स्त्री दर्पण आज से वंचितों की आवाज़ शीर्षक से एक नई शृंखला प्रारम्भ कर रहा है।इस कड़ी में पहला आलेख निर्मला पुतुल की कविताओं पर दिया जा रहा है।युवा शोधार्थी ऋत्विक भारतीय इस शृंखला को शुरू कर रहे हैं।निर्मला जी ने गत बीस सालों में कविता की दुनिया में एक नए स्वर को पहचान दिलाई है जो अब तक उपेक्षित था। यह हाशिये के समाज की आवाज़ है।हिन्दी साहित्य में दलित चेतना तो दिखाई पडने लगी है पर आदिवासी समाज की चिंताएं अभी भी कम हैं। आदिवासी समाज का पूरा चित्रण अभी भी कम नजर आता है हिन्दी साहित्य में। वह अभी समावेशी नहीं हो पाया है।निर्मला जी ने इस कमी को पूरा किया है अपनी कविताओं से।
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निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी समाज का तृणमूल प्रतिरोध
“दिल्ली की गणतंत्र झांकियों में
अपनी टोली के साथ नुमाइश बनकर कई-कई बार
पेश किए गए तुम
पर गणतंत्र नाम की कोई चिड़िया
कभी आकर बैठी तुम्हारी घर की मुंडेर पर?”
× × ×
“काया पलट हो रही है इसकी
तीर-धनुष-मांदल-नगाड़ा-बाँसुरी
साब बटोर लिए जा रहे हैं लोकसंग्रहालय
समय की मुरदागाड़ी में लादकर।”
निर्मला पुतुल की पहचान उन विरले कवियों में की जाती है जिन्होंने अपने प्रथम काव्य-संग्रह, ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’(2005) द्वारा पाठकों के बीच विशिष्ट पहचान बनायी। इसके बाद भी दो संग्रह आए– पहला, ‘अपने घर की तलाश’(2005 )( उक्त संग्रह संथाली भाषा में है जिसका हिन्दी अनुवाद भी अगले ही पृष्ठ पर उद्धृत है।) तीसरा संग्रह है, ‘बेघर सपने’ (2014)। ये कविताएं आदिवासी समाज के स्त्री पक्ष को स्वर देती कविताएं हैं जहां, सजीव तो सजीव निर्जीव(जल-जंगल और जमीन) भी प्राणी हो आए हैं। ये कविताएं चेतनाहीनों को चेतनावान बनाने का जज्बा रखती हैं : “उठो कि अपने अंधेरे के खिलाफ उठो/ उठो अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ।” सही मायने में निर्मला पुतुल की कविताओं का रेंज बहुत व्यापक है- आदिवासी समाज में व्याप्त भूख, गरीबी, अपमान, अंधविश्वास, अशिक्षा, स्त्री-श्रम, यौन-उत्पीड़न, विस्थापन-भूमंडलीकरण और शहरीकरण का संकट इनकी कविताओं का लेखकीय सरोकार है। ‘प्रश्नांकन’ और ‘बेचैनी’ यहाँ ऐसे विद्यमान हैं, जैसे थर्मामीटर के बीच पारा।
निर्मला पुतुल के सवाल जितने स्त्री अस्मिता के हैं उतने ही आदिवासी समाज और संस्कृति के भी। आदिवासी समाज का धर्म हो या संस्कृति उनका कोई लिखित प्रमाण नहीं। वे आज भी अपनी प्रामाणिकता की शिनाख्त के लिए ‘वाचिकता’ (मौखिक) पर ही निर्भर हैं। सारा संघर्ष इसी बात को लेकर है। सदियों से जंगलों में रहे इसलिए जंगल ही उनके घर हैं और पेड़-पौधे, पशु-पक्षी उनके सहचर। जंगलों में उनके ईश्वर बस्ते हैं और उनके प्राण भी। अंबेडकर ने कहा था, ‘किसी भी समाज के विकास को देखना है तो उस समाज की स्त्रियों के विकास को देखिए!’ इस आधार पर निर्मला पुतुल की कविताओं मे चित्रित आदिवासी समाज और आदिवासी स्त्री को देखना तर्कसंगत होगा :
‘यहां आदिवासियों के समाज का बर्बरतापूर्ण इतिहास है, संघर्ष है और अंधकार है’ जिसमें गांव तो है ही बाजारवाद का दंश भी कम नहीं। यहां केवल आदिवासी समाज की शोषित-पीडित स्त्री ही नहीं, विस्थापित पुरुषों की भी दु:खद दास्तां हैं- परदेश गये पिया की विरहणियों का दुख, जिनकी अनुपस्थिति में- उन्हें क्या-क्या नहीं सहना-भोगना पड़ता है। यहां कमाने के नाम पर परदेश गए बच्चों के इंतजार में पत्थरा गयी मांओं की बूढ़ी आंखें हैं। मानव-तस्करी और स्त्री के दैहिक शोषण के अनेक दारुण सत्य मरुस्थलीय रेत की तरह दूर-दूर तक पसरे सहज ही दिख जाते हैं यहाँ । ये कविताएं 21वीं सदी में हाशिये पर स्थित उस दुनिया-जगत् की कविताई-कहानी कहते हैं जिसका नाम है- ‘सन्थाल परगना’। जहां न बिजली है, न सडकें हैं और न ही पानी। (पानी के लिए अब भी जाना होता है कोसों दूर) आज भी बच्चे महाजन के पास बंधुआ हैं। यहां मिल जाएंगी आपको सदियों से अपने घर का पता ढूंढती बेचैन स्त्री। मिल जाएंगे- ‘भूख-बीमारी से लड़ते-मरते मंगरू, बुधुवा, और इलाज के लिए राशनकार्ड गिरवी रखता ‘समरू पहाड़िया’। भूख से बिलबिलाते- जड़ खाकर, चूहे खाकर जीवन जीते अंसख्य लोग जिनके घर, जमीन और छत, आसमान हैं। यहाँ मिल जाएंगे आपको मांझीथान के देवता जो बिक जाते हैं बोतल भर दारू में। यहां हल जोतने के अपराध में बैल बना खेतों में जोती जाती है स्त्री। खूंटे से बांध खिलाया जाता है उसको भूसा। ‘छप्पर छारने’ के अपराध में नाक-कान काट धकिया दी जाती हैं घर से बाहर स्त्री। ‘पुलिसिया जुल्म का आतंक’ भी कम नहीं, आज भी डायन बता मारी-पीटी- बहिस्कृत की जाती हैं स्त्रियां।
‘‘भरी पंचायत में सर मुडवा
नचा देते नंगा
कर देते मुंह पर पेशाब
ठूंस देते मैला’’
यहां प्रेमचंद के पंचायत का ‘पंच परमेश्वर’ नहीं, यहां गांव का प्रधान है जो एक बोतल दारू या मुर्गे के लिए पूरा गांव ही रख देता है गिरवी। यहां, दिन-रात, घर-बाहर खटती स्त्रियों के श्रम को कोई नहीं देखता-समझता, यहां देखी जाती है औरत की आंखें, औरत की देह। यहां ‘बूढ़ी पृथ्वी का दुख है’, पेड़ करते हैं चीत्कार यहाँ, नदियां करती हैं विलाप, हवा करती हैं- खून की उल्टियां और धरती वर्चस्ववादी व्यवस्थाा से मांगती है अपने दोहन का हिसाब :
‘‘क्या तुमने कभी सुना है/ सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से/ पेड़ों की चीत्कार?/ सुना है कभी/ रात के सन्नाटे में अंधेर से मुंह ढांप/किस कदर रोती हैं नदियां/ सुनाई पड़ी है कभी भरी दुपहरिया में/हथौड़े की चोट से बिखरते पत्थरों की चीख?’’
ये प्रश्न महज प्रश्न मात्र नहीं, घने अंधकार के बीच जलती हुई मशाल हैं जो व्यक्ति को अपने भीतर-बाहर देखने-समझने और अपने किये पर पछताने का, दुनिया को बदलने का अवसर देते हैं, ताकि फिर से सृजित हो सके :
‘‘जंगल की ताजा हवा/ नदियों की निर्मलता/ पहाड़ों का मौन/ मिट्टी का सोंधापन/ नाचने के लिए खुला आंगन/ गाने के लिए गीत/ रोने के लिए मुट्ठी भर एकान्त/ बच्चों के लिए मैदान /पशुओं के लिए हरी-भरी घास/ बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शान्ति/ और इस अविश्वास-भरे दौर में/ थोड़ा-सा उम्मीद/थोड़े-से सपने!’’
वर्गवाद की जिस संकल्पना को स्त्री मुक्ति के अमोघ अस्त्र के रूप में मार्क्सवादी चिंतकों ने रेखांकित किया वह सही मायने में एकांगी है, क्योंकि स्त्री की पराधीनता केवल ऊंच-नीच या काली-गोरी होने के कारण नहीं, स्त्री होने के कारण भी है- पितृसत्ता स्त्री की यौनिकता, प्रजनन, और घरेलू श्रम पर जिस तरह नियंत्रण बना स्त्री को अपना उपनिवेश बनाए रखना चाहता है। स्त्री-विमर्श स्त्री की दृष्टि से उन बिन्दुओं की पड़ताल करता है जहां-जहां मानदण्ड दोहरे हैं, जहां-जहां पूर्वाग्रह हैं। एक विवाहित स्त्री की अपेक्षा पुरुष के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं आता, ‘‘विवाह स्त्री की यौनिकता को सीमित और नियन्त्रित करता है— यौन-व्यवाहर के मामले में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों पर कहीं आधिक क्रूर और सख्त नियंत्रण रहा है। इसे कानून, परम्परा, सम्पत्ति और आर्थिक अधिकारों की मदद से कायम किया जाता रहा है।’’ वे वर्चस्ववादी व्यवस्था और पितृसत्ता की उपभोगितावादी दृष्टि का पर्दाफाश करती हुई स्त्री-अस्मिता का प्रश्न बड़े ही भास्वर शैली में कीलित करती हैं :
‘‘क्या हूं मैं तुम्हारे लिए/एक तकिया/कि कहीं से थका-मांदा आया/और सिर टिका दिया/कोई खूंटी/कि ऊब उदासी थकान से भरी /कमीज उतारकर टांग दी/या आंगन में तनी अरगनी /कि घर-भर के कपड़े लाद दिये/कोई घर सुबह निकला/शाम लौट आया/कोई डायरी/कि जब चाहा/कुछ न कुछ लिख दिया/खामोश खड़ी दीवार/ कि जब जहां चाहा/कील ठोक दी/कोई गेंद/ कि जब तब/जैसे चाहा उछाल दिया/ या कोई चादर/कि जब जैसे-तैसे/ओढ़-बिछा ली? चुप क्यों हो! कहो न, क्या हूं मैं/तुम्हारे लिए?’’
ये प्रश्न एकलव्य की तीर की भांति पितृसत्ता की जड़ों पर सीधे कुठाराघात हैं! स्त्री धर्म की सार्थकता पुरुषों के उपयोग और उपभोग की सामग्री बने रहने में नहीं है। नई स्त्री शिक्षित है और शिक्षित व्यक्ति चिंतन के उस स्तर पर पहुंच सकता है जहां सही-गलत का बोध हो। वर्जिनिया वुल्फ ने सर्वप्रथम स्त्री के ‘अपने कमरे’ की बात उठायी थी। अनामिका ने मिथकों को आधुनिक पाठों से अंतः पाठीयता करते हुए लिखा- ‘लड़कियां हवा, धूप मिट्टी होती हैं, उनका कोई घर नहीं होता।’ नि:संदेह यह सामाज का सरलीकरण है- स्त्री चाहे जिस वर्ग-वर्ण-नस्ल-सम्प्रदाय-धर्म की हो- यह उभनिष्ठता तो दिखती ही है। निर्मला पुतुल के यहाँ इसी का विस्तार दिखता है :
“मैं बिखरी हूं पूरे घर में/पर यह घर मेरा नहीं है।/कहीं कोई घर नहीं होता मेरा/बल्कि मैं होती हूं स्वयं एक घर/जहां रहते हैं लोग निर्लिप्त/गर्भ से लेकर बिस्तर तक के बीच/कई-कई रूपों में…!”
कहा जाता है ‘बिन घरनी घर, भूत का डेरा’ अर्थात जिस घर में स्त्री(पत्नी के संदर्भ में) न हो, वह घर, घर नहीं लगता, वहाँ भूत वास करता है। इसका कारण यह है कि स्त्रियां घर को सजाती हैं, संवारती हैं, घर और परिवार के लिए खाना पकाती हैं। वास्तविकता तो यहां तक देखने को मिलती हैं कि निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय स्त्रियों को घर और घर के काज-कामों में इतना लिप्त रखा जाता है कि वे खुद को भुलाए बैठी रहती हैं- कि घर-गृहस्थी से इतर भी उसका अपना व्यक्तित्व है। स्त्री जीवन की यह विडंबना है कि विवाह से पूर्व वह जिस घर में रहती है वह उसके पिता-भाई का घर होता है और विवाह पश्चाताप मिला घर भी उसका नहीं होता, वह तो उसकी ससुराल होती है, जिसका एहसास उसे बराबर ‘गेट आउट’ और ‘शट-अप’ जैसे भास्वर और अपमानजनक जुमलों द्वारा कराया जाता है। वह घर से मृत्यु के अन्तिम क्षण भी चोटी पकड़ कर निकाली जा सकती है। तसलीमा नसरीन तो स्त्री की असुरक्षा और स्त्री के प्रति बढ़ते लगातार अपराधों की फेहरिस्त को देखते हुए स्पष्ट कहती हैं- ‘औरत का कोई देश नहीं’।
आदिवासी स्त्रियों के श्रम का मूल्यांकन वैश्विक स्तर पर किया जा रहा है। श्रम से जुड़े प्रश्न निर्मला पुतुल की कविताओं में भी पूरी गहराई और भास्वरता से अभिव्यक्ति पाते दिखते हैं :
“तुम्हारे हाथों के बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट!
× × ×
“क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन
तब तक कर चुके होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी
तुम्हारे ही दातुन से मुँह-हाथ धोकर?
निर्मला पुतुल एक आदिवासी कवयित्री हैं- पर सबसे पहले वे एक स्त्री हैं। एक आदिवासी स्त्री! इसलिए उनके शोषण की आधारभूमि दोहरे स्तर की है- एक स्त्री होने के नाते और दूसरा आदिवासी स्त्री होने के नाते! स्त्री जीवन के कटु अनुभव होने के साथ-साथ उन्हें अपने जड़-जमीन और अपने समाज की विविध-समस्याओं और संघर्षों की भी शिनाख्त है। नागरिकता कानून के अभाव में आदिवासी स्त्रियां किस तरह दोहरे शोषण का शिकार हैं उसी की शिनाख्त करती हैं उनकी अनेक कविताएं। ऐसे मामलों में सत्ता भी चुप रहना ही वाजिब समझती हैं क्योंकि उनकी नजर में आदिवासी नक्सलवाद हैं, घुसपैठिये हैं, हैं अलगाववादी :
“हमारे बिस्तर पर करते हैं/हमारी बस्ती का बलात्कार/और हमारी ही जमीन पर खड़े हो/पूछते हैं हमसे हमारी औकात!’’
निर्मला पुतुल स्त्री अस्मिता के सवाल पर जंगलों और उनमें वास करने वाले ईश्वर से भी सवाल करती उनके अस्तित्व को चुनौती देती हैं :
“मैं सब जानती हूँ /तुम अब हमारे नहीं रहे /हमारा चढ़ाबा भी तुम्हें रास नहीं आता /वरना/उस रोज लाठी डंडा बन/उन दरिंदों पर बरस पड़ते!”
स्त्री अपराधों से जुड़े मामले चाहे घर में हों या घर से बाहर अधिकतर का सम्बंध स्त्री की देह से ही होता है- मार-पीट, गाली-गलौज, भावहीन संभोग, बलात्कार वगैरह-वगैरह। क्यों भूल जाते हैं कि स्त्री हाड़-मांस से बनी एक मानवी है जिसके कोमल शरीर के भीतर एक मन भी होता है! निर्मला पुतुल उचित ही प्रश्न करती हैं :
“ये वो लोग हैं जो खींचते हैं/हमारी नंगी-अधनंगी तस्वीरें/और संस्कृति के नाम पर करते हैं हमारी मिट्टी का सौदा/उतार रहे हैं बहस में हमारे ही कपड़े!”
× × ×
“तन के भूगोल से परे/एक स्त्री के /मन की गांठें खोल कर/कभी पढ़ा है /तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास?”
निर्मला पुतुल की कविताओं पर उमाशंकर चौधरी ने उचित ही टिप्पणी की है, ‘‘ये कविताएं अपने अंतर्पाठ में गहरा दुख पैदा करती हैं। परन्तु यह दुख तब और बढ़ जाता है जब हम इसे भूमंडलीकरण और पश्चिमीकरण की चकाचौंध के बरक्स रखकर देखते हैं जहां एक तरफ इतनी रोशनी है, बड़े-बड़े मॉल्स हैं— एक चमकदार दुनिया वहीं दूसरी ओर सिर्फ अपनी देह के साथ संघर्ष करती एक आदिवासी स्त्री’’ और उसका हाशियाकृत समाज!
भूमंडलीकरण ने जिस तरह ‘बाजारवाद’ का धीरे-धीरे प्रसार किया, उसका बहुत व्यापक प्रभाव आदिवासी समाज पर पड़ा। जंगल के कटने से पूरा पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का खतरा हमारे सिर पर काले बादल की तरह मंडरा रहा है। ‘विस्थापन’ आदिवासियों के सामने विकट समस्या बनकर उभरा है वर्तमान में :
“कायापलट हो रही है इसकी/तीर-धनुष-मांदल-नगाड़ा-बांसुरी/सब बटोर लिये जा रहे हैं लोक संग्राहालय /समय की मुर्दागाड़ी में लादकर!”
× × ×
“तुम तो सब कुछ छोड़-छाड़/चले गये कमाने कश्मीर/भाग गया ढेपचा भी/अपने साथियों के साथ असम/सुगिया भी नहीं मानी/लाख समझााने-बुझाने पर भी/चुली गयी धनकटनी में बंगाल/मुंगली, बुधन, बटोरना के साथ!”
आदिवासी संस्कृति और परम्परा को बिलकुल अलग बताती हुई रेखा सेठी लिखती हैं-‘‘यह वर्ग एक शान्तिप्रिय जाति के रूप में जाना जाता रहा है लेकिन आज आदिवासियों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। उसमें भी भूंमडलीकरण जो पूरे विश्व को सूत्र में पिरोने की बात कहता है और आज जो यहां बाजार है। बाजार पाश्चात्य सभ्यता की प्रतिनिधि रीति है। उसमें आदिवासी समाज कहीं से भी फिट नहीं बैठता है। इसलिए आज आदिवासियों के लिए भूमंडलीकरण और बाजार भी बहुत बड़ी चुनौती है जो उनके जीवन के संकट को और तीव्र कर रहा है।’’ आखिर विस्थापन क्यों? इसकी तह में जाया जाए तो पता चलता है- आदिवासी समाज का दारुण सत्य है- भूखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, जंगलों की कटाई, अशिक्षा, रोजगार का अभाव जिनसे निपटने का एकमात्र उपाय मिलता है – विस्थापन! निर्मला पुतुल की ‘ढेपचा के बाबू’ कविता में ऐसी है एक विरहिणी की दारूण कथा व्यंजित हुई है जिसका पति परदेश कमाने गया है- जिससे पति की अनुपस्थिति में उसे क्या-क्या नहीं भुगतना पड़ता :
‘‘हाट-बाजार का हाल मत पूछो/अभी भी रास्ते में ही सिद्धो-कान्हु चौक पर/मुर्गियां छीन-झपट लेते हैं बाजार के लोग/आम की टोकरी द्वार पर रखवा/लुका-चुरा लेते हैं बातों में बहलाकर/चखने के नाम पर चट कर जाते हैं/जामुन, बेर, खजूर/कद्दू, कोहड़ा, झींगा, खेखसा, बरबट्टी/जैसे-तैसे मोलभाव कर ले लेते हैं सस्ते में ही।”
समाज में स्त्रियों का जितना मानसिक विकास हुआ है उस मुताबिक पुरुष का नहीं हुआ। स्त्रियाँ अब ध्रुवस्वामिनी वाली कदकाठी पा गईं किन्तु पुरुष अभी भी रामगुप्त की ही मनोदशा में हैं उन्हे अपने पाए का धीरोदात्त-धीरप्राशान्त नायक कहीं दिखता ही नहीं। चारों और हिंसा करते, मार-काट करते रामगुप्त और याज्ञवल्क्य ही दिखते हैं। नई स्त्री का मनचिता पुरुष उसे आज भी कहीं नहीं दिखता। ऐसा अनामिका मानती हैं। निर्मला की इस सम्बंध में बड़ी ही मार्मिक कविता है- ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!’ इसमें बेटी अपने पिता से अपने वर के चुनाव के सम्बंध में कहती है :
‘‘बाबा/मुझे उतनी दूर मत ब्याहना/जहां… आदमी से ज्यादा ईश्वर बसते हों/जहां जंगल नदी पहाड़ नहीं हों/ वहां तो कतई नहीं/जहां की सड़कों पर/मन से भी ज्यादा तेज दौड़ती हों मोटरगाड़ियां/ऊंचे-ऊचे मकान और/बड़ी-बड़ी दुकानें../उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता/जिस में बड़ा-सा खुला आंगन न हो/मत चुनना ऐसा वर/जो पोचई और हड़िया में डूबा रहता हो अकसर/काहिल-निकम्मा हो/माहिर हो मेले से लड़कियां उड़ा ले जाने में/कोई थारी-लोटा तो नहीं/कि बाद मे जब चाहूंगी बदल लूंगी/अच्छा-खराब होने पर।’’ उक्त कविता एक लम्बी कविता हैं जिसे दो खण्डों में बांटा जा सकता था किन्तु कवयित्री ने इसे एक ही खण्ड में डाल और अधिक मार्मिक बना दिया है। पहले खण्ड में बेटी पिता को वैसा वर चुनने को मना करती है जो स्त्री के मनचिता पुरुष के विपरीत हो और दूसरे खण्ड में वे अपने मनचिता पुरुष को चुनने की बात करती हैं। सवाल उठता है निर्मला का यह चुनाव क्या कोई अकेला चुनाव है तो इसका प्रत्युत्तर उनकी इसी कविता की अंतिम पंक्तियां में देखा जा सकता है : “उस देश में ब्याहना/जहां ईश्वर कम आदमी ज्यादा रहते हों/बकरी और शेर/एक घाट पानी पीते हों जहां/वहीं ब्याहना मुझे!/उसी के संग ब्याहना जो/कबूतर के जोड़े और पण्डुक पक्षी की तरह रहे हरदम साथ/घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर/रात सुख-दुख बांटने तक/चुनना वर ऐसा/जो बाजाता हो बांसुरी में सुरीली/ और ढोल-मांदल बाजने में हो पारंगत/वसंत के दिनों में ला सके जो रोज/मेरे जूड़े के खातिर पलाश के फूल/जिससे खाया नहीं जाए/मेरे भूखे रहने पर/उसी से ब्याहना!!
दलित हो या गैर-दलित उनके साहित्य का मुख्य सरोकार ‘मनुष्य’ और मनुष्य से जुड़े समता, स्वतंत्रता जैसे मानवाधिकार हैं जिसको लेकर आज सारा संघर्ष है। किन्तु आदिवासी साहित्य का मुख्य सरोकार ‘मनुष्य’ नहीं, वह सृष्टि है जिससे मनुष्य, समस्त जीव-जगत् और समष्टि का अस्तित्व है। प्राथमिकता का यह प्रश्न एक बड़ा प्रश्न है! ‘साबई ऊपर मानुष, तार ऊपर कोऊ नाई’ मानने वाले दिकू ईश्वर को भी मनुष्य के रूप में देखते हैं या एक अदृश्य चेतना के रूप में, पर आदिवासी साहित्य उसे पेड़-पौधों, पाखी, जीव-जंतु, कीट-पतंग में देखता है। क्योंकि वह खुद आदिकालीन प्रकृत मनुष्य है, उसके पुरखे वे ही हैं। पर्यावरण-क्षरण के इस युग में यह निर्मला पुतुल की यह इकोफैमिनिष्ट – दृष्टि एक महत्त्वपूर्ण दृष्टि है!
ऋत्विक भारतीय
‘हंस’, ‘वागर्थ’, ‘कथादेश’, ‘हिंदुस्तान’, ‘दैनिक जागरण’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘समालोचन’, ‘पश्यंती’, ‘शब्दांकन’ एवं ‘पारमिता’ जैसी विविध पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों और ब्लॉगर पर कविता-कहानी- लेख तथा आलोचना प्रकाशित। ‘प्रेम के नौ स्वर’, पेंशनवाली नानी’ और ‘फ़र्क नहीं पड़ता’ चर्चित कविताएं। ‘जन्म ले रहा है एक नया पुरुष’ साहित्य अकादमी प्राप्त कवयित्री- अनामिका की कविताओं का चयन एवं सम्पादन। ‘संवेद’ पत्रिका के अतिथि संपादक के रूप में योगदान तथा ‘पश्यन्ती’ ऑन लाइन जर्नल में नियमित सम्पादन-सहयोग। ‘साहित्य अकादमी’ और ‘दलित लेखक संघ’ के अलावा कई सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थाओं में काव्य-पाठ।