Wednesday, May 15, 2024
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महात्मा गांधी की पत्रकारिता और पत्रकार-बुद्धि

डॉक्टर राजू रंजन प्रसाद का लेख

हिंदुस्तान के राष्ट्रीय आंदोलन ने राजनीतिज्ञों के साथ-साथ उच्च कोटि के संपादकों की भी एक फौज छोड़ी है। यदि इन संपादकों और पत्रकारों की सूची तैयार की जाए तो जिनके नाम सबसे पहले लिखे जाएंगे वे हैं-एनी बेसेंट, तिलक, लाजपत राय, अबुल कलाम आजाद, मोहम्मद अली और सबसे चमकीले महात्मा गांधी। (सम एमिनेंट इंडियन एडीटर्स, पब्लिकेशन डिवीजन, फरवरी 1981, पृष्ठ 21) ‘नेशनल हेराल्ड’ के प्रसिद्ध संपादक और ‘प्रेस इन इंडिया’ के लेखक एम चेलापति राव के अनुसार महात्मा गांधी एक महान नेता होने के अतिरिक्त विश्व भर में सर्वमान्य पत्रकार भी थे। जिन साप्ताहिकों का उन्होंने संपादन किया, वे संभवतः विश्व के सर्वोच्च साप्ताहिक समाचारपत्रों में से थे। (डॉक्टर मोती लाल भार्गव, आधुनिक भारत के निर्माता : गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रकाशन विभाग, मई 1992, पृष्ठ 31) हालाँकि जवाहरलाल नेहरू ने हमें सावधान करते लिखा है कि ‘गांधीजी के लेख गांधीजी के साथ अन्याय करते हैं। वह जो कुछ लिखते हैं उससे वह खुद कहीं ज्यादा बड़े हैं। इसलिए उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसको उद्धृत करके उनकी आलोचना करने बैठ जाने से उनके साथ पूरी तरह इंसाफ नहीं किया जा सकता।’ (जवाहरलाल नेहरू, आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 716)

गांधीजी मानते थे कि ‘अखबार का एक काम तो है लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना; दूसरा काम है लोगों में अमुक जरूरी भावनाएं पैदा करना; और तीसरा काम है लोगों में दोष हो तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना।’ (हिन्द स्वराज्य, पृष्ठ 23) गांधीजी ने अपने पत्रों में इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रयास में स्वयं को कड़े अनुशासन में रखा, जिनका पालन वे दूसरे संपादकों के लिए आवश्यक नहीं समझते थे, बल्कि उनका यह भी मानना था कि ‘राज्यों के अंतर्गत कुछ बुराइयां पत्रकारिता से जुड़ ही जाती हैं तथा ये जनमत तैयार करने का एक साधन होती है।’ (जे. नटराजन, हिस्ट्री ऑफ इंडियन जर्नलिज्म, पब्लिकेशन डिवीजन, 1955, पृष्ठ 184)

महात्मा गांधी जब बैरिस्ट्री की पढ़ाई के सिलसिले में सन् 1888 में इंग्लैंड पहुंचे तो वे अखबारों की दुनिया से बिल्कुल ही अनजान थे। बाद के दिनों में भी, जब वे आन्दोलन या अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाते थे, अख़बार पढ़ने का कार्य स्थगित कर देते थे. 1945 में नरेंद्र देव को लिखे पत्र में उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘आजकल मैं अख़बार पढ़ता ही नहीं हूँ ऐसा कहा जाय. मेरे लिए जो उपयोगी मानी जाय उसकी कतरनें काट लिये जाते हैं और मेरे सामने रखे जाते हैं.’ (सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, 82, पृष्ठ 41)

विलायत की उनकी पढ़ाई अखबार बांचने से शुरू हुई मानी जा सकती है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘‘अभी पढ़ाई तो आरंभ हुई न थी। ज्यों-त्यों अखबार बांचने लगा था। यह भाई शुक्ल का प्रताप था। हिन्दुस्तान में मैंने कभी अखबार नहीं पढ़ा था; पर सदा पढ़ते रहने के अभ्यास के कारण उन्हें पढ़ने का शौक पैदा कर सका। ‘डेली न्यूज’, ‘डेली टेलीग्राफ’ और ‘पेलमेट गजट’ पत्रों पर नजर डाल लेता।’’ (आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, 1984, पृष्ठ 57)

कहने की जरूरत नहीं कि शुरुआती दौर में गांधीजी अपनी माता के प्रभाव के कारण अन्नाहारी थे। अन्नाहार को लेकर गांधीजी ने ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘द वेजिटेरियन’ में लेख लिखना शुरू किया। दरअसल, गांधी को वकालत की पढ़ाई समाप्त करने के बाद भी कुछ दिनों तक इंग्लैंड में निवास करना था। उनके मित्र होजाया ओल्डफिल्ड ने उन्हें समझाया कि वे ‘द वेजिटेरियन’ में लेख लिखकर इस अवधि के लिए पैसे का जुगाड़ कर सकते हैं। इस तरह गांधी उसमें लिखने के लिए सहमत हुए। किसी लेखक की पहली रचना का कम प्रसार वाली पत्रिका में छपना एक सामान्य बात है किंतु एक नये लेखक का लेखन जगत में प्रवेश लेखमाला (छः किस्तों) के साथ होना तनिक चौंकाने वाली बात है। (रामचन्द्र गुहा, गांधी बिफोर इंडिया, पृष्ठ 48)1890 के फरवरी-मार्च महीने में गांधी के नाम से ‘द वेजिटेरियन’ में कई बाईलाइन छपे।

गांधीजी ने लेखमाला की शुरुआत ‘भारत में जाति व्यवस्था’ के परिचय से की। बाद के एक लेख में उन्होंने एशिया और यूरोप के शाकाहार के मूलभूत अंतरों को रेखांकित किया। गाँधीजी ने बताया कि अंग्रेजों की तरह भारतीय विभिन्न भोज्य पदार्थों को अलग-अलग न खाकर एक साथ मिलाकर खाना पसंद करते हैं। (गुहा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 48) साथ ही भारत के भोजन मसालेदार होते हैं जबकि यूरोपीय सादे और उबले हुए। इन लेखों में गांधीजी ने भोजन से जुड़े कई मिथकों का भी उल्लेख किया। उन्होंने लिखा कि हिन्दू अगर शारीरिक रूप से कमजोर हैं तो इसका कारण यह नहीं है कि उनके भोजन में मांस का कम प्रयोग करते हैं बल्कि इसका कारण बाल-विवाह है। (रामचन्द्र गुहा, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 48) इस कुप्रथा की वजह से लड़कियां 12-13 साल की उम्र में और लड़के 16 साल की उम्र में माता-पिता बन जाते हैं। अन्य कारणों में उन्होंने शराब के सेवन को भी जिम्मेदार बताया। यह भी कहा कि शराब सभ्यता और मानवता की दुश्मन है तथा ब्रिटिश भारत की बड़ी बुराइयों में से है। (वही) कहने की जरूरत नहीं कि बाल-विवाह और शराब के अनुभव गांधी के निजी और भारतीय थे।

ब्रिटेन के बाद दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर महात्मा गांधी ने ‘इंडियन ओपीनियन’ के माध्यम से दक्षिण अफ्रीकी और भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति जागृत करने का कार्य किया। यहाँ महात्मा गांधी ने पत्रकारिता की शुरुआत डरबन में ‘संपादक के नाम पत्र’ लिखकर की थी जब उनसे कोर्ट में पगड़ी उतारने को कहा गया था और उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। इस विरोध के साथ शुरू हुई पत्रकारिता बाद में ‘इंडियन ओपीनियन’, ‘नवजीवन’, ‘हरिजन’ आदि के प्रकाशन तथा और कई अखबारों में लेख लिखने के साथ बढ़ती गई।

‘इंडियन ओपीनियन’ गांधी की पत्रकारिता की पहली प्रयोगशाला बना। यह अखबार श्री मदनजीत के ख्यालों का नतीजा था। उन्होंने गांधी से सलाह और सहायता मांगी। गांधी पत्र निकालने के विचार से सहमत थे। इस तरह भारत से बाहर दक्षिण अफ्रीका में 1903 (भवानीदयाल संन्यासी ने इसका प्रकाशन वर्ष 1903 बताया है। देखें, स्वामी भवानीदयाल संन्यासी, प्रवासी की आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1947, पृष्ठ 45-46) में ‘इंडियन ओपीनियन’ का जन्म हुआ। यह पत्र साप्ताहिक था और अंग्रेजी, तमिल और गुजराती में प्रकाशित होता था। (जे. नटराजन, हिस्ट्री ऑफ इंडियन जर्नलिज्म, पब्लिकेशन डिवीजन, 1955, पृष्ठ 183) मनसुखलाल नाजर उसके संपादक बने, पर संपादन का असली बोझ गांधी पर पड़ा। कारण था कि दक्षिणी अफ्रीका के अटपटे प्रश्नों पर गांधी की उपस्थिति में स्वतंत्र लेख लिखने की उन्हें हिम्मत न हुई। अतः जिन-जिन विषयों पर लिखना होता उन पर लिखने का बोझ गांधी पर डाल देते।

आरंभ में गाँधीजी ने यह नहीं सोचा था कि इस अखबार में उन्हें पैसे भी लगाने पड़ेंगे, किन्तु कुछ ही दिनों में स्पष्ट हो गया कि उनकी आर्थिक मदद के बगैर पत्र का प्रकाशन जारी रहना असंभव है। गांधीजी अखबार के संपादक तो नहीं थे, किन्तु वे ही उसके लेखों के लिए जिम्मेदार थे। इस तथ्य से हिंदुस्तानी और गोरे दोनों अवगत थे। अतः अखबार के बन्द होने से कौम की बदनामी के साथ-साथ कौम का नुकसान भी होता। इस बदनामी और नुकसान से बचने के लिए गांधीजी को प्रतिमाह 75 पौंड की आर्थिक मदद करनी पड़ती थी। गोपाल कृष्ण गोखले को 25 अप्रैल, 1909 को लिखे पत्र में गांधीजी ने लिखा, ’20 अप्रैल तक इंडियन ओपीनियन पर 2500 पौंड का कर्ज था पर संघर्ष की खातिर मैं उसे चलाये जा रहा हूँ।’ (रामशंकर, ‘गांधी की पत्रकारिता की एक झलक’, अंतिम जन, वर्ष 2, अंक 12, दिसंबर 2013, पृष्ठ 47 में उद्धृत) गांधीजी को संतोष था कि ‘इस अखबार ने कौम की अच्छी सेवा की है।’ (आत्मकथा, पृष्ठ 269)

‘इंडियन ओपीनियन’ जब तक गांधीजी के हाथ में था तब तक इसमें जो फेर-फार हुए वह उनके जीवन में होनेवाले परिवर्तनों के सूचक थे। कहा जा सकता है कि अपने समय में यह अखबार गांधीजी के जीवन का निचोड़ था। उसमें वे हर हफ्ते अपनी आत्मा उँड़ेलते थे और वे जिसे सत्याग्रह समझते थे उसे लोगों को समझाने का प्रयास करते थे। 1914 तक के ‘इंडियन ओपीनियन’ का शायद ही कोई अंक होगा जिसमें गांधीजी ने कुछ लिखा न हो। यह लिखना महज लिखना न था बल्कि गांधीजी के ‘सत्य के प्रयोग’ और ‘सत्याग्रह’ की ट्रेनिंग थी। उन्होंने लिखा है, ‘उसमें एक भी शब्द मैंने बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या महज किसी को खुश ही करने के लिए लिखा हो या जान-बूझकर अतिश्योक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता।’ (आत्मकथा, पृष्ठ 269) कहने की जरूरत नहीं कि गांधीजी के लिए यह अखबार ‘संयम की शिक्षा’ बन गया था। ‘संयम’ की यह ‘शिक्षा’ गांधी को जहां कहीं से भी मिलती, अंगीकार करने में संकोच नहीं करते। अपने जीवन के अंतिम दिनों में तोल्सतोय ने गांधीजी को ‘हिन्दू के नाम एक पत्र’ शीर्षक से एक पत्र भेजा था जिसे गांधीजी ने 1909 और 1910 में ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक पत्रिका में अंग्रेजी तथा गुजराती भाषा में प्रकाशित किया। (ए. ए. शिरोमणि, ‘तोल्सतोय और गांधी’, आजकल : जुलाई 2018, पृष्ठ 49)

‘इंडियन ओपीनियन’ में लिखते हुए गांधीजी को न सिर्फ अखबार की ताकत का पता चला बल्कि यह एहसास भी हुआ कि ‘जैसे निरंकुश पानी का बहाव गांव-के-गांव डुबा देता है, और फसल बरबाद कर देता है वैसे ही लेखनी का निरंकुश प्रवाह विनाश करता है। यह अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से ज्यादा जहरीला साबित होता है। भीतर का अंकुश ही लाभदायक हो सकता है।’ गांधी पूछते हैं कि ‘यदि यह विचार-सरणि सही हो तो इस पर दुनिया के कितने अखबार टिकेंगे?’

सैयद अब्दुल्ला ब्रेल्बी के अखबार ‘क्रॉनिकल’ (यह बम्बई के शेर कहे जानेवाले कांग्रेसी नेता फिरोजशाह मेहता द्वारा स्थापित था। देखें, सम एमिनेंट इंडियन एडीटर्स, पृष्ठ 51) में उदयपुर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन की रिपोर्ट छपी थी। रिपोर्ट में लिखा गया था कि ‘पंडित जवाहरलाल ने अच्छा संदेश भेजा था उसे दबा दिया गया और पढ़ा नहीं गया।’ बापू ने लिखा, ‘भाई मुंशी कहते हैं कि ऐसा संदेशा उनके पास आया ही नहीं था, दबाने की तो बात ही क्या।’ (सैयद अब्दुल्ला ब्रेल्बी को गांधी का पत्र, 10/11 नवंबर, 1945, सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, 82, पृष्ठ 58) ‘क्रॉनिकल’ में प्रकाशित लेख गांधीजी को ‘दुर्भावनापूर्ण’ लगा था। मंगलदास पकवासा को स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा, ‘जवाहरलाल का संदेश (हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लिए) वहाँ पहुंचा हो तो भी मुंशी को वह नहीं मिला। बाद में जवाहरलाल के आने पर जब मैंने उससे पूछा तो उसने कहा कि ऐसा कोई संदेश भेजने का ख्याल भी उसे नहीं है। …इससे सार यह निकलता है कि समाचार पत्रों में सचाई बहुत कम होती है और गप्पें ही भरी होती हैं।’ (मंगलदास पकवासा को गांधी का पत्र, 15 नवंबर, 1945, सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, 82, पृष्ठ 83-84)

ब्रेल्बी साहब को नैतिकता का पाठ पढ़ाते लिखा, ‘मैं यह चाहूंगा कि हिन्दोस्तान में एक अखबार तो ऐसा हो कि जिसमें शुरू से आखिर तक सच ही हो, गंदगी न हो और लोग जिसकी इज्जत करें। ऐसा अखबार क्रॉनिकल ही क्यों न हो, जिसका एडीटर ब्रेल्बी है, ब्रेल्बी जो आज एडीटरों की अंजुमन का सरदार है।’ (राजू रंजन प्रसाद, ‘उदयपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन और गांधी’ लेख में उद्धृत; सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, 82, पृष्ठ 58) कहने की जरूरत नहीं कि ‘क्रॉनिकल’ के बारे में गाँधीजी की राय खासी प्रशंसात्मक थी। क्रॉनिकल के सिल्वर जुबली के मौके पर गाँधीजी ने कहा कि “बॉम्बे क्रॉनिकल महज अखबार न होकर एक संस्था है। राष्ट्र के विकास के साथ इसका भी विकास अपेक्षित है।” (सम एमिनेंट इंडियन एडीटर्स, पृष्ठ 63)

‘इंडियन ओपीनियन’ अखबार से गांधीजी को रंग-बिरंगे मनुष्य-स्वभाव को पहचानने का अवसर प्राप्त हुआ। संपादक और ग्राहक के बीच निकट और स्वच्छ संबंध पैदा करना ही गांधीजी का उद्देश्य था, इसलिए उनके सामने दिल खोलकर रखनेवालों के पत्रों का ढेर लग जाता था। उनमें तीखे, कड़वे, मीठे आदि तरह-तरह के लेखों को पढ़ना, विचारना तथा उनमें से विचारों का सार निकालकर जवाब देना-यह गांधीजी के लिए अच्छी शिक्षा हो गई। गांधीजी को अनुभव हुआ मानो ‘वे उसके द्वारा कौम में होनेवाली बातों और विचारों को सुन रहे हैं।’ (आत्मकथा, पृष्ठ 270) इस पूरी प्रक्रिया में गांधीजी को ‘न सिर्फ संपादक की जिम्मेदारी की समझ बनी अपितु कौम के आदमियों पर अधिकार मिला जिससे भविष्य में होनेवाली लड़ाई शक्य और शोभायुक्त हुई और उसमें बल आया।’ (आत्मकथा, पृष्ठ 270)

महात्मा गांधी समाचारपत्रों को किसी भी आंदोलन अथवा सत्याग्रह का आधार मानते थे। उन्होंने कहा था, ‘मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलायी जा सकती। अगर मैंने अखबार निकालकर दक्षिण अफ्रीका में बसी हुई भारतीय जमात को उसकी स्थिति न समझाई होती और सारी दुनिया में फैले हुए भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में क्या कुछ हो रहा है, इसे इंडियन ओपीनियन के सहारे अवगत न कराया होता तो मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता था। इस तरह मुझे भरोसा हो गया है कि अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए अखबार एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन है।’ (रामशंकर, ‘गांधी की पत्रकारिता की एक झलक’, अंतिम जन, वर्ष 2, अंक 12, दिसंबर 2013, पृष्ठ 48 में उद्धृत)

खासकर स्वतंत्रता-पूर्व हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में पत्र-पत्रिकाओं का काफी महत्त्व था। उस समय की पत्रकारिता का लोकमानस पर कितना गहरा प्रभाव था, इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने निम्न शब्दों में अभिव्यक्त करने की कोशिश की है : ‘समाचार पत्रों के शब्दों ने लोगों के बीच गीता, बाइबिल और कुरान का स्थान ले लिया है, उनके लिखे हुए अक्षर ब्रह्म-वाक्य के समान हैं। यहाँ मैं इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा कि यद्यपि इस समय हमारे देश में शिक्षा का प्रतिशत अत्यंत न्यून, अर्थात 10-11प्रतिशत ही था, लेकिन भारतीय मानस अत्यंत सजग था। उसका अपने राजनेताओं तथा अपने समय की पत्रकारिता पर गहरा विश्वास था। समाचार पत्रों में छपे हुए शब्द मौखिक माध्यम द्वारा बड़ी तेजी से लोगों तक पहुंच जाते थे, और उनका पर्याप्त असर होता था।’ (एम के गांधी, माई पिक्चर्स ऑफ फ्री इंडिया, पृष्ठ 211; रामजी मिश्र मनोहर, बिहार में हिंदी पत्रकारिता का विकास, काशी प्रसाद जायसवाल शोध- संस्थान, पटना, 1998, पृष्ठ 222)

गांधी ने अपने पत्रों के माध्यम से सत्य और अहिंसा के न केवल सिद्धान्तों और सन्देशों को आम जन तक पहुंचाया बल्कि उससे संबंधित उलझनों को भी दूर किया। लुई फिशर ने अपनी पुस्तक ‘गांधी की कहानी’ में गांधीजी के ‘यंग इंडिया’ में लिखित एक लेख के उन अंशों को उद्धृत किया है जिसमें हिंसा-अहिंसा की विचिकित्सा करते हुए उन्होंने लिखा है ‘कभी-कभी प्राण हरण भी कर्तव्य हो सकता है। मान लीजिए कि कोई आदमी बदहवास होकर तलवार हाथ में लिए बेतहाशा दौड़ता फिर रहा है, जो सामने आये उसे मार डालता है और उसे जिंदा पकड़ने की किसी में हिम्मत नहीं होती तो उस दीवाने को यमपुरी पहुंचाने वाला समाज की कृतज्ञता का पात्र होगा।’ (लुई फिशर, गांधी की कहानी, पृष्ठ 77; विनोद कुमार सिंह, मृत्युंजय सूरज नारायण सिंह, के पी जायसवाल शोध संस्थान, पटना, 2011, पृष्ठ 151 में उद्धृत)

पत्रकारिता को सत्याग्रह का प्रमुख साधन बनाने का श्रेय महात्मा गांधी को ही था। इस प्रसंग में गांधीजी द्वारा 7 अप्रैल 1919 को प्रकाशित ‘सत्याग्रही’ पत्र ने स्वतंत्रता संग्राम में एक नए अध्याय का सूत्रपात किया। इसके माध्यम से महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने के लिए विस्तृत निर्देश दिए। तदनुसार, जब्तशुदा पुस्तकें तथा अपंजीकृत समाचारपत्र बेचने के सत्याग्रह का श्रीगणेश होना था। जब महात्मा गांधी ने स्वयं इसका क्रियान्वयन किया तो उसे उदाहरण मानकर उत्तर प्रदेश में तथा अन्य प्रान्तों में अन्य समाचारपत्रों के संपादकों ने भी उसका अनुकरण किया। (मोती लाल भार्गव, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 31)

भारत लौटकर भी महात्मा गांधी ने पत्रकारिता का अपना सफर जारी रखा। भारत में उन्होंने ‘बाम्बे क्रॉनिकल’ तथा ‘सत्याग्रही’ समाचार-पत्र निकाले, किन्तु वे 10-15 दिनों तक ही इनका दायित्व संभाल सके। ‘सत्याग्रही’ नामक बुलेटिन का प्रकाशन 7 अप्रैल 1919 में बम्बई, लैबर्नम रोड, गामदेवी से हुआ। (एस एन भट्टाचार्य, महात्मा गांधी : द जर्नलिस्ट, एशिया पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे, 1965, पृष्ठ 34) पत्र में प्रति सोमवार को प्रकाशन की घोषणा थी। साथ ही गांधीजी ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि ‘हम इस बात का कोई यकीन नहीं दिला सकते कि अखबार नियमित रूप से निकलता रहेगा, क्योंकि संपादक के किसी भी क्षण गिरफ्तार होने की संभावना है। किंतु इस बात की कोशिश जरूर करेंगे कि एक संपादक की गिरफ्तारी के बाद दूसरा संपादक इसकी जिम्मेदारी लेता जाए। इसे हम यथासंभव तब तक चलाते रहेंगे जब तक रौलट एक्ट वापस नहीं ले लिया जाता।’

इन पत्रों के बन्द होने के बाद महात्मा गांधी ने ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ दो समाचार-पत्र सितंबर 1919 में निकाले. ‘यंग इंडिया’ दरअसल बम्बई के होम रूल लीग के लोगों द्वारा शुरू किया गया था जिसके संपादक जमनादास थे। (जे. नटराजन, पृष्ठ 183) 8 अक्तूबर 1919 को गाँधीजी ने ‘यंग इंडिया’ के संपादन का दायित्व स्वीकार किया। इसके साथ ही उन्होंने नवजीवन का संपादन-कार्य भी शुरू कर दिया, जिसे उन्होंने गुजराती मासिक से साप्ताहिक पत्र में परिवर्तित कर दिया था। (जे. नटराजन, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 183) अब ‘यंग इण्डिया’ और ‘नवजीवन’ दोनों साप्ताहिक पत्रिकाएं थीं जिनके संस्थापक स्वामी आनंद थे. (रवीन्द्र केलेकर, आधुनिक भारत के निर्माता : काका साहब कालेलकर, प्रकाशन विभाग, 1990, पृष्ठ 347)

1922 में गांधीजी के गिरफ्तार होते ही महादेवभाई भी गिरफ्तार कर लिए गए और ‘यंग इंडिया’ तथा ‘नवजीवन’ चलाने की जिम्मेदारी स्वामी आनंद पर आ पड़ी. ‘यंग इण्डिया’ के लिए उन्हें राजाजी-चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, जयराम दास दौलतराम तथा जार्ज जोसेफ की मदद मिली तो ‘नवजीवन’ के लिए काका साहब कालेलकर की. थोड़े ही दिनों में स्वामी भी गिरफ्तार कर लिए गए. तब ‘नवजीवन’ की पूरी जिम्मेदारी काका को उठानी पड़ी. 1922 के 4 जून के अंक से लेकर 1923 की फ़रवरी के अंत तक के अंकों में काका के लेखों की बाढ़ देखी जा सकती है. (रवीन्द्र केलेकर, आधुनिक भारत के निर्माता : काका साहब कालेलकर, प्रकाशन विभाग, 1990, पृष्ठ 348)

फरवरी 1922 में महात्मा गांधी ने ‘नवजीवन’ में ‘बलिया में दमन’ शीर्षक से एक लेख लिखा। यह लेख असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी-चौरा कांड होने के बाद बलिया समेत अनेक ज़िलों में किए जा रहे दमन के बारे में था। ‘नवजीवन’ में यह लेख चौरी-चौरा की घटना के पाँच दिनों बाद 9 फरवरी 1922 को छपा था। बलिया और वहाँ के लोगों के बारे में महात्मा गांधी इस लेख में लिखते हैं : ‘बलिया संयुक्त-प्रांत का एक गरीब ज़िला है। वहाँ के लोग उत्साही, सीधे-सादे और भोले हैं। वे देशभक्त हैं। मैंने कई बार वहाँ जाने का प्रयत्न किया, परंतु जा नहीं सका। वह बिहार की सरहद पर है; इससे वहाँ के लोग बिहारियों से अधिक मिलते-जुलते हैं।’ (सम्पूर्ण गांधी वांगमय, खंड 22)

‘मर्यादा’ में सत्यभक्त ने ‘महात्मा गांधी के जीवन पर एक दृष्टि’ (मई 1918) शीर्षक से एक लेख लिखा था। इन्हीं दिनों सत्यभक्त को ‘हिन्दी नवजीवन’ निकालने के लिए गांधीजी का आमंत्रण मिला। वे वहाँ गये भी लेकिन तब तक असहयोग आंदोलन में इतनी तेजी आ गई थी कि गांधीजी की राजनीतिक सक्रियता बेहद बढ़ गई। ऐसे में ‘हिन्दी नवजीवन’ की प्रकाशन-योजना को आगे बढ़ाना पड़ गया था। (कर्मेंदु शिशिर, सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी, लोकमित्र प्रकाशन, 2010, पृष्ठ 19)

जब स्वराज पार्टी सत्ता में थी तो ‘यंग इंडिया’ का प्रकाशन कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया था। (जे नटराजन, पूर्वोद्धृत) पाठकों को ‘यंग इंडिया’ के पृष्ठ काफी सुसज्जित दिखाई पड़ते हैं तथा कभी-कभी रोम्यां रोलां को यह कहना पड़ता था कि वह बूढ़ा व्यक्ति कितना सुंदर है। गांधी इस सुंदरता के पीछे छिपे श्रम को प्रकट करने से अपने को रोक नहीं पाते। वे लिखते हैं : “अच्छा है कि दुनिया समझे कि वह सुंदरता बहुत करीने से सावधानीपूर्वक गढ़ी गई है। यदि वह ऐसे कुछ लोगों को स्वीकार हो गया हो जिनके विचारों की मैं कद्र करता हूँ, तो पाठक यह समझ सकते हैं कि जब कभी इस चारुता में कुछ भी रुखा या कड़वापन रहा हो, चाहे वह क्षणिक ही क्यों न हो, मेरी अहिंसा संसार के सभी संवेदनशील व्यक्तियों को प्रभावित करेगी। मैंने अपने तथा पाठकों के समक्ष किसी असंभव विचार या परीक्षा को नहीं रखा है।” (जे नटराजन)

महात्मा गांधी की पत्रकारिता ने गुजराती गद्य को एक नई शक्ति प्रदान की। उन्होंने अपने शब्दों को अनेक स्रोतों से ग्रहण किया था। उनकी शैली यद्यपि कभी-कभी गठन में ढीली होती थी लेकिन वह प्रत्यक्ष, स्पष्ट तथा सुबोध होती थी, जो सूक्ष्म विचार-विमर्श तथा कुतर्क के भ्रामक प्रयोग से बचने के अनवरत प्रयास का परिणाम थी। अनुपात के प्रति स्वाभाविक सजगता के कारण उनकी अभिव्यक्ति तथा कल्पनाशक्ति में उपयुक्त संतुलन बना रहता था। के एम मुंशी ने गुजराती भाषा के विकास में गांधीजी, विशेषकर नवजीवन के योगदान का लेखा-जोखा अपनी पुस्तक ‘गुजरात एंड इट्स लिटरेचर’ में निम्नलिखित शब्दों में उद्धृत किया है : “गांधीजी 1932 में इसका प्रकाशन बन्द होने तक साप्ताहिक के संपादक रहे तथा इस दौरान जब वह जेल में थे, उस अवधि को छोड़कर, उन्होंने गुजरातियों के समक्ष अपने विचारों तथा सिद्धांतों, अपनी शिक्षा तथा लड़ाई के ढंग को प्रस्तुत किया। संसार में किसी अन्य समाचार पत्र को इस प्रकार की लोकप्रियता तथा अपने क्षेत्र में इस प्रकार का महत्व नहीं प्राप्त हुआ था, जितना इस छोटे, सरल समाचार पत्र को प्राप्त हुआ। हालांकि इस पत्र ने न तो कभी भड़काऊ खबर छापी, और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित किया। बहुत सारे लोगों की रुचि उपन्यास तथा पुराणों के बजाए, इस पत्र में हो गई थी। इस साप्ताहिक पत्र की एक प्रति सुदूरवर्ती गांव के लिए एकमात्र पत्रिका तथा जीवन-दर्शन होती थी।” (जे नटराजन, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 183-84 में उद्धृत) सन 1932 में गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद इनका प्रकाशन बन्द हो गया।

डॉक्टर अम्बेडकर ने 24 नवम्बर, 1930 में ‘जनता’ पत्र की स्थापना करके मंदिर प्रवेश, अस्पृश्यता उन्मूलन तथा अंतरजातीय विवाह आदि प्रश्नों को राष्ट्रव्यापी बहस का विषय बना दिया था। 1932 में गाँधीजी की गिरफ्तारी के बाद ‘यंग इंडिया’ का प्रकाशन बंद हो चुका था। अतः जेल से छूटने के बाद गांधीजी ने ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक समाचार-पत्र महादेव देसाई के संपादन में निकाला, हालांकि इस पत्र में ज्यादा लेख स्वयं गांधीजी द्वारा लिखे जाते थे। (जे नटराजन, पूर्वोद्धृत) कुछ लोगों का मानना है कि ‘हरिजन’ अम्बेडकर के ‘जनता’ पत्र की प्रतिक्रिया में शुरू किया गया था। (डॉक्टर तेज सिंह, आज का दलित साहित्य, अतिश प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 107) ‘हरिजन’ का प्रकाशन 11 फरवरी, 1933 से प्रारम्भ होकर जीवनपर्यंत जारी रहा “केवल 1 नवम्बर, 1945-19 जनवरी, 1946 के दौरान ‘हरिजन’ साप्ताहिक का प्रकाशन स्थगित रहा और गांधीजी का ज्यादातर लेखन असंख्य पत्रों के उत्तर देने तक ही सीमित रहा.” (सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, 82, पृष्ठ सात) 8 जनवरी 1933 को जी डी बिड़ला को पत्र लिखकर ‘हरिजन’ का अंग्रेजी संस्करण पूना से निकालने की बात तय हुई। फलस्वरूप 11 फरवरी 1933 को अंग्रेजी ‘हरिजन’ का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ जिसमें हरिजनोद्धार हेतु मंदिर प्रवेश पर रिपोर्टिंग की गई थी। (डी एन प्रसाद, स्वतंत्रता संग्राम और गांधी की पत्रकारिता, आजकल : अगस्त 2014, पृष्ठ 7)

गांधीजी द्वारा प्रकाशित ‘हरिजन’ के पहले अंक को भेजे गए अपने संदेश में अम्बेदकर ने कहा, “मैं कोई संदेश नहीं दे सकता। अन्त्यज वर्ण-व्यवस्था की देन है। जब तक वर्ण-व्यवस्था का अस्तित्व रहेगा तब तक अन्त्यज रहेंगे और वर्ण-व्यवस्था के विद्यमान रहते अन्त्यजों की मुक्ति सम्भव नहीं।” (डी जी तेंदुलकर, महात्मा गांधी, भाग 4, पृष्ठ 236; डब्ल्यू एन कुबेर, आधुनिक भारत के निर्माता : भीमराव अम्बेडकर, प्रकाशन विभाग, 2013, पृष्ठ 40 में उद्धृत) इस पर गांधीजी ने उत्तर दिया, “अस्पृश्यता वर्ण-व्यवस्था की देन नहीं है, बल्कि ऊंच-नीच की भावना है जो हिन्दू धर्म में फैल गई है और इसे खाए जा रही है। अस्पृश्यता निवारण ऊंच-नीच की भावना पर हमला है। मौजूदा संयुक्त संघर्ष का उद्देश्य केवल अस्पृश्यता निवारण तक सीमित है।” अम्बेदकर के विचारों से कांग्रेस के उदारवादियों ने सहमति व्यक्त की जिनमें नेहरू जी भी थे। गांधीजी चाहते थे कि हिंदू समाज से अस्पृश्यता मिट जाए और मौलिक चतुर्वर्ण व्यवस्था कायम रहे। गांधीजी का आशय यह था कि जाति प्रथा कायम रहे पर प्रारंभिक काल की तरह समाज केवल विशद चार वर्णों में ही विभाजित रहे। (जी एस घुर्ये, कास्ट एन्ड रेस इन इंडिया, पृष्ठ 182-195) इस तरह गांधी वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा को एक मानते थे और अस्पृश्यता उससे भिन्न थी यानी उनकी पैदा की हुई चीज नहीं थी। यही वजह है कि गांधी अस्पृश्यता-उन्मूलन यानी छुआछूत को दूर करने की बात तो करते थे पर वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा का समर्थन करते थे क्योंकि वे उसे हिन्दू समाज की संरचना का मूलाधार मानते थे। (डॉक्टर तेज सिंह, पूर्वोद्धृत)

मार्च 1936 में जात पात तोड़क मंडल के अम्बेडकर के अध्यक्षीय भाषण के उत्तर में गांधीजी ने अपने ‘हरिजन’ में तीन लेख लिखे। उन्होंने लिखा, “डॉक्टर अम्बेडकर हिन्दू समाज के लिए एक चुनौती हैं।” (हरिजन, 11/7/1936) आगे उन्होंने लिखा, “धर्म का विद्वता से कोई संबंध नहीं है, यह संत-महात्माओं के अनुभवों और उपदेशों में मिलता है। जाति का इससे कोई नाता नहीं है।” (वही, 18/7/1936) उन्होंने यह भी कहा कि “शास्त्रों की व्याख्या करना संतों का काम है, विद्वानों का नहीं।” अम्बेडकर को इस पर एतराज था। वे कहते थे कि अभी तक किसी भी संत ने जाति प्रथा की निंदा नहीं की है बल्कि वे तो घोर जाति समर्थक थे। इस संबंध में उन्होंने ज्ञानदेव और एकनाथ का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि इन संतों ने जातिवाद या छुआछूत के विरुद्ध मोर्चा कभी नहीं बांधा। उन्होंने मानव और मानव के बीच संबंधों पर मौन रखा। (अम्बेडकर, ए रिप्लाई टू महात्मा, पृष्ठ 14; डब्ल्यू एन कुबेर, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 85)

गाँधीजी को किसी भी प्रश्न का दूसरा पक्ष मालूम होते ही अपना मत उचित दिशा में मोड़ने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था। जुलाई 1937 में विधानसभा का अधिवेशन आरंभ होने के बाद अध्यक्ष के रूप में जी वी मावलंकर को कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने पड़े थे जिनमें से एक विषय के बारे में पूना के ‘सर्वेंट ऑफ इंडिया’ में एक आलोचना छपी। उसके समर्थन में ‘हरिजन’ में एक लेख आया। मावलंकर को लगा कि ‘हरिजन’ में प्रकाशित लेख के कारण कांग्रेस वालों को विधानसभा के कानून की मर्यादा में रहते हुए काम करने में कितनी कठिनाइयां हैं, यह बात उन्हें गांधीजी को बतानी चाहिए। यह भी कि ‘सर्वेंट ऑफ इंडिया’ की आलोचना किस प्रकार उचित नहीं है। तदनुसार मावलंकर ने सविस्तार गांधीजी को एक पत्र लिखा। गाँधीजी ने तत्काल ही हरिजन के अगले अंक में संपादकीय टिप्पणी लिखकर मामला स्पष्ट किया। (जी वी मावलंकर, मेरे संस्मरण, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1958, पृष्ठ 109)

दरअसल अंग्रेजी के माध्यम से गांधीजी अंग्रेज शासकों के साथ-साथ पूरी दुनिया के सामने अपना संदेश स्पष्ट कर देना चाहते थे। इसीलिए ‘हरिजन’ का अंग्रेजी संस्करण हिन्दी ‘हरिजन सेवक’ से पहले आया। हिंदी में ‘हरिजन सेवक’ का प्रथम अंक 23 फरवरी 1933 को प्रकाशित हुआ। स्वतंत्रता का संदेश हरेक हरिजन के घर में पहुंचना चाहिए, ‘हरिजन सेवक’ इसी का परिणाम था। (बी आर नंदा, महात्मा गांधी : एक साथ जीवनी, सस्ता साहित्य मंडल, 1995, पृष्ठ 252)

दिल्ली से प्रकाशित ‘हरिजन सेवक’ गांधीजी के सपनों के भारत का प्रतिबिंब बना तो ‘हरिजन’ का गुजराती संस्करण ‘हरिजन बंधु’ गाँधीजी के क्षेत्रीय जागरण का संदेश। चूंकि भाषायी पत्रकारिता का जनता पर सीधा असर होता है, इसलिए देश में स्वतंत्रता की भावना जागृत करने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। (अरुण टिकेकर, नूतन सबेरा (साप्ताहिक), बम्बई, 30 अक्तूबर 1994) यही कारण है कि हिन्दी, अंग्रेजी तथा गुजराती की तरह गांधीजी ने 1 मई 1946 को ‘उर्दू हरिजन’ का भी प्रकाशन किया। ‘हरिजन’ तथा ‘हरिजन सेवक’ अपनी स्थापना से स्वराज्य प्राप्ति तक इतिहास के साक्षी और समर्थ साप्ताहिक मुखपत्र रहे। (हरिजन सेवक (अंतिम अंक), 25/2/1956)

गाँधीजी ने 8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो’, ‘करो या मरो’ का क्रांतिकारी नारा दिया। ‘हरिजन’ इस आंदोलन का मुखपत्र बन गया। अंग्रेजों के समाचार पत्र नियंत्रक कानून के अंतर्गत 1933 से अब तक की सारी ‘हरिजन’ फाइलें जलाने का आदेश निर्गत हो गया। तब गांधी आगा खां महल में नजरबंद थे। 6 मई 1944 को रिहा होने के बाद पुनः 10 फरवरी 1946 को ‘हरिजन’ का प्रकाशन शुरू हुआ किन्तु जुलाई 1947 में गांधीजी ने सरदार पटेल को पत्र लिखकर ‘हरिजन’ आदि पत्रों का प्रकाशन बंद करने का सुझाव देते हुए कहा कि अब हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो रहे हैं इसलिए हमारे साप्ताहिकों की जरूरत नहीं है। (भवानी प्रसाद मिश्र, हिंदी पत्रकारिता : विविध आयाम, भाग 1, हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ 386) बापू की मृत्यु के बाद ‘हरिजन’ का अंतिम अंक 15 फरवरी 1948 में सी राजगोपालाचारी के संदेश के साथ आया, अब वे नहीं रहे, अतः हरिजन का प्रकाशन अब दिशाहीन हो जायेगा। (एस एन भट्टाचार्य, गांधी : द जर्नलिस्ट, एशिया पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे, 1965, पृष्ठ 69)

गाँधीजी ने ‘हरिजन’ का संपादन-प्रकाशन तुलनात्मक रूप से छोटे स्तर पर किया था, क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इस प्रतिबन्ध को स्वीकार कर लिया था कि ‘वे हरिजन-सेवा तक सीमित रहेंगे और ‘राजनीति-विषयक सामग्री’ से दूर रहेंगे. इस कारण ‘हरिजन’ अस्पृश्यता-निवारण और उसके आन्दोलन तक ही सीमित रहा. गांधीजी को अपना पत्र कई बार बन्द करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीतियों के आगे न कभी झुके, न कभी थके। गिरफ्तारी और सेंसरशिप लगने से उनके पत्र बन्द अवश्य हुए, लेकिन मौका मिलते ही पुनः उसके प्रकाशन में जुट जाते थे।

गाँधी एक पराधीन राष्ट्र के नागरिक थे. राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति ही पराधीन भारत की पत्रकारिता की एकमात्र मांग हो सकती थी. ‘हिन्द स्वराज’ में गाँधी इस बात को स्पष्टता के साथ रेखांकित कर चुके थे. ‘यंग इण्डिया’ के 3 अप्रैल, 1924 के अंक में गाँधी लिखते हैं : ‘मैं भारत की आजादी के लिए प्रयत्न क्यों कर रहा हूँ? इसलिए कि मेरा स्वदेशी धर्म मुझे सिखाता है कि इस देश में मेरा जन्म हुआ है. इस देश की संस्कृति मुझे विरासत में मिली है, इसलिए मैं अपनी माता की सेवा करने का ही अधिक-से-अधिक पात्र हूँ और मेरी सेवा पर पहला हक़ इस जन्म-भूमि का है, परन्तु मेरी स्वदेश-भक्ति मुझे दुसरे देश की सेवा से विमुख नहीं करती.’ (सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 23, पृष्ठ 363) यह स्वदेशी आंदोलन चरखा के बगैर असंभव था बल्कि कहिए कि गांधीजी के राजनीतिक आंदोलन में चरखा को केंद्रीय महत्त्व प्राप्त है। पंजाब के ग्रामीण जीवन में चरखा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए गांधीजी ने लिखा था : ‘पंजाब की सुंदर स्त्रियों ने अभी तक उंगलियों की कला का सर्वनाश नहीं होने दिया, इसके लिए हमें भगवान को धन्यवाद देना चाहिए। अधिक हो चाहे कम, चरखे की कला स्थापित है।’ (यंग इंडिया, 10 दिसंबर 1919)

नमक सत्याग्रह शुरू होने के पहले लॉर्ड इरविन ने एक भाषण दिया था, उसके जवाब में गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में एक लेख लिखकर बताया था कि यदि सरकार कुछ शर्तों का पालन करे तो देश के लिए सविनय कानून-भंग करने का कोई कारण न रह जाय। वे शर्तें थीं : ‘(1) सम्पूर्ण मद्य-निषेध (2) रुपये की कीमत डेढ़ शिलिंग के बदले एक शिलिंग चार पेन्स की जाय। (3) लगान पचास फीसदी कम किया जाय और उसे सोलहों आना धारा-सभा के अंकुश में रखा जाय। (4) नमक-कर रद्द किया जाय, (5) सैनिक खर्च कम किया जाय, फिलहाल आधा कर दिया जाय, (6) लगान-कमी की पूर्ति बड़े अधिकारियों की तनख्वाह पचास फीसदी कम करके की जाय, (7) विदेशी कपड़े पर बहिष्कार-कर लगाया जाय, (8) समुद्र-तट पर देशी जहाजों के चलने का कायदा बनाया जाय, (9) हिंसा-काण्ड के अपराध के सिवा शेष सब राजनैतिक कैदियों को छोड़ दिया जाय, तमाम राजनैतिक मुकदमे वापस लिये जायं; 124 अ धारा, और 1818 का कानून रद्द किया जाय और जिन्हें देश-निकाला दिया गया है उनके लिए दरवाजा खोल दिया जाय, (10) खुफिया विभाग बन्द कर दिया जाय या लोक-नियंत्रण में रखा जाय और (11) आत्मरक्षा के लिए बंदूक आदि रखने का परवाना दिया जाय और इस विषय को लोक-नियंत्रण में रखा जाय।’ (नेहरू, आत्मकथा, सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 302 पर अनुवादक की टिप्पणी)

गाँधी का मत था कि पत्रकारिता निःस्वार्थ भाव से देश की सेवा के लिए होनी चाहिए. कहने की जरुरत नहीं कि शायद इसीलिए ‘नवजीवन का उद्देश्य स्वराज्य-प्राप्ति है.’ (सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 41, पृष्ठ 220) ‘नवजीवन’ भारतीय भाषा गुजराती में और बाद में हिंदी आदि भाषाओं में निकलता था. गाँधी मानते थे कि ‘अंग्रेजी में अख़बार निकालना उनके लिए कोई प्रसन्नता की बात नहीं है, लेकिन वे उसे छोड़ नहीं सकते क्योंकि अंग्रेज मानते हैं कि उनकी अंग्रेजी में कुछ खूबी है और पश्चिम से भी उनका सम्बन्ध बढ़ा है.’ (सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 90, पृष्ठ 427) ‘यंग इण्डिया’ के प्रवेशांक (8 अक्तूबर, 1919) में गाँधी ‘देश की सेवा’ और ‘पत्रकारिता की शुद्धता’ के बहाने उसके उद्देश्य पर बल देते हुए लिखते हैं : ‘‘यह व्यक्तियों के प्रति होनेवाले अन्यायों की और ध्यान आकृष्ट करने का अपना कर्तव्य तो निभाएगा ही, साथ ही रचनात्मक सत्याग्रह की और से शक्ति लगाएगा. गाँधी ऐसे समाचार-पत्रों को ‘राष्ट्रवादी अख़बार’ कहते हैं और अपनी पत्रकारिता को ‘स्वदेश-धर्म’ जो भारत-माता की सेवा का अधिकार देता है.’’ (सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 84 खंड 23, पृष्ठ 363)

गांधीजी का समाचारपत्रों के संपादकों पर एक सशक्त प्रभाव था तथा वह प्रायः उनके (गांधी के) विचारों या कांग्रेस की नीतियों का समर्थन किए बगैर अपने विचारों को निर्भीकतापूर्वक अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित किया करते थे। गांधीजी की उनसे सदैव यही अपील होती थी कि उन्हें अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी चाहिए। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के सम्बंध में भारतीय प्रेस के प्रति अपनी प्रतिक्रिया में गांधीजी ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा था : “भारतीय प्रेस ने कांग्रेस के संकल्प के प्रति जिस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, मुझे उस पर गर्व है। इसकी अंतिम परीक्षा अभी होनी है। मुझे विश्वास है कि तब प्रेस निर्भीकतापूर्वक राष्ट्रीय उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करेगा। दमन की भावना से ग्रस्त होकर समाचार पत्रों को निकालने से अच्छा है, समाचार पत्रों को न निकालना। इसके अलावा, मैं चाहता हूं कि वे कांग्रेस के अंध समर्थक न बनें तथा वे वही काम न करें, जो उनके विवेक या अंतरात्मा के विरुद्ध हो। राष्ट्रीय संस्थाओं तथा राष्ट्रीय नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हित को कभी नुकसान नहीं होगा। साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने के खतरों के खिलाफ हमें सावधान रहना है। यदि भावी आंदोलन से ब्रिटिश लोगों के साथ साम्प्रदायिक सद्भावना तथा शांति स्थापित नहीं हो पाती है, तो इस आंदोलन का कोई अर्थ नहीं होगा।

दिलचस्प है कि पत्रकारिता को आंदोलन का हथियार बनानेवाले गांधी ने 1917 के चंपारण आंदोलन के समय ‘अपने साथियों को अखबारी बयानबाजी करने से मना किया’ था। उन्होंने लिखा है, ‘‘मैंने अपने साथियों को अखबारी बयानबाजी करने से मना कर दिया है। संपादकों से भी कह रखा है कि उनको अपने प्रतिनिधि भेजने की जरुरत नहीं है। सो आज फैसला आने के बाद अपना पक्ष रखते हुए पहली प्रेस विज्ञप्ति जारी की। देखें, कल अखबारों में क्या छपता है।’’ (चंपारण की डायरी, प्रभात खबर, पटना, 21/4/2017)

गाँधीजी के अखबार में विज्ञापन नहीं होते थे। उसका व्यापक प्रचार-प्रसार था। अक्सर उनके लेख न्यूज एजेंसियों के माध्यम से विभिन्न अखबारों को भेजे जाते थे जो उसी दिन या बाद के दिनों के संस्करणों में प्रकाशित होते थे। (जे. नटराजन, पृष्ठ 183) महात्मा गांधी तत्कालीन समाचार-पत्रों में विज्ञापन पर तीखी टिप्पणी करते हैं। वे विज्ञापन को एक समाचार-पत्र में सरोकारीय पत्रकारिता का बाधक मानते हुए लिखा है कि ‘‘मैं समझता हूं कि समाचार-पत्रों में विज्ञापन का प्रकाशन बंद कर देना चाहिए। मेरा विश्वास है कि विज्ञापन उपयोगी अवश्य है, लेकिन विज्ञापन के माध्यम से कोई उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। विज्ञापनों का प्रकाशन करवाने वाले वे लोग हैं जिन्हें अमीर बनने की तीव्र इच्छा है। विज्ञापन की दौड़ में हर तरह के विज्ञापन प्रकाशित होने लगे हैं जिनसे आय भी प्राप्त होती है। आधुनिक नागरिकता का यह सबसे नकारात्मक पहलू है जिससे हमें छुटकारा पाना ही होगा। हमें गैर-आर्थिक विज्ञापनों को प्रकाशित करना होगा जिससे सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। लेकिन इन विज्ञापनों को भी कुछ राशि लेकर प्रकाशित करना चाहिए। इसके अलावा अन्य विज्ञापनों का प्रकाशन तत्काल बन्द कर देना चाहिए।’’ (इंडियन ओपीनियन, 4 सितंबर 1912)

हाँ, उद्देश्य अगर पवित्र हो तो उसका विज्ञापन और प्रचार-प्रसार गांधीजी मुनासिब मानते थे और उनका तरीका भी जुदा होता था। उन्होंने लिखा, “प्रति सप्ताह ‘नवजीवन’ की 35, 000 प्रतियाँ बिकती हैं। एक प्रति पढ़नेवालों की संख्या कम से कम तीन मान लें तो 105000 पाठक हुए। मैं उनकी परीक्षा लेना चाहता हूँ। यदि उन्हें कांग्रेस का कार्य पसंद हो तो वे अपना कर ‘नवजीवन’ की मार्फ़त भेज दें या यह भी हो सकता है कि ‘नवजीवन’ के पाठक अपने मित्रों से-अपरिचितों से नहीं-कर इकट्ठा कर लें और फिर स्वयं उसे ‘नवजीवन’ के दफ्तर को भेज दें। पहुंच की सूचना ‘नवजीवन’ में प्रति सप्ताह प्रकाशित होती रहेगी और वह रकम प्रांतीय कमेटी के मंत्री को पहुंचा दी जायेगी।” (सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड 23, प्रकाशन विभाग, 1967, पृष्ठ 13)

गांधीजी पत्रकारिता के मामले में प्रायः ही ‘पत्रकार–बुद्धि’ और ‘विवेक’ की बात करते थे. वे मानते थे और कठोरतापूर्वक पालन भी करते थे कि ‘सनसनी फैलाना एक पत्रकार का उद्देश्य नहीं होना चाहिए’. वर्ष 1945 में एक पत्रकार ने महात्मा जी से कहा, ‘आपने जो कुछ कहा है, क्या हम उसे प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं?’ महात्मा जी ने हँसते हुए कहा : ‘‘आप उस पर मनन कीजिए, उसे पचाइए, उसके तत्वों को ग्रहण कीजिए. आप अपनी ‘पत्रकार-बुद्धि’ का प्रयोग करें तो आप देखेंगे कि मैंने जो चीज आपको दी है वह कोई सनसनी पैदा करने के लिए नहीं है.’’ (सम्पूर्ण गांधी वाङ्गमय, 82, पृष्ठ 155) एक अन्य पत्रकार ने वर्धा से शुरू होनेवाली उनकी यात्रा के बारे में पूछा तो गांधीजी ने अपनी लोकप्रसिद्ध हाजिरजबाबी का परिचय देते हुए विनोदपूर्वक कहा : ‘आप मेरे साथ यात्रा करते आ रहे हैं, और यदि आपकी सहज “पत्रकार-बुद्धि” इस प्रश्न का उत्तर नहीं देती तो आपको अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए और जीवन में कोई दूसरा अधिक उपयोगी काम करना चाहिए.’ (सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, 82, पृष्ठ 155)

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