Wednesday, December 11, 2024
Homeआलोचनासियोल से सरयू- कहानी संग्रह

सियोल से सरयू- कहानी संग्रह

आलोचना की नई शैली क्या हो सकती है ? भाषा का रूख मोड़ा जा सकता है? बने ढर्रे को तोड़कर अपनी नई शैली – शिल्प विकसित की जा सकती है ? हर सवाल का उत्तर हाँ है। यह कार्य यतीश जी ने कम समय में ही अर्जित किया है। इनकी शैली वाली आलोचना एक देश में ख़ासा पॉपुलर है। देश का नाम गुप्त रखते हैं। यतीश जी ने जब प्रथमबार लिखा था, तब पढ़कर उस आलोचना की कटिंग खोजने लगी थी। मिलने के बाद बल्लियों उछल गई थी। यह क़िस्सा फिर सही॰॰॰ आज उनकी निगाह से एक ऐसी किताब गुजरी है जिसमें दर्ज ख़ामोशी समाज का सच है। सच को सच की तरह कहने की नई व मुफ़ीद कला यही है॰॰॰
…………………….

डॉक्टर सुनीता
प्रकाशक वनिका पब्लिकेशन्स
1.
नाटक और कहानी के बीच
एक पगडंडी है,
जहाँ टहलना
उसे बेहद पसंद है।
दशमलव और शून्य के बीच सेतु बनाती,
दृश्यों में उभरते चेहरे उकेरती,
अपनी ही कृति से सवाल पूछती है।
वह बेली ऐसी ही अलबेली है क्या?
अँखुआते सपने शर्मीले होते हैं,
सकुचाते हुए विस्तार पाते हैं।
यह भी सच है, अधूरे सपनों का मोती
ज़्यादा चमकता है।
कहानियाँ स्मृतियों की सहेली हैं
और सहेलियों में झगड़ा लाज़मी है।
बिम्ब को प्रतीक से झगड़ना है
और इन लड़ाइयों के बीच शब्द अपने रूप बदलते हैं।
2.
आम खाते हुए
याद नहीं आते
बौर और टिकोरे।
कहानियाँ पढ़ते हुए याद नहीं आते
स्मृतियों के वे पुराने झोंके।
भरी दुपहरिया उसे देखते ही याद आता है,
सूरज का चाँद का चोला ओढ़ लेना
और तन्हा मुस्कुराकर
मौसम पर रीझ जाना
ख़ुद की पलकों से
ख़ुद की पलकों का मिलन
सिर्फ़ आँख के आइने में प्रतिबिम्बित है।
शरीर शांत है,
पलकों में जुंबिश बची है।
बलिश्त सहरा खिलते ही
सीने में अनाम दर्द उठ जाता है
और वह उसे देखता है हर रात,
अंतिम रात की तरह।
3.
युद्ध की आहट,
शोर से ज़्यादा, खामोशी में सुनी जा सकती है।
माँ-बाप की लड़ाई में,
मासूम निगाहें मासूमियत खोती हैं
और दरकता है
बच्चे के भीतर का बच्चा।
बिवाई का दर्द रात में महसूस होता है,
पसीना दूब की तरह उग आता है
और आदमी, व्याकुल आत्मा की तरह,
तफ़रीह करता नज़र आता है।
कुछ नदियों में पानी लबालब होता है
पर, पीने वाला और प्यासा रह जाता है।
4.
सूरज और चाँद में
एक समय में
कोई एक ही खिलता है,
निरन्तर शेष तो, बस परिक्रमा है।
रस्सी पर चलती, सर्कस वाली, लड़की को
नज़र, कई बार
रबड़ की गुड़िया समझ लेती है
तब तक, जब तक वह गलती न कर बैठे।
समंदर अपने भीतर जमा हुए
रत्नों से परेशान है
और बरस कर थके बादल को ताकता है
और बादल उबलते सूरज को।
किसान किस- किस को ताके,
वह इसी सोच से परेशान है।
और इन सारी घटती घटनाओं के बीच
सूरज का समय पर नियंत्रण ढीला पड़ रहा है।
कहानियों में पेड़ किरदार बन जाते हैं, नीम विनम्र हो झुक जाता है, बबूल अपना गुणगान करता है। दो प्रेमी अपनी कहानी इन के बीच गढ़ते हैं । लेखिका का कथ्य और शिल्प सीधी बातों से बचता है। इनका एक अपना ही तरीक़ा है, कहानी गढ़ने का जिसमें, बात थोड़ी घुम कर पाठक तक पहुँचती है। जैसे, झटका को थोड़ा विलम्ब दिया गया हो और फिर वह आप तक पहुँचता है।
कहानियों की शैली, जिज्ञासा का पारा ऊपर रखती है। अगले मोड़ पर क्या होगा पाठक यह सोचते रहते हैं, एक चुहल सी बनी रहती है। सुनीता का कहानी गठन का नज़रिया एकदम अलग है। प्रेम बहुत हौले अबोले आता है। स्पर्श अपनी भाषा रचते हैं, संवाद पर थोड़ा कम ज़ोर होता है। किरदार के संग, आप भी एक अलौकिक ट्रांस से गुजरते हैं। कुल मिलाकर कहें तो, मौन मुखर है, इनकी लेखनी में। इनकी कहानियों में अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं की रचनाओं के इतने सारे संदर्भ हैं जिन्हें अलग से श्रेणीबद्ध किया जाए तो एक लम्बी और अच्छी फ़ेहरिस्त बन सकती है। कुछ-कुछ पंक्तियाँ रोकेंगी आपको, जिनका दर्शन बोध बहुत व्यापक होगा। ‘सारी नदियाँ समंदर नहीं होना चाहतीं’ या ‘अमूमन वर्तमान इतिहास को पछोरता है’ या ‘इंतज़ार मरता नहीं, आँखों में समा जाता है’ या फिर ‘खुले बाल उलझनों को सुलझाने का सटीक माध्यम हैं’ – जैसी पंक्तियाँ एक नए मायने गढ़ती हैं। वे आगे एक जगह लिखती हैं, जब इंसान के दिल में रौशनी न हो तो, वह चरागों के मेले में कुछ हासिल नहीं कर सकता। कहानी के भीतर संदर्भों की कहानी में एक फ़िरकी लेने की खूब कला है, सुनीता की लेखनी में। मुझे इनकी लेखनी से गुजरते हुए अनिल अनलहातु की याद आ गयी, जिनके काव्य संग्रह, ‘बाबरी मस्जिद’ और अन्य कहानियों की समीक्षा लिखते समय, कितने दुर्लभ संदर्भों तक जाना पड़ा था। अनिल भाई ने संदर्भों को वहीं फुटनोट में दर्ज किया था जो, पाठकों के लिए बहुत उपयोगी साबित हुए। सुनीता की कहानी के संदर्भ, इतिहास और संस्कृति दोनों के अद्भुत गठजोड़ हैं, जहाँ- गंगा, अयोध्या, राम और सीता को किम और ह्ग़्रो की कहानियों से जोड़ा गया है। सियोल को अयोध्या, कोरिया को भारत से जोड़ने की बात रखी गयी है और वो भी संदर्भों के साथ। इन संदर्भों की यात्रा कहानी के नेपथ्य को मज़बूती देती है। वर्तमान में अतीत और अतीत में वर्तमान की धुन सुनाई पड़ती है।
लगभग कहानियों में दो देशों के मुख्य किरदार हैं, जिनके बीच के संवाद का पुल, बोली से ज़्यादा संवेदना है। कहानी के भीतर प्याज़ के छिलके की परत लिए छोटी-छोटी समर्थ कहानियाँ चलती हैं। हर कहानी में एक प्रश्न समांतर तिरता है कि प्रेम बचाता है या तबाही लाता है?
भाषा में मुहावरे, शृंखला-से चलते प्रतीत होंगे। जिलेबी की बात ऊपर लिखी है उसे दोहरा रहा हूँ। पढ़ने के बाद उलझन को सुलझाने के लिए थोड़ा टेपरिक़ोर्डर की तरह रिवाइंड करके सुनना पड़ेगा और फिर पंक्तियाँ पंखुड़ियों की तरह खुलेंगी, वरना बंद कमल में कमल गट्टा नहीं दिखता।
मुहावरे यूँ ही नहीं फूटते, वे एक लम्बी श्रम साध्य यात्रा का प्रतिफल हैं। इन कहानियों में रह- रह कर पक्तियाँ मुहावरे में बदल जाती हैं। सम्भवतः ऐसा प्रयोग मुझे किसी और किताब में, इस प्रारूप में, नहीं मिला। कुछ कहानियाँ जैसे – ‘रेत में रूह’ का शिल्प, प्रिय कथाकार पंकज मित्र जैसा है जिसमें, हास्य और कटाक्ष के पुट का बढ़िया सम्मिश्रण मिलता है।
अपने कथ्य शिल्प और भाषा के प्रवाह से सुनीता रह-रह कर आश्चर्य बोध पैदा करने में सक्षम हैं और बार बार इस किताब में वे ऐसा कर दिखाती हैं। एक चित्रकार जब शब्द गढ़े तो उसकी छाया बनती है। यहाँ देशज छाया है जिसके तले कथ्य अपना विस्तार पा रहा है। देशज का प्रयोग निर्गुण की तरह बजता है पर, उसे साधना आसान नहीं, छोटी सी गलती भी भारी पड़ती है।
कहानियों में ऐसे रेशे हैं जो भ्रमित भी करते हैं कि इसकी असली दिशा कौन सी है? असली कोचवान कौन है ? जो इस गाड़ी को हाँक कर ले जाएगा ! और फिर आप पाएँगे, गाड़ी अपने गंतव्य पर खड़ी है।
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!