चौदह फेरे
हिन्दी के मूर्धन्य लेखकों में शुमार शिवानी अपनी उच्च स्तरीय भाषा शैली के साथ पात्रों के सजीव चित्रण के लिये निर्विवाद रूप से जानी जाती हैं, गौरा पंत ‘शिवानी’ का जन्म राजकोट (गुजरात) के आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक परिवार में हुआ, माता और पिता दोनों ही विद्वान, संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे,साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरी रुझान ‘शिवानी’ को उनसे ही मिली।
हिन्दी साहित्य में जब भी उत्कृष्ट उपन्यास की चर्चा होगी तब शिवानी के “कृष्णकली” के ज़िक्र बिना अधूरी रहेगी किंतु फिलवक्त मैं चौदह फेरे की चर्चा करना चाहती हूँ!
साठ के शुरुआती दशक में चौदह फेरे धर्मयुग में किस्तवार छपना आरंभ हुआ तब इसकी लोकप्रियता ऐसी थी जैसी आज के नेटफ़्लिक्स सीरीज की, पाठक नये पात्रों और घटना क्रम का बेसब्री से प्रतीक्षा किया करते। माना जाता है कि शिवानी के लेखन ने हिन्दी को घर की रसोई तक पहुँचाया, स्त्रियों में साहित्य प्रेम शिवानी के लेखन ने जगाया। यों उन दिनों चौके के बाहर स्त्रियों के मनबहलावन के साधन न के बराबर थे और पढ़ने के अधिकाधिक सामग्री भी उपलब्ध नहीं थे ऐसे में शिवानी को चौदह फेरे की अगली किस्त पर पलकें बिछाये बैठी स्त्रियाँ सुलभ ही उपलब्ध थी। कूर्मांचल समाज में तो शिवानी “चौदह फेरे” के नाम से पुकारी जाने लगी थी, अहल्या के चरित्र से प्रवाभित कुवारियों के आग्रह भरे अनेकानेक पत्र आते थे ” कि अहल्या के जीवन को दुखांत में विसर्जित न करियेगा” ऐसी लोकप्रियता आज सहज ही किसी लेखक को संभव हो!
स्वयं शिवानी के शब्दों में ” ”मेरे पास इतने पत्र आए कि उत्तर ही नहीं दे पाई,परिचित, अपरिचित सब विचित्र प्रश्न पूछते हैं- ‘क्या अहल्या फलाँ है? कर्नल पाण्डे वह थे न?’.. मेरे पात्र-पात्री कल्पना की उपज थे, उन्हें फलाँ समझा गया, इसी भय से गर्मी में पहाड जाने का विचार त्यागना पड़ा कि क्या पता किसी अरण्य से निकलकर कर्नल साहब छाती पर दुनाली तान बैठें?”!
शिवानी की कहानियों -उपन्यास में कुमाऊंनी संस्कृति का व्यापक विस्तार उनके नवीनतम उपन्यास भैरवी तक में दिखता है, शिवानी का यह दुहराव पाठकों को खटकने लगा लेकिन इससे उनकी प्रसिद्धि पर तनिक भी आँच नहीं आई हालाँकि इतनी मशहूरी के बाबजूद आलोचकों ने उन्हें हाशिये पर ही रखा, कहने वाले यह भी कहते हैं शिवानी ने उन्हें मुँह न लगाया, मुख्य धारा में एक ख़ास तबके से वह दूरी बनाये रखती थी ख़ैर, उपन्यास पर लौटते हुए
दो सौ चालीस पन्ने का यह उपन्यास मूलतः अहल्या की कहानी है, किन्तु कोई भी कथा कहानी किसी एक की होकर भी मात्र उसकी नहीं रहती बल्कि उन तमाम घटनाओं और पात्रो की भी होती है जिनसे वह जुड़े होते हैं।कहानी की शुरुआत उत्तंग सौध “नंदी” के शिल्प की श्रेष्ठता के उत्कृष्ट चित्रण से होकर अहल्या की उपेक्षित प्रम्पराप्रिय माता नंदी पर आकर कुछ देर को ठहर जाती है। कलकत्ते के रसूखदार व्यवसायी पति के ऐशों आराम से वंचित भाभी के तानों उलाहनों से तंग अनादृत नाममात्र ही गृहस्वामिनी नंदी एक दिवस चार वर्षीय अहल्या को लिये कर्नल के समक्ष आ खड़ी होती है,तमाम सुखों से चुकी अहल्या की आँखें पिता के वैभव से चुंधिया सी जाती है किंतु नंदी स्वयं को नंदी के उच्छृंखल माहौल में अनुकूलित नहीं कर पाई और विलास को स्वेच्छा से ठुकरा बद्रीनाथ के किसी गहन कन्दरा में वैराग्य साधना में खो गई!
इस उपन्यास का मंतव्य कदाचित् अपमानित नंदी के कष्टों का व्यौरा ना होकर अहल्या का राग-विराग रहा है, पुरुष मित्रों के संग हँसना बोलना, पार्टी पिकनिक उन दिनों मध्यवर्गीय समाज की स्त्रियों की आँखों का काजल ही था जिस कारण अहल्या हॉस्टल में पढ़ने वाली तरुणियों के मध्यरात्रि का स्वप्न हुई अन्यथा भाषा की उत्कृष्टता के अतिरिक्त कहानी में ऐसी कई कमज़ोर कड़ियाँ हैं जो मानवीय संवेदना के मूल्यों पर प्रश्न खड़े करती है।
एक ओर अहल्या के मन में माँ के प्रति तड़प ना होकर पिता की मुँहलगी मल्लिका के लिए मातृवत् प्रेम कितनी ही बार तो केकड़े के डंक सा लगता है उसपर उसका अव्यवस्थित ढंग, उसके व्यक्तित्व में इतना भटकाव, वह स्वयं नहीं जानती वह क्या चाहती है क़तई क्लीशे किंतु फिर एक ख़याल यह भी कि मानव मन ईंट कंक्रीट का कोई ढाँचा नहीं कि बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं। दूसरी ओर कर्नल जो स्वयं तो नंदी के ग्रामीण ढंग से विमुख उसे पत्नी का सम्मान ना दे सके किंतु उच्चशिक्षित पाश्चात्य तौर पली बढ़ी पुत्री का संबंध पहाड़ी लड़के से जोड़ने को आतुर भ्रमित करता है जबकि उनका पहाड़ों से प्रेम सम्पूर्ण कथानक में कही और प्रकट नही होता!
कई-कई दृश्य आँखों में इतने उलझ जाते हैं कि चाह कर कि सुस्पष्ट तस्वीर नहीं बन पाती बेशक अलंकृत शब्द विन्यास मोहित तो करता है किंतु बाज मर्तबा जुड़ाव नहीं हो पता हालाँकि यह शब्द चितेरी के लेखन की उत्कृष्टता ही है जो कथानक में कुमाऊं की आंचलिकता और कलकत्ता शहर के तत्कालीन उच्च नगरीय परिवेश कुछ यूँ घुल मिल जाती है कि पाठक उस अन्तर को भेद नहीं पाते!
मात्र कथा विस्तार के लिये कई पात्र बेतरह ग़ैर ज़रूरी लगते हैं तो अनावश्यक फैलाव लिए कई घटनायें कोरी कल्पना लगती है, किंतु अंत ऐसी जल्दवाजी में समेट दिया गया मालूम होता है मानो कल का सूरज न निकलता हो। छाती में गोली खाकर भी राजू का जीवित बच आना किसी मुम्बइया फ़िल्म की कहानी लगती है!
कुल मिलाकर भाषा और शिल्प की उत्कृष्टता के लिहाज़ से चौदह फेरे पढ़ना कोई घाटे का सौदा नहीं !!!