‘स्त्री दर्पण’ पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर नई शृंखला की शुरुआत की गई। इस ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की कविताओं को प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें उनकी प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की गई हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला में महत्वपूर्ण कवयित्री स्नेहमयी चौधरी की कविताओं को पढ़ा।
आज आप रांची की महत्वपूर्ण कवि शैलप्रिया की कविताएं पढ़ेंगे। शैलप्रिया के नाम पर साहित्यिक पुरस्कार दिया जाता है। इस बार यह पुरस्कार रश्मि शर्मा को दिया गया है। शैलप्रिया जी का कैंसर के कारण महज़ 48 वर्ष में निधन हो गया। आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
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कवयित्री सविता सिंह
स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री प्रकृति श्रृंखला में हमारी छठी कवि शैलप्रिया हैं। स्नेहमई चौधरी की ही तरह इनके भीतर भी प्रकृति से छुड़ा दिया गया रिश्ता, अलगाव उससे, गहन विषाद पैदा कर रहा है। मौसम का कराहना वह सुन सकती हैं क्योंकि वह अपनी ही कराह का विस्तार लगता है। यह आधुनिक भारतीय स्त्री के एलिनेशन की एक साफ़ सुथरी सच्ची कविता है। फिर भी इन्हें उस उफनती नदी की याद है जो इनके मन को कई रंगों से भर देती थी, और अंततः इनके शुष्क होठों पर खुशी की तरह फैल जाती थी। भीतर ही भीतर वह कलियों से रिसती मादक गंध को पीती हुईं एक पत्ती की छांह ढूंढती है, एक ठिकाना जो इसका अपना नैसर्गिक फैलाव होगा। वह दरअसल उस स्थिति से मुक्ति चाहती है जिसमे वह घुट-घुट कर जी रही है। वह अपने मेघ समान मन को जानती है। उसके रंग को पहचानती हैं। अखिर स्त्री ने अपने से तो इस संबंध को तोड़ा नहीं। इसे समाज, परिवार जैसी संस्था ने राज्य संग मिलकर ही छिन्न-भिन्न किया। उसे अकेलपन के विष में डूबा दिया। यह भी समझने की बात है, जो इनकी कविताओं से जाहिर होता है, कि स्त्री का अपना लगाव प्रकृति से चुपचाप बना रहा। यही संबंध उसे अब तक बचाए हुए है। वह हवा से अब भी बातें कर सकती है। एक पेड़ को अपना मान सकती है। अपनी मुक्ति की बात सोच सकती है।
आज पढ़िए प्रकृति से नेह करतीं एक ऐसी महत्वपूर्ण कवि को जिनका नाम शैलप्रिया है और जो हम सब की प्रिय कवि हैं।
शैलप्रिया का परिचय –
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शैलप्रिया का जन्म 11 दिसंबर 1948 को वर्तमान झारखंड के रांची शहर में हुआ। उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया। 1983 में उनका पहला कविता संग्रह ‘अपने लिए’ प्रकाशित हुआ। 1991 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘चांदनी आग है’ आया। निरंतर रचनारत इस कवयित्री का सफ़र लेकिन कैंसर की वजह से थम गया। सिर्फ 48 साल की उम्र में एक दिसंबर 1994 को उनका निधन हो गया। उनके निधन के उपरांत उनका तीसरा कविता संग्रह ‘घर की तलाश में यात्रा’ वाणी प्रकाशन से आया। इसके अलावा ‘जो अनकहा रहा’ और ‘शेष है अवशेष’ के नाम से उनकी गद्य-पद्य की विभिन्न रचनाओं के दो संग्रह सामने आए। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बहुत सारे पक्षों को समेटता उनका समग्र संचयन ‘अर्द्धवृत्त’ के नाम से वाणी प्रकाशन से छप कर आया है।
शैलप्रिया की कविताएं –
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1. मौसम कराहता है
मौसम कराहता है,
हवा की पोर पोर में समाया
संक्रामक दर्द
डँसता है
मुझको,
रीता मन
स्नेह की बूँद
ढूँढता है
जीने की लिए।
मुझे लोग अच्छे लगते हैं,
लेकिन यह जानती नहीं
कि कहाँ है अपने लोग ?
हर स्थल पर अपने
को एकाकी पाती हूँ।
2. लहर
लहर
पुनः आओ,
मेरे मन को गढ़ो
सतरंगे इन्द्रधनुष सा
थाम लूँ तुम्हें,
अंग भर लूँ।
उफनती नदी
कई रंगों से भर,
मेरे शुष्क होठों पर
तिरती है
खुशी की एक लहर।
3. नीलाकाश के कोने का मेघ
नीलाकाश के
कोने का मेघ
बालकनी में खड़ी
लड़की की तरह उदास है।
गर्म हवा
बादलों को तैराती है,
पंख भरती तितलियाँ
नीचे उतरती हैं।
ऐसे में
परिक्रमा करती पृथ्वी का
चेहरा टेढ़ा हो गया है।
प्रतीक्षित हूँ,
इस मापदण्ड को मापने
के लिए
शायद
मेरा पुनर्जन्म हो।
4. एक पहाड़ी के नीचे
एक पहाड़ी के नीचे
दबी
चींटी
और मुझमें
अब कोई अन्तर नहीं।
गुफाओं के द्वार पर
परदा सरक कर नीचे गिर रहा है।
कई वर्षों बाद
कुछ कलियाँ चटकी थीं इस बार।
बेबसी में उसासें फेंकती मैं
पीती रही उस गन्ध को।
5. एक पत्ती छाँव ढूँढती हूँ
जिन्दगी से कविता,
कविता से दिवास्वप्न,
स्वप्न से शून्याकाश तक फैला है
मेरा विस्तार।
जिन्दगी उजाड़ का मौसम है।
रेगिस्तानी बवंडर में
तपता गाँव है मेरी मनःस्थली।
एक तकली धागा बुनते हुए
आजीवन कटता है समय-चक्र,
इस चारदीवारी से बाहर
एक पत्ती छांव
ढूँढती हूँ
अपने लिए।
6. आँगन में
आँगन में
सुई-सी नुकीली धूप,
आसमान को
एकटक ताकती है
धूल फाँकती गोरैया।
अमरूद के तने पर
झूला झूल रही है
एक साँवली लड़की।
हवाओं की खुश्की पीकर
मेरे होंठ अभिशप्त हो गये हैं।
7. स्त्री के गीत
सुना है,
कोई स्त्री गाती थी गीत
सन्नाटी रात में।
उजाले के गीत का
कोई श्रोता नहीं था,
नहीं कोई सहृदय
व्यथा की धुन को सुनने वाला।
समुद्र के गीत
लहरों की हलचलें सुनाती हैं,
पहाड़ के गीत
झरने सुनाते हैं,
सड़कों पर बड़ी भीड़ है,
मगर स्त्री के गीत का मर्म
नहीं समझता कोई।
बर्फ़ के टुकड़ों की तरह
पिघलता है गीत
काँच के बर्तन में,
अस्तित्वहीन होती स्त्री की तरह।
8.यह बादल है या मेरा मन
यह बादल है
या मेरा मन!
लड़खड़ाते पाँवों में चुभन,
हवा में तिरता मन।
यह मौसम है
या मेरा जीवन?
स्याह फेनिल गुबार
चल रहा यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ
बेठहराव
अँसुआई आँखों में
पनसोखी यादों का फैलाव।
ठूंठा तन, जलता मन
अब यह है जीवन।
9. गूलर के फूल
एक समय था
जब मेरे भीतर उग आये थे
गूलर के फूल।
एक समय था
जब सतरंगे ताल की
झिलमिलाती रोशनी
भर देती थी
मुझमें रंग।
अब कहाँ है वह मौसम ?
और वह फूल, और गन्ध ?
जिन्दगी की पठारी जमीन
सख्त होती जा रही है।
इसमें फूल नहीं उगते,
कैक्टस उगते हैं अनचाहे।
सहज होगा
बहुत मुश्किल है आज
उतना ही, जितना
खोज लेना
गूलर के फूल।
10. मुक्ति-कामना
वृक्षों पर उतरती शाम
मेरे मन-आँगन में फैल जाती है
बासी अखबारी कतरनों की तरह
और याद आती है
वह साँवली लड़की
जो घरौंदों के बीच खेलती थी।
उस वक्त वह नहीं जानती थी
जीवन की पगडंडियों का तिलिस्म,
जमीन जाति धर्म विवाद के अर्थ।
अब भी वह लड़की
अँधेरों की वादियों में
भटकती मिलती है मुझे,
कहती है मुझसे-
बहेलिये के जाल में
फँसे है जो निष्पाप कबूतर
उन्हें स्वाधीन होने दो,
बन्धनमुक्त होने दो