Thursday, November 21, 2024
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‘करतूतें मरदां’ : वैचारिक पक्ष” – रीता दास राम

स्त्री दर्पण मंच पर आज प्रतिष्ठित वरिष्ठ लेखिका आदरणीय मन्नू भंडारी जी के जन्मदिन समारोह मनाया जा रहा है। उन्हें जन्मदिन की हार्दिक

बधाई

एवं ढेरों शुभकामनाएं।

2011 में आई उनकी कृति ‘करतूते मरदाँ’ पर लिखा मेरा लेख आपके समक्ष प्रस्तुत है।

“‘करतूतें मरदां’ : वैचारिक पक्ष” – रीता दास राम
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हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित एवं महत्वपूर्ण नाम मन्नू भंडारी सरलता और सहजता से लेखन क्षेत्र में अग्रसर अपने दौर के स्त्री विमर्श में अपनी तटस्थ उपस्थिति को दर्ज करती है। समाज में स्त्री उनकी कहानियों का केंद्रीय विषय रहा। नारी की स्थिति, समस्याएँ और जीवन संघर्ष पर ही नहीं बल्कि उन पर होते चौतरफा आघात एवं पुरुषों की पैंतरेबाजी पर भी वे अपनी लेखनी चलाती है। स्त्री-पुरुष समाज में दो इकाई होने के बावजूद स्त्री छली जाती है। तिरस्कृत होती है। अपमानित होती है। हालात के मद्देनजर उपेक्षित रह जाती है। लेखिका स्त्री मन के शब्द ऐसे बुनती है जैसे वे अगली पीढ़ी को सतर्क कर रही हो जबकि व्यथा में वे खुद आहत, जख्मी एवं क़ैद प्रतीत होती हैं। सादगी के साथ आक्रोश और द्वंद्व के तीखे फ्लेवर को पाठक नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। वरिष्ठ लेखिका मन्नू भंडारी जी की रचनाएँ जीवन में आहत करती सच्चाईयों का बयान है जिन्हें वे खुलकर सामने रखती है।
‘करतूते मरदाँ’ साठ के दशक से सदी के अंत तक की लेखिका की चार कहानियों पर केन्द्रित उनकी रचनात्मक विशेष के विस्तार का फ़लक है जिनसे पाठक उनकी विचार दृष्टि के मूल की पड़ताल कर पाते है। पुस्तक की भूमिका में सुधा अरोड़ा जी लिखती है, “साहित्य और कला में ऐसी ताकत होती है कि सर्जक अगर उसमें पूरी तरह डूब जाय तो अपने जीवन की त्रासदियों में जूझने का हौसला भी उसमें पैदा हो जाता है।” मन्नू भंडारी अपने लेखन द्वारा अपने समय का संज्ञान लेती है जो जरूरी विरोध दर्ज करता चेतना जागृत करता संभावनाओं के बदलते युग और परिदृश्य को प्रस्तुत करता है। कहानियाँ संस्कृति, समाज, परिवेश और मूल्यों में बारीक तारतम्य की सटीक अभिव्यक्ति है जो लेखिका के विचार, सोच के दायरे और उनकी सीमा को तय करती अपनी बात रखती है। नामवर सिंह जी कहते हैं यह स्त्री विमर्श उबाऊ नहीं मन्नू जी के लेखन का कौशल है। स्पष्ट है कि विमर्श में नए फ़्लेवर की महक है। कहानियाँ कहती है स्त्री पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर समाज में व्यभिचार में संलग्न पुरानी परंपरा और चुनौतियों को टक्कर देते बदलाव का हस्ताक्षर है। विवाह व्यवस्था अपने बंधन की उपेक्षा करते स्त्री-पुरुष के नित नए ढंग की व्याख्या देख रहा है। बदलाव के अभिलाषी छल-प्रपंच को जीते समाज के मुखौटों को बेपर्दा करते वर्तमान को गढ़ रहे हैं जिसमें स्त्रियाँ पुरुषों से अलग नहीं है। ‘करतूते मरदाँ’ समाज में पुरुषों को उनके इतर रिश्तों के साथ बेनकाब करना है जिसमें साफ साफ देखा जा सकता है कि जिंदगी की जरूरत एक रिश्ते से पूरी नहीं होती। समय के साथ रिश्तों के बदलाव की आकांक्षा इंसानी मस्तिष्क जीता है। बावजूद इसके पुरानी परंपरा, मूल्यों, तौर-तरीके को जीते, उन्हें जिंदा रखने की मुहिम अपनी सहमति भी जताती है।
‘करतूते मरदाँ’ पुस्तक मन्नू भंडारी की चार कहानियों ‘यही सच है’ (1960), ‘एक बार और’ (1965), ‘स्त्री सुबोधिनी” (1977) और ‘करतूते मरदाँ’ (2002) का संकलन है। यह परिवर्तित होते दौर पर लेखिका की अपनी नजर है जो कहानियों के द्वारा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को तोलती जिरह करती पाठकों की जिज्ञासा को पोसती रिश्तों की विकृति का भी अंकन है। जिसमें तत्कालीन दौर के परिवर्तन, शोषण, मानसिक व्यथा, दबाव, तनाव में गुथे त्रिकोण प्रेम प्रसंगों को सांस लेते देखा जा सकता है जो दशकों का अपना हाल लेखिका से बच नहीं पाता। पति-पत्नी के साथ प्रेमी-प्रेमिका के संबंध समाज में कुकुरमुत्ते की तरह पनपते अपना समय लेकर विलीन हो जाते है। पर भावनात्मक काई को मस्तिष्क की तलहटी में समेटे इंसान तब भी जीते हैं जब तक कि वजूद की परतें न खुरच जाए। पुरुषों पर भरोसे को प्रश्न चिन्ह अंकित करती मन्नू भंडारी की लेखनी जिसमें पाठक राजेंद्र यादव की मौजूदगी तो नहीं पर उनके वजूद के स्पर्श को महसूस किए बिना नहीं रह पाते। सुधा अरोड़ा जी की सशक्त भूमिका ने कहानियों के प्रति जिज्ञासा तो बढ़ाया ही पर मन्नू भंडारी जी की कहानियाँ अपने वजूद को रेखांकित करती है।
‘यही सच है’ कहानी पर बनी ‘रजनीगंधा’ फिल्म अपने दशक का कथ्य कहती स्त्री मनोदशा को उसके पूरे बोध और अंतरंगता के साथ उकेरती, भीतरी ऊहा-पोह को शब्द देती, मानसिक व्यथा को प्रस्तुत करती है। हालात से जूझती स्त्री की मानसिक दशा और उसके भावों की कोमलता उसे समय से अलग और आगे पहुँचा देते है जबकि कठोर यथार्थ उस पर दया न करता निर्ममता से सत्य की भूमि पर ला खड़ा करता है। पाठक देखते हैं कि संवेदना से भरी भावनाओं में बहती नारी अपने प्रेमी या पुरुष के लिए नकारात्मक सोच भी नहीं रख पाती। जीवन में अवतरित पहले और दूसरे पुरुष में उसे चुनाव करना तब भी कठिन होता है जबकि अपमानित होती ठुकराई जाती है किन्तु जरा से स्नेह से नायिका दीपा की भावना पुनः पहले प्रेमी से जुड़ती चली जाती है। यहाँ कहानी नारी मन की कोमलता का बयान करती है। वह निशीथ के अच्छे आचरण और व्यावहारिकता से दुविधा के भंवर में फँसती धोखा खाती परंतु फिर कठोर सच की धरती पर उतरती सत्य का साक्षात्कार करती है। कोमल मन भावनाओं के हाथों मजबूर होता सस्नेह खुशियों को कल्पनाओं में विस्तार पाता सराबोर होता जाता है जबकि लहरें किनारे पर आकर पछाड़ खाती लोप हो जाती है। सच्चाई की रेत ही रेत बची रह जाती है जिसे धूप धीरे धीरे सूखा देती है।
‘एक बार और’ रिश्तों की पकड़, गठजोड़, बनते, बिगड़ते जरा सी ठेस में बिखर जाते है और व्यक्ति पिछले सारे हिसाब टुकड़े-टुकड़े कर हवा में उड़ा देता है। कुंज से आपसी प्रेम संबंध को थामे उससे कटने और जुडने के अपने हिस्से के विस्तार को तोल-मोल करती बिन्नी न नन्दन से जुड़ती है ना कुंज से। इंसान छोटी-छोटी दरारों को पाटने की कोशिश में समय के बदलते मौसम में ठग कर रह जाता है जबकि आस प्यास को समेटे गला तर करने की चाह उसे रिश्ते की मोड़ पर इंतजार की तख्ती के साथ खड़ा कर जाती है। हम पूरी मर्जी के साथ आगे बढ़ना चाहते हुए भी धुंध के छटने तक समय का गुजर जाना देखते हैं और हर सुबह चिड़ियों की पुरानी पड़ती कलरव की धुनों का एहसास भी होने नहीं देती। बिन्नी एक बार और उस एहसास से गुजरती है जबकि नंदन के आमंत्रण की मूक प्रतीक्षा में पड़ा मन लाज से दोहरा जाने की तड़प के एहसास से आतुर हो जाने को तैयार था। कहानी चाहे स्त्री-पुरुष संबंध के कोमल तंतुओं के रेशे-रेशे को उधेड़ती, बुनती, सहेजती चलती है मूल में स्त्री मन की व्यथा, ताने-बाने का शोर, उधेड़बुन की धमाचौकड़ी, सही गलत के नाप-जोख के साथ स्त्री के अपने हिस्से की बात है। पुरुष के भीतरी मन के शब्द भी जैसे स्त्री पात्र गढ़ती जाती है जो स्त्री की पुरुष के लिए सोच, पुरुष पात्र पर आरोपित होने का एहसास कराता है। वहीं स्त्री अपने भावनाओं में एकतरफा बहते ठगी जाती प्रतीत होती है।
‘यही सच है’ और ‘एक बार और’ में कई समानताएं हैं। प्रेम त्रिकोण का बिखराव और नारी मन की भ्रमित, शंकित विचार दृष्टि उसके वर्तमान का सच गढ़ती है। जहाँ आज की आधुनिक पीढ़ी ठहर भी पाएगी यह बड़ा प्रश्न है जो मुद्दे की बात करती सबूतों को भी धता बताती आगे बढ़ने का त्वरित व्यक्तिगत मौका भी नहीं छोड़ती। मन्नू जी की कहानी ‘स्त्री सुबोधनी’ एक नौकरीपेशा स्त्री का अपने बॉस से आठ साल चला प्रेम संबंध का लेखा-जोखा है जिसे दोनों छक कर जीते हैं। इन आठ सालों का अंतराल कामकाजी युवा लड़की को खुद के ज्यादा नुकसान का बोध कराता है। जाहीर है प्यार चुक जाता है। आँखों पर लगी पट्टी भी हट जाती है जो प्रेम-पाश रूपी मायाजाल थी। ये समय का वह कालखंड है जब घर-परिवार की उपेक्षा पाती अकेली रहती लड़की शिंदे के सहारे को अपना प्यार दे बैठती है। प्यार जब तक भटकाए रखता है प्यार होता है। जब आँख खुलती है तो एक अपने को ठगा महसूस करता है … ऐसा भी क्या हो जाता है कि साथ बिताए विश्वास के वे क्षण बेमानी हो जाते है। समय एक सा नहीं रहता। तब क्यों नहीं प्रेम को सारी जिंदगी का तोहफ़ा समझने की गलती रोकी दी जाय। क्षणिक आवेग तो नहीं हाँ प्रेम को प्रेम का ही नाम दे सकते हैं जो उस क्षण के लिए अमूल्य होता है। कोई भूचाल नहीं गर कल प्रेम प्रेम न हो कोई और नाम हो जाय। जिंदगी जीनी तो है … रो-धो कर या मर-मर कर नहीं।
राजेन्द्र यादव जी का मुहर लगा शीर्षक ‘स्त्री सुबोधिनी’ मन्नू भंडारी जी की बेहतरीन कहानी है। कहानी स्त्री के निश्चित समय को जीती है जिसे समाज में घटते देखा जाता है जबकि कहानी का अंत कहता है कि स्त्री अब जाग गई है। वह अपना हक समझती भी है और तोलती भी है। बेवकूफ बनना, न बनना अलग बात है जबकि साथ का लुत्फ भी वे उठाती रही है। सहारा उसे भी चाहिए था हाँ पर इस तरह नहीं। व्यक्ति आसान सहारों में पहले सुकून पाता है और फिर समय की सीख मिलती है गुजर जाने या बीतते जाने की तकलीफ के साथ आँखें खोलती हुई। लेखिका का मकसद समाज में नारी की आँखें खोलना ही नहीं बल्कि पुरुष के धोखे, पैतरें, पचड़े, साजिश, लाग-लपेट को उजागर करना भी है। ‘करतूते मरदाँ’ कलाकार, साहित्यकार की सत्ता को बेपर्दा कर, ‘नीयत’ की पड़ताल कर लंपट होने के सबूत देना ही है। बहुत कुछ स्त्रियों के अपने हाथ में भी है कि अपनी अस्मिता, अपने दायरे, अपने हिस्से की बनावट को वे आखिर कैसे बुनती है। समाज में स्त्री-पुरुष के बीच समानता यह एक सपना है जिसे देखा और उसका इंतजार करना सिखाया जाता है। स्त्री के भीतर लड्डू की आस में हर बार खत्म होती जिंदगी की पुनः आशा जगाई जाती है ताकि यह आस पीढ़ियों दर पीढ़ियों चलती रहे।
‘करतूते मरदाँ’ तीन किस्सों की जुड़ी कहानी है। ‘किस्सा एक’ लंपट गीतकार पुरुष की दास्तान है जिसने मित्र के समझाने पर उस लड़की से शादी के लिए हाँ की जिसे कई दिनों से शीशे में उतारने की कोशिश हो रही थी। बावजूद इसके शादी के चार दिन पहले भी वह इतर गुलछर्रे उड़ाने से बाज नहीं आता। ‘किस्सा दो’ ऐय्याश निर्माता निर्देशक की जिंदगी की रंगीनियों की कथा है जो पत्नी को घर, बच्चों और माता-पिता की सेवा में रख हमबिस्तर के लिए नित नई तलाश में मस्त जिंदगी व्यतीत करता है। ‘किस्सा तीन’ साहित्यकार की जिंदगी का कच्चा-चिट्ठा है जो पत्नी को झाँसा देता, पत्नी और प्रेमिका के बीच झूलता अपने घर का नुकसान बर्दाश्त करने के बदले प्रेमिका को निपटाने या सुलटाने के तरीके अपनाता फिरता है। आखिर पैंतरेबाजी कब काम आएगी। कहानी लड़कियों के लिए लेखिका की दी गई अच्छी सीख है। सवाल उठता है कि आखिर लड़कियाँ इतनी आसानी से कैसे गिरफ्त में चली आती है। जाहीर सी बात है व्यभिचार सभी के दिमाग में चलता है। कहानी कहानी कम सही सही बात की लताड़ है। दिल दिमाग में काई सा जमा हादसों, घटनाओं का भावनात्मक सैलाब जिसे लिखना वाकई संतुष्टि पाना है। आखिर धोखेबाजी, जालसाजी, नौटंकी, ऐय्याशी, पैंतरेबाजी रिश्तों में कब तक बर्दाश्त की जा सकती है जिसका मवाद भी सूखना चाहता है। समाज की आँख खोलने का एहसास सरोकार से जुड़ता अपने हिस्से की तकलीफ को हल्का करता लेखिका को आश्वस्त करता है कि हक उनका भी बनता है। आहत होकर जीते चले जाने से कड़वा और क्या सच हो सकता है। क्यों न खरी-खरी बात से साँठ-गांठ हो और बेनकाब करने की ज़िंदादिली के साथ बोझिल मन को हल्का करें।
मन्नू भंडारी जी इन चारों कहानियों में समाज के लिए एक मानक रचती है। प्रेम त्रिकोण लगभग चारों कहानियों का केंद्र है। लेखिका गहराई और भावों की धसती जमीन की बात कहती है। स्त्री-पुरुष संबंधों की समस्याएँ, रिश्तों की पेचीदगियाँ, उतार-चढ़ाव उनकी कहानी की विषय वस्तु हैं। प्रेम संबंधों के अनैतिक हादसे, निष्ठा और मूल्यों की कीमत पर पाठकों की वैचारिक दृष्टि का स्वागत करती है कि पात्रों की मर्यादाओं पर खुली आँख से विचार किया जाना चाहिए। कहानी संतुष्ट करती व्यथा के बयान के साथ सरोकार रचती है। उनकी रचनात्मकता सामाजिक और साहित्यिक परिदृश्य रचती, अपना कहन कहती, पाठकों के सम्मुख परिपक्व सोच का अनुरोध है। विषय का चुनाव लेखिका के परिवेश, निजी अनुभव या पसंद से ज्यादा जीवन के संघर्ष हैं। कहानी विकृत होते रिश्तों का दर्द है जो समाज में सहज पसरता शैवाल भविष्य की झलक है जिसे नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन इसके विस्तार की अनुभूति तीस पैदा करती है। क्या भावी पीढ़ी बिमार समाज में जीने के लिए अभिशप्त है ! खींच रहे बर्फ से रिश्तों में आखिर कौनसा हित उद्देश्य छिपा है ! इंसानी जीवन इसकी खोज में लगा है। मन्नू भंडारी जी की कहानियाँ संबंधों की सच्चाई के दायरे में समस्याओं के साथ अपने दौर का महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होते हुए विस्तृत वैचारिक क्षेत्र खुला छोड़ जाती है जिस पर काम होना उपलब्धि होगी।
– रीता दास राम
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