति में हिस्सेदारी के सवाल को भी उठाया गया है | एक विनीत देशभक्त द्वारा लिखे गये आलेख ‘भारतीय स्त्रियों का उद्धार’ में यह बहुत साफ़ तौर पर महसूस किया गया कि भारतीय स्त्रियों की स्थिति में सुधार तभी संभव है जब हम भी दूसरे देशों की अच्छी चीजों को अपनाएँ- “ हमें भी अपने देश से छोटी आयु के विवाहों की कुप्रथा को बन्द कर देना होगा | योरोप के प्रत्येक देश में हर प्रकार की तथा उच्च से उच्च शिक्षा का द्वार स्त्रियों के लिए खुला होता है हमें भी अपने देश में स्त्रियों को उच्च से उच्च शिक्षा का अवसर देना होगा | योरोप में किसी भी बालिका पर उसकी इच्छा के विरुद्ध अथवा उसकी बिना अनुमति लिए पति नहीं थोपा जाता हमें भी अपनी कन्याओं को उनकी इच्छानुसार विवाह करने अथवा न करने और उनको इच्छानुरूप पति बरने का अवसर देना होगा | योरोप में जो स्त्रियाँ स्वतंत्र जीविका निर्वाह करना चाहती हैं उनके लिए अनेक व्यवसाय तथा अनेक प्रकार की नौकरियाँ खुली होती हैं हमें भी अपने देश में इस प्रकार की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को आदर पूर्वक अपनी जीविका निर्वाह करने के अवसर देने होंगे | योरोप में केवल अच्छी पत्नियाँ अथवा अच्छी माताएँ बनना ही प्रत्येक स्त्री के जीवन का सर्वोच्च आदर्श नहीं समझा जाता वरन् वहाँ की अनेक स्त्रियाँ अपने देश के राजनैतिक तथा सामाजिक जीवन में योग्यता के साथ पूरा-पूरा भाग लेती हैं | हमें भी इस विषय में अपने प्राचीन आदर्श को अधिक उच्च करना होगा और अपनी स्त्रियों को इस योग्य बनाना होगा कि वे अपनी प्यारी जन्मभूमि के राजनैतिक, सामाजिक तथा अन्य हर प्रकार के उद्धार में पुरुषों का हाथ बंटा सकें |” (स्त्री दर्पण, फरवरी 1916) जाहिर है बीसवीं सदी में पुरुष स्त्री को अनपढ़, गँवार और घरेलू के रूप में नहीं बल्कि ‘घर-बाहर हाथ बंटा सकने वाली’ नई भूमिका से लैस स्त्री के रूप में देखना चाहता था ! स्त्री की स्वायत्तता, निर्णय की स्वतंत्रता, आर्थिक निर्भरता तथा संपत्ति में हिस्सेदारी के लेखों का अभाव इस पत्रिका में साफ देखा जा सकता है | मात्र गिने-चुने लेख ही इस पत्रिका में उपरोक्त सवालों को उठाते हैं | श्रीमती हुक्म देवी छात्रा का लेख ‘नारी मण्डल की उन्नति के कुछ साधन’ ऐसा लेख है जो सम्पत्ति में स्त्रियों के अधिकार का प्रश्न मूलभूत ढंग से उठाता है | हुक्म देवी लिखती हैं कि “भारतीय नारी समाज के साथ सदियों से यह अन्याय होता आया है कि पारिवारिक सम्पत्ति में कन्या को पितृ सम्पत्ति में कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं होता है उसके पश्चात् देवर जेठ अथवा पुत्र अधिकारी बन जाते हैं | नारी की कोई स्वतंत्र सम्पत्ति न होने से वह हर प्रकार से पराधीन और दुखी तथा परतंत्र रहती है | इस कारण पिता की सम्पत्ति में पुत्र के समान पुत्रियों को भी भाग मिले और पति के जीवित रहने पर भी आधी सम्पत्ति का उसे पूर्ण अधिकार हो और मर जाने पर वह अपने देवर जेठों के समान अपने पति की सम्पत्ति की मालिक हो | इस अधिकार प्राप्त के लिए घोर आन्दोलन करना चाहिए और इस अधिकार को प्राप्त किए बिना कदापि संतुष्ट नहीं होना चाहिए | (कुमारी दर्पण, सितम्बर, 1928)
आज इक्कीसवीं सदी में भी हिन्दी का स्त्री विमर्श स्त्री की सम्पत्ति में हिस्सेदारी के प्रश्न को न तो इतने मूलभूत ढंग से उठा रहा है और न ही कोई आन्दोलन कर रहा है | ऐसे में इस पत्रिका के महत्व और उसके प्रकाशन की जरूरत का अंदाजा लगाया जा सकता है |
रामेश्वरी नेहरु ने ‘दिल्ली महिला लीग की स्थापना की, जिसकी वे संस्थापक अध्यक्ष बनी। उन्होंने बाल विवाह और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ महिला को प्रबुद्ध किया जो समाज को प्रभावित कर रहे थे। बाल विवाह के खिलाफ धर्मयुद्ध में उनकी भूमिका को स्वीकार करते हुए, भारत सरकार ने उन्हें आयु समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया। यह उल्लेखनीय था कि वह समिति की एकमात्र भारतीय महिला सदस्य थीं। उसने बाल-पत्नियों की दुर्दशा पर एक लंबी टिप्पणी प्रस्तुत की, जिसे बाद में समिति की रिपोर्ट में शामिल किया गया। इस रिपोर्ट ने बाल विवाह निरोधक कानून की नींव रखी, जिसे बाद में अधिनियमित किया गया था। महिलाओं की मदद करने और बीमार लोगों के पुनर्वास के लिए नारी निकेतन शुरू किया।
वे भारत की महिलाओं की प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा की। वे वीमेन कमेटी ऑफ इंडिया लीग और वीमेंस इंडियन एसोसिएशन की अध्यक्षता की अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष चुनी गईं। उन्होंने अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए और हरिजनों के लिए मंदिर-प्रवेश के अधिकारों को हासिल करने के लिए समर्पण के साथ काम किया। बाद में उसने खुलकर राजनीतिक कार्य किया | उन्हें लाहौर की महिला जेल में नौ महीने तक कैद में रखा गया।’
राजनीति के बड़े पदों से दूर रहकर रामेश्वरी नेहरु ने 8 नवंबर 1966 को हमसे विदा हो गयी लेकिन उसके कामों ने उसे पहली महिला संपादक होने का गौरव देकर हमारे बीच अमर कर दिया है |
किंगसन सिंह पटेल
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर
बी एच यू वाराणसी

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