युवा आलोचक पल्लवी प्रकाश की पांडेय जी की आलोचना दृष्टि पर एक टिप्पणी।पांडेय जी दिनकर और अज्ञेय के संदर्भ में किस तरह सोचते थे यह इस लेख से पता चलता है।पल्लवी जेएनयू में उनकी छात्रा रही हैं।
मैनेजर पाण्डेय उन दुर्लभ आलोचकों की परम्परा में से आते हैं, जिन्होंने हिंदी आलोचना की संभावनाओं का विस्तार किया है. घोषित रूप से मार्क्सवादी आलोचक होते हुए भी वे अपनी विचारधारा को अपनी आलोचना दृष्टि पर कभी भी हावी नहीं होने देते. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है उनके द्वारा किया गया दिनकर और अज्ञेय का मूल्यांकन. पाण्डेय जी के अनुसार दिनकर और छायावादोत्तर कवियों ने चार काम एक साथ किये, एक तो काव्य-भाषा को बोलचाल की भाषा के करीब के आये, दूसरा काम यह किया कि जीवन की सच्ची अनुभूतियों की -अभिव्यक्ति कविता में शुरू की, तीसरा काम किया, कविता आसानी से समझ में आ सके, ऐसी भाषा और शैली में लिखना शुरू किया. चौथा काम यह कि स्वच्छ अभिव्यक्ति, ऐसी अभिव्यक्ति जो कहीं भी दुराव-छिपाव को महत्व नहीं देती है, को कविता में स्थान दिया. इन चारों काम का एक परिणाम हुआ कि कविता जनता से जुड़ी, जनता ने कवियों का स्वागत करना शुरू किया.
दिनकर को मैनेजर पाण्डेय ने स्वाधीनता आन्दोलन का कवि माना है. दिनकर के काव्य में राजनीतिक चेतना के साथ-साथ पाण्डेय जी उद्दाम प्रेम की मौजूदगी की भी बात करते हैं. मार्क्सवादी आलोचकों में से रामविलास शर्मा को छोड़कर अधिकाँश ने दिनकर की उर्वशी की कठोर आलोचना की है, जिसका उल्लेख पाण्डेय जी करते हैं. उर्वशी का सम्बन्ध भारतीय साहित्यिक परम्परा और प्रगतिशीलता से जोड़ते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, “ उर्वशी को ठीक से पढ़िए तो उसमें चार-पांच परम्पराएं एक साथ दिखाई देंगी. इसकी जांच-परख की जरूरत है. उसको पढ़िए तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उर्वशी की याद आएगी , अरविन्द की उर्वशी की याद आएगी, विक्रमोर्वशीयम याद आएगा. उसकी संरचना देखिये तो विक्रमोर्वशीयम में संयोग का उद्दाम वर्णन नहीं है. दिनकर ने असल में कथा ली है विक्रमोर्वशीयम से और उद्दाम श्रृंगार का चित्रण लिया है कुमारसंभव से. इसलिए वे सीधे कालिदास से जुड़ते हैं. इतनी व्यापक चेतना का कवि निराला को छोड़ कर दूसरा कोई नहीं है. उर्वशी के संदर्भ में इसकी जांच-परख करने की जरूरत है. मैनेजर पाण्डेय, दिनकर के जिन और महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं वे हैं उनके द्वारा किया गया छायावाद का मूल्यांकन, रीतिकाल का मूल्यांकन और संस्कृति सम्बन्धी गहन चिन्तन. दिनकर मार्क्सवादी नहीं थे, फिर भी उनके साहित्यिक मूल्यांकन में मैनेजर पाण्डेय ने उल्लेखनीय निष्पक्षता और तटस्थता बरती है, जो अन्यत्र दुर्लभ है.
अज्ञेय के प्रति मार्क्सवादी आलोचकों के पूर्वाग्रह ग्रस्त दृष्टिकोण से हम सभी परिचित हैं, लेकिन मैनेजर पाण्डेय इस संकुचित दृष्टिकोण का निराकरण करते हुए यह प्रश्न करते हैं देश विभाजन और उससे जुडी त्रासदी जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन आदि प्रगतिशील कवियों ने कोई महत्त्वपूर्ण कविता क्यों नहीं लिखी? पाण्डेय जी आगे बताते हैं कि उस समय के कवियों में केवल अज्ञेय ने 12 अक्तूबर, १९४७ से 12 नवम्बर १९४७ के बीच “शरणार्थी” शीर्षक से 11 कविताएं लिखी थीं और साथ ही अनेक कहानियाँ भी, जो १९४८ में “शरणार्थी” नाम से प्रकाशित पुस्तक में मौजूद हैं. विभाजन पर आधारित अज्ञेय की इन कविताओं की चर्चा करते हुए वे कहते हैं, “ “शरणार्थी” शीर्षक से लिखी अज्ञेय की 11 कविताओं में उनकी गहरी मानवीय संवेदनशीलता, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास की विसंगतियों की समझ, शरणार्थी होने और बनने की पीड़ा की अनुभूति, इंसानियत की तड़प की पहचान, मनुष्यता के अपमान का बोध, दंगों में लुटी स्त्री की अस्मत और अस्मिता के प्रति अथाह करुणा, धर्म के पाखंड के नंगे नाच की शिनाख्त, दलितों की सर्वग्रासी यातना की चिंता और स्वराज्य के खाली और खोखले अर्थ की विडम्बना की अभिव्यक्ति है.” पाण्डेय इन कविताओं के लिखे जाने की जगहों, तारीखों और समयों की तरफ़ ध्यानाकर्षण करते हुए यह बताते हैं कि उन दिनों देश में जो कुछ भी हो रहा था उससे अज्ञेय कितना परेशान, बेचैन और विचलित थे, साथ ही यह भी पता चलता है कि वे उस समय लगातार यात्राएं कर रहे थे, स्थितियों की जानकारी के लिए. मैनेजर पाण्डेय, अज्ञेय के दृष्टिकोण को विवेचित करते हुए यह सिद्ध करते हैं कि देश विभाजन के समय उत्पन्न साम्प्रदायिक दंगों की बर्बरता का उत्तर न तो अज्ञेय ने बाक़ी कवियों की तरह मौन से दिया और न विलाप से. बल्कि उनके मन में जो विक्षोभ, आक्रोश और वेदना का ज्वार उमड़ रहा था उसकी अभिव्यक्ति उन्होंने कविताओं और कहानियों के माध्यम से की.
इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता पर चर्चा करते हुए मैनेजर पाण्डेय उन कारणों की पड़ताल करते हैं जिनसे कविता का अस्त्तिव आज संकट में पड़ गया है. पाण्डेय जी के अनुसार, “संकट जितना व्यापक और गहरा है, समकालीन हिंदी कविता की प्रतिक्रिया उसकी तुलना में बहुत छोटी है.” पाण्डेय जी मानते हैं कि वही कविता दीर्घजीवी रह सकती है जिसमें अपने समय और समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति हो, पीड़ितों और शोषितों के स्वर को वाणी मिले तथा जिसमें लय भी स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सके.
आधुनिक हिंदी कविता को मार्क्सवादी आलोचना पद्धति के निकष पर रख कर उसके मूल्यांकन का जो प्रयास मैनेजर पाण्डेय ने किया है , वह आलोचना के क्षेत्र में एक गरिमामय और सार्थक उपस्थिति के रूप में दर्ज किया जाएगा.
पल्लवी प्रकाश