पिछले दिनों आपने आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं आचार्य शिवपूजन सहाय की पत्नी के बारे में पढ़ा ।
अब हजारी प्रसाद द्विवेदी की पत्नी के बारे में प्रख्यात लेखिका शिवानी का संस्मरण पढ़िए। यह संस्मरण अभिषेक उषा नागर ने हमे भेजा है। हम उनके आभारी हैं।
सीमंतेर सिंदूर ( भाग – १ )
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( प्रस्तुत दुर्लभ संस्मरण शिवानी जी ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की पत्नी के लिए लिखा था, शिवानी जी ने उनके साथ काफी समय शांति निकेतन में अपनी पढ़ाई के दौरान गुजारा था )
कहा जाता है कि प्रत्येक सफल पुरुष की सफलता के पीछे किसी नारी की छाया अवश्य रहती है, और यदि वह छाया स्वयं उस पुरुष को सुखदुखानुगामिनी जीवन-सहचरी की हो, तो फिर उसकी सफलता भी असाधारण होती है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी की विद्वता, उनकी विनम्रता, उनको सरलता को जिसने ऐसा सहज बना दिया था, उसका नाम भी शायद कुमारटोला के उन अनामा शिल्पियों के नाम की भांति कोई नहीं जानता, जिनकी सही अष्टभुजा की जीवंत मूर्ति देख, अनायास ही दर्शकों के मुंह से ‘वाह’ निकलने पर भी, कभी कोई यह नहीं पूछता कि इस भव्य मूर्ति का शिल्पी कौन है ?
उनका नाम था भगवती द्विवेदी। जब विवाह होकर पतिगृह में आयी, तब वयस थी तेरह-चौदह वर्ष । तब से निरन्तर छाया बनी वे जिस निष्ठा से पंडितजी की दीर्घ देह को वर्षा आतप से सेंतती रहीं, उसे देख आश्चर्य होता है कि इस युग की वह सती, वैधव्य का यह महादुःख, भले ही वह मुट्ठी भर दुर्वह महीनों का क्यों न रहा हो, सहने पृथ्वी पर रह कैसे गई ? मैं भाभीजी का वह शान्त, स्निग्ध चेहरा याद करती हूं, तो अपनी इस मूर्ख शंका का उत्तर मुझे स्वयं ही मानस की गूढ़ पंक्तियों में मिल जाता है—
अवगुण एक मोर मैं माना।
विरत प्राण न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्ह कर अपराधा
निसरत प्राण करहिं हठ बाधा ।।
पतिविहीन उनकी वे भयावह रूप से दीर्घ बन गई रातें कैसे कटी होंगी, मैं समझ सकती हूं। इधर पिछले दो वर्षों से, जब से पंडितजी शारीरिक एवं मानसिक दोनों झटकों से बहुत कुछ टूट चुके थे, उनके चारों ओर घिरा सतर्कता का घेरा, भाभीजी ने और जटिल कर दिया था। कभी भी किसी मीटिंग में लखनऊ आते तो भाभीजी उनके साथ आतीं।
“कब खाना है, कब सोना है, सबका समय बांध दिया है तेरी भाभीजी ने।” मुझे लगता है, जैसे पंडितजी अपनी चिरपरिचित मुद्रा में पालथी मारकर मेरे तख्त पर बैठे फिर हिल-हिलकर कह रहे हैं- “जैसे-जैसे बुढ़ा रही हैं, वैसे वैसे एकदम शहर कोतवाल बनती जा रही हैं।”
“ऐसा नहीं करूंगी, तो क्या तू जानती है क्या करेंगे?” भाभीजी का ठेठ बिहारी संगीतमय लटका, उस दिन उसी क्षण उनके कठोर अनुशासन की कैफियत दे गया था – “दोनों बेला भात ही भात खाएंगे, चाय में मुठ्ठी भर शक्कर डालेंगे, छिप-छिपकर मीठी मंगवा लेंगे और दुनियाभर के साहित्यिक निमंत्रणों को स्वीकार कर, कभी चल देंगे कलकत्ता, कभी भोपाल और कभी हैदराबाद; जबकि डॉक्टरों ने इन्हें घूमने-फिरने को एकदम मना किया है। इसी से अब एक मिनट के लिए भी इन्हें अकेला नहीं छोडूंगी।”
उनके गहरे आत्मविश्वास से की गई इस घोषणा ने उसी क्षण मेरे पापी चित्त को शंकित किया था- जीवन में एक क्षण ऐसा भी तो आता है, जब एक मिनट को भी अकेला न छोड़ने की ऐसी घोषणा करने वाले को विधाता धक्का देकर उसका सारा गर्व पल में चूर-चूर कर देता है। काल की उस वक्र कुटिल गति से तब तक मेरा परिचय हो चुका था, इसी से मन ही मन उस दिन इस सुखी युगल जोड़ी को देखकर मनाया था-ईश्वर करे, भाभीजी पंडितजी के लिए सदा ऐसी ही कठोर शहर कोतवाल बनी रहें!
पंडितजी के निरन्तर टूट रहे स्वास्थ्य को मैं देख रही थी। मेरी सीढ़ियां चढ़ने में वे बार-बार हांफने लगे थे। कभी-कभी अस्वाभाविक रूप से गंभीर होकर न जाने किस सोच में डूब जाते। हिंदी संस्थान ने उनके लिए ऐसी-ऐसी चिंताओं का जाल बुनकर फैला दिया था, जिनसे आज तक उनका सरल, भोला, निष्कपट हृदय कभी नहीं टकराया था। ऑडिट की दुरूह भूल-भुलैया में व्यर्थ भटक भटककर वे स्वेच्छा से ही दूसरों का गरल कंठ में धारण कर नीलकंठ बने जा रहे थे।
भाभीजी एक दिन बुरी तरह बिगड़ गयीं। उस दिन दोनों रात्रि के भोजन के लिए मेरे अतिथि थे। मैं रसोई में पूरियां उतार रही थी कि भाभीजी ने पुकारा, “ए गउरा ! (दोनों मुझे सदा इसी विचित्र संबोधन से पुकारते थे) यहां आ तो जरा ।” मैं कड़ाही उतारकर गई तो देखा, पंडितजी गम्भीर होकर तख्त पर अधलेटी मुद्रा में एक पत्रिका उलटने-पलटने का उपक्रम कर रहे हैं और भाभीजी का गोरा चेहरा तमतमाकर लाल पड़ गया है। मैं सहम गई थी। अभी-अभी तो दोनों को विष्णु-लक्ष्मी-सा एक साथ तख्त पर स्थापित कर चौके में आयी थी,अभी-अभी क्या हो गया ?
“देख, कल सारी रात नहीं सोये हैं। संस्थान, संस्थान जब देखो तब संस्थान । हम कहती है आग लगा दो इस नौकरी में दे डालो इस्तीफा । जिसने जहां चाहा दस्तखत करवा लिया। अब दोष किसी का है, भोगेंगे ये बोलती क्यों नहीं? नहीं जानती क्याऽऽऽ ?”
मैं क्या कह सकती थी । मुझे चुप देख वे और तिलमिलाकर कहने लगी, “रात-भर सोयेंगे नहीं। सिरदर्द ऐसा कि पूछो मत कुछ कहो तो कहेंगे, अभी ब्लड प्रेशर वाली दवा खा लेंगे, दर्द ठीक हो जाएगा ! पर हम कहती हैं, यह दर्द किसी दवा से ठीक नहीं होगा, छोड़िए संस्थान का मोह और तब ही यह दर्द जाएगा…’
“अच्छा-अच्छा, भाभीजी, मेरी कड़ाही ठंडी हो गई होगी । अब उसे गर्म होने दीजिए आप ठंडी हो जाइए, मैं खाना लगा रही हूं।”
मैंने चटपट खाना लगाया और अपनी सब्जियों, रायते, खीर के परिचय के बीच, फिर संस्थान के अप्रीतिकर प्रसंग को उभरने ही नहीं दिया, किंतु भाभीजी की सजग दृष्टि पंडितजी के प्रत्येक ग्रास पर मुहर लगा रही है, यह मैं देख रही थी। आलू तो नहीं लिया ? थाली में कहीं अतिरिक्त नमक की चुटकी तो नजर बचाकर नहीं परस ली ?
‘हैं-हैं करती क्या है ! कटोरी-भर खीर परस रही है इन्हें बस एक चम्मच चखने-भर को दे।” वे चट कटोरी-भर खीर डोंगे में वापस उलटने लगी तो पंडितजी ने अनुनय भरे स्वर में कहा, “अजी, खा लेने दो, एक दिन की बदपरहेजी से कुछ नहीं होगा। खीर बहुत बढ़िया बनाती है गउरा, जरा चखकर देखो ना ।”
“अच्छाSSS अब समझी, क्यों बनारस आकर तेरे बने खाने का गुण बखानते हैं, रोज खीर खिलाती है ना इन्हें ?”
पंडितजी ने दयनीय दृष्टि से मेरी ओर देखा, जैसे कह रहे हों-कहीं अपना अपराध स्वीकार मत कर लेना । “नहीं भाभीजी, मैं क्या नहीं जानती कि पंडितजी को मीठा खाना मना है।”
“खाना बनाना तू सचमुच खूब सीख गई है री याद है एक दिन पालक छौंकने में कड़ाही में आग धधकी, तो तू कैसे डरकर बाहर भाग आयी थी ?”
बहुत पहले भाभीजी एक बार शांतिनिकेतन में पालक छौंकने जा रही थी कि धोबी आ गया था । बोली, “ले, हींग-मेथी-मिर्च का बघार देकर चटपट छौंक डाल, मैं कपड़े मिला लूं।”
धधकते तेल में मसाले डाल, अनाड़ी हाथों से मैंने भीगा पालक डाला, तो लपटों से कड़ाही भर गई और मैं डरकर भाग गई थी।
सब याद था, सब कुछ, वह दिन भी जब इस वात्सल्यमयी गुरुपत्नी को पहली बार देखा था। तब भाभीजी पच्चीस या छब्बीस वर्ष की रही होंगी। गोरा गोल चेहरा, जो सामान्य-सी उत्तेजना से ही तमतमाकर लाल पड़ जाता था। छोटी-सी नाक पर सोने की गोल लौंग । कसकर बांधी गई चोटी, जो खुलने पर अपने घने घेरे से पीठ को घेर कमर तक उतर आती थी । सीधे पल्ले की साड़ी। मुंह में सदा गुलगुलाता पान का बीड़ा। बड़ा-सा लाल टीका और मांग-भर सिंदूर ।
तब तक उनका परिवार सीमित था। तीन बच्चे, जिनके वही नाम आज भी होंठों पर आते हैं, जिनसे उन्हें तब पुकारा जाता था—बबुआ, पुतुल और तितिल । पंडितजी तब गुरुपल्ली में रहते थे। फूस की छत वाले इस जीर्ण मकान के दूसरे हिस्से में रहते थे गोसाईंजी। वहीं उनके युवापुत्र वीरू की मृत्यु हुई थी। पंडितजी के छोटे-से आंगन में ही सहजन का पेड़ था। उसके नीचे गर्मियों में भाभी अपना ‘हाथेर उनून’ (हाथ की अंगीठी) खिसकाकर मोबाइल किचन ले आती और फिर वही कोना हम उत्तर प्रदेशी छात्राओं का प्रिय अड्डा बन जाता।
क्रमश :