Thursday, December 12, 2024
Homeआलोचना"मृदुला गर्ग की कहानियों में परिवार के रूप"

“मृदुला गर्ग की कहानियों में परिवार के रूप”

हिंदी की प्रख्यात लेखिका के लेखन के 50 साल पूरे होने पर सुपरिचित कथाकार निर्देश निधि का यह आलेख दे रहे हैं।आज उनके अभिनंदन में एक कार्यक्रम किया जा रहा हूं।
निधि जी ने इस आलेख में विचार किया है किनआखिर मृदुला जी ने अपनी रचनाओं में स्त्री की आज़ादी के साथ साथ परिवार की कल्पना को किस रूप में साकार किया है और किन बिंदुओं पर उनकी असहमति है।
——————

मृदुला गर्ग की कहानियों में परिवार कई रूपों में प्रकट होता है । जहाँ कई कहानियों में हम उसे सिर्फ़ खोजते रह जाते हैं । या उसके स्वरूप को तलाशते रह जाते हैं वहीं, वह दूसरी कहानियों में प्रखरता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है । उनकी कुछ चुनिंदा कहानियों में परिवार का स्वरूप
अवकाश – इस कहानी में एकल परिवार है, पति – पत्नी हैं, बच्चे भी हैं । पत्नी बहुत ही बोल्ड क़िस्म की है उसे किसी समीर से प्यार हो गया है । वह उसे छिपाती नहीं है, कोई बहाना भी नहीं बनाती सीधे – सीधे पति से कहती है,
मुझे तुमसे कुछ कहना है और कहना क्या है यह भारतीय परिवार की परम्पराओं के ख़िलाफ़ एक इच्छा है ।
“महेश”, “मैं समीर से प्यार करती हूँ मुझे तलाक़ चाहिए ।”
“स…मी …र ?”, “नोनसेंस”
“क्या कह रही हो तुम ? यह क्या मज़ाक़ हुआ ?”
पत्नी को कोई अपराध बोध नहीं है । उस पर परम्परा और लज्जा का बोझ भी नहीं है ।
“तुम मुझे और बच्चों को बिल्कुल नहीं चाहतीं ?” महेश का प्रश्न सर्वथा उचित है।
“यह मैंने नहीं कहा । बच्चे मेरे शरीर से जुड़े मेरे अंश हैं । तुमसे भी मैं बहुत स्नेह और प्यार करती हूँ । पर मैं मजबूर हूँ । मैंने अपने से कितनी लड़ाई की पर मैं…यह मेरे वश के बाहर की बात है । आइ एम सॉरी ।” वह अपने शब्दों को तोलती है । पति महेश उसे समझा रहा है कि मात्र शारीरिक आकर्षण के लिए उसे यह नहीं करना चाहिए । अगर कोई गलती हो भी गई है तो कोई बात नहीं हम उसे झेल लेंगे । पर वह समीर से प्यार में होना अपनी किसी तरह की गलती नहीं मानती । महेश यह भी बताता है कि उसके साथ विवाह होते ही आकर्षण ख़त्म हो जाएगा । लेकिन यह तो वह पहले से जानती है ।कोई भी भारतीय पति यह सब सुनने के बाद अपने ऊपर क़ाबू शायद ही रख पाए । वह क्रोध में जल उठेगा, उसे ईर्ष्या जलाने लगेगी । परंतु महेश बेहद उदार क़िस्म का पति है, वह ऐसा नहीं होने देता । वह शान्ति से कहता है कि तुम कुछ दिन मायके रह आओ ।वह फिर एक बार पूछता है तुमने मुझे कभी प्यार नहीं किया ? उत्तर में वह कहती है क्यों नहीं किया ? ज़रूर किया अब भी करती हूँ पर… यह कुछ और है।मेरे जीवन में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ । मैं जानती ही नहीं थी, प्यार किसे कहते हैं । महेश तुम नहीं समझ सकते । मैं मर चुकी हूँ और दोबारा जन्म लिया है । तुम मेरी मौत का दुःख करो, पुनर्जन्म भगवान के हाथ है । पति से यह सब कहते हुए उसका चेहरा प्रदीप्त हो चुका है । वह महसूस करती है कि आस – पास उड़ रहे रुई के रोयों की तरह वह भी आज़ाद है । वह महेश को प्यार तो करती है पर अपने निर्णय पर वह अडिग है ।
यह परिवार का कौन सा रूप है ? जो परम्पराओं में रीति – रिवाजों में बिलकुल भी नहीं बंधा है । स्त्री का भी यह अलग रूप है जो अपनी ही शर्तों पर रिश्ते रखती और बदलती है । परिवार का यह रूप सामान्य भारतीय परिवारों से भिन्न है ।बल्कि पूरे परिवार का क्यों यह तो सिर्फ़ गृहिणी के बदलाव की कथा है । यहाँ आकर हिंदू रीति के सात जन्मों का बंधन ख़त्म हो जाता है । किसी स्त्री की जिस घर में डोली जाती है उसकी अर्थी भी उसी घर से निकलती है । गृहिणी इस पुरातन प्रथा का अंत कर देती है । वह यह सब सात – वात जन्म के बंधनों की धारणा को अस्वीकार करके किसी पर पुरुष से अपना प्रेम स्वीकार करती है और सीधे अपने पति से ही कहती है । ना नैतिक नियम उसके आड़े आते हैं, ना सामाजिक रीतियाँ उसका रास्ता रोक सकती हैं । संसार के कोई नियम क़ानून ऐसे नहीं हैं जिन्हें वह मान सकती हो। यह भारतीय स्त्री का मनमाना आचरण है जो कि इतना सामान्य भी नहीं है । यह परिवारों के बदलते स्वरूप का एक मिर्मम उदाहरण है ।
मेरा, कहानी एकल परिवार की है । जहाँ एक बेहद महत्वाकांक्षी पति महेंद्र अग्रवाल है, और बच्चे की चाह रखने वाली पत्नी मीता है । कैरियर के आरम्भिक दिन हैं, सीमित आमदनी वाला परिवार है, उस पर बच्चा ? महेंद्र के हिसाब में बच्चा कहीं फ़िट नहीं बैठता । वह तो महत्वाकांक्षा की राह में अड़ंगा भर हो सकता है, इसलिए महेंद्र को वह नहीं चाहिए । उसे रोकने के लिए ही तो रोज़ एक गोली सटकनी होती है मीता को । कब और कहाँ भूल हुई कि गर्भ रह गया । भूल हुई या उसने जानबूझकर भूल की है । हाँ मात्र एक – दो बार आ गया आलस उसे याद है । पंद्रह दिन पूर्व ही तो सलज्ज मुस्कान के साथ उसने पति को यह शुभ समाचार सुनाया था । परंतु नहीं, यहाँ खुश होने जैसा कुछ नहीं था । महेंद्र को पाँच – छह बरस तो कोई बच्चा नहीं चाहिए । महेंद्र को क्रोध आ गया । हर महीने गोलियों का पैकेट हाथ में थमाया और नतीजा यह निकला । आ गई मुस्कुराती, अदाएं दिखलाती अपनी मनहूस खबर सुनाने । वह ऐसा सोचता है । उसे तो अमरीका जाना है एम एस करने । यहाँ मीता के मन में यह तर्क हो सकता है जब अमरीका जाना ही था, एम एस करना ही था, तो शादी ना जाने क्यों कर ली पहले । महेंद्र एक प्रकार से तो सही ही है, वह किसी अभाव में बच्चे को पालना नहीं चाहता।
अमरीका जाना हकीम ने तो बता नहीं रखा । मीता कहती है। दोनों के बीच गरमा – गर्मी बढ़ रही है । झगड़ा होने ही वाला है कि, झगड़ा होते – होते महेंद्र सम्भल गया है । उसने बहुत प्यार से कहा “मेरी मानो एबोर्शन करा लो।”
मीता यह बिलकुल नहीं चाहती उसे पति हत्यारा दिखता है । पर जब उसकी माँ भी महेंद्र की बात का समर्थन करती है तो वह माँ के घर से भी लौट आती है । मीता अंत तक अपने पेट में पल रहे भ्रूड़ की हत्या के लिए मन से राज़ी नहीं हो पाती । और वह अस्पताल के फार्म पर अपनी इच्छा और अपने दायित्व के स्थान पर लिख देना चाहती है,”मैं साफ़ कहती हूँ, मैं अपने बच्चे का खून इसलिए करवा रही हूँ, क्योंकि उसका कोई बाप नहीं है । अपनी कोख में रहकर पैदा होने से इसलिए मरहूम कर रही हूँ, क्योंकि जिस पुरुष का वह बीज है, वह उसका पिता नहीं केवल मेरा पति है । । नहीं , पति नहीं, केवल मेरा प्रेमी है । प्रेम भी नहीं केवल एक पुंसक पुरुष है, अपने पुंसत्व से लाचार । नपुंसक का हृदय लिए एक पुरुष देह ।”
महेंद्र अस्पताल में देर तक ठहर भी नहीं पाता और वह दस्तख़त करके जाने वाला होता है । परंतु बक़ौल डॉक्टर यह मीता का निजी मामला है ।”पति से पूछे बग़ैर गर्भ गिराया जा सकता है तो रखा भी जा सकता है ।” मीता ने डॉक्टर से पूछा । मीता का निश्चय दृढ़ हो जाता है । और वह पति की आज्ञा की ग़ुलाम ना रह कर अपना स्वतंत्र निर्णय लेती है ।बच्चे को जन्म देने का निर्णय । महेंद्र बहुत लाचार महसूस करता है और खड़ा मीता को देखता ही रह जाता है । इस तरह यह एकल परिवार है जहाँ किन्हीं विषयों पर विचारों का सामंजस्य नहीं भी हो सकता । अपने – अपने विचार अलग हो सकते हैं । और निर्णय भी अलग – अलग हो ही सकते हैं और हुए भी । मीता पुरातन पंथी स्त्री क़तई नहीं है । वह कामकाजी स्त्री है । इस नौकरी में वेतन कम है तो क्या वह बच्चे के पालन – पोषण का खर्च सम्भालने के लिए नई नौकरी तलाशना शुरू करने का निश्चय करती है । यह परिवार भी स्त्री की बदलती स्थिति दर्शाता है । अब पहले की तरह वह मौहताज नहीं है, ना पति की ना पीहर की ।
डैफ़ोडिल जल रहे हैं- इस कहानी में दो अलग – अलग परिवार हैं । दोनों ही परिवार एकल हैं । वे दोनों ही कश्मीर भ्रमण के लिए आए हैं । सुधाकर और वीना । डॉक्टर फ़िरोज़ और जिना ।वीना बीमार पड़ गई है। डॉक्टर फ़िरोज़ ही उसका उपचार करते हैं । सुधाकर और वीना तो अभी एकदम नए दम्पति हैं, उनके विवाह को मात्र पंद्रह ही दिन हुए हैं ।
आपस में उन दोनों परिवारों का कोई वास्ता नहीं है । परंतु वीना की बीमारी ही उन दोनों दंपतियों के मिलने की राह बनती है । सब कुछ ठीक है । वीना की बीमारी भी ठीक हो गई है । बहुत ही विचित्र घटना घटती है कहानी में । बर्फ़ की खाई में गिरकर जिना की मृत्यु हो जाती है । पर उसका पत्र वीना से नाम आता है जिसमें उसने अपने मरने के लिए यही खिल्लनमर्ग की खूबसूरत खाई को खुद चुना था।अभी मरना ज़रूरी नहीं था पर उसने वही किया। यहाँ भी विचित्र निर्णय है वह भी पत्नी का ही ।दो एकल परिवारों क़ी कहानी एक का पारिवारक जीवन तो अभी आरम्भ ही हो रहा है और दूसरे परिवार का जीवन पारिवारिक जीवन जिना के मार जाने से समाप्त हो गया है ।
लिली ऑफ़ द वैली कहानी में चार सहेलियाँ हैं । तीन का विवाह हो गया है । अंतिम बची सहेली के विवाह पर सब आए हैं । इस कहानी में निशी एक ऐसा चरित्र है जो अपने परिवार के सम्मान को झूँठ बोलकर भी बचाने को तत्पर है । वह तमाम परेशानियों के बावजूद किसी को यह भनक भी नहीं लगने देती कि उसे कोई परेशानी है । उसका पति भले ही खूब शराबी है पर वह उसे भला और प्रेमी ही दिखाती रहती है । यह ‘अवकाश’ और ‘मेरा’ कहानियों की नायिकाओं से अलग स्त्री है । यह परिवार के लिए प्रतिबद्ध है और अपने परिवार को बहुत सम्पन्न और उदार दिखाना चाहती है ।
गुलाब के बगीचे तक यह एक ऐसे मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है जिसमें गृहस्वामी का एक सपना है कि वह मेरठ में अपनी एक छोटी सी कॉटेज बनाएगा, गुलाब की बगिया लगाएगा। मुंबई की बहुमंज़िला इमारत में धूप नहीं आती तो कोई गुलाब भी नहीं खिलता, वह कहता है कि ,”हम अपना परिवार सीमित रखेंगे ।“ बेटे के बाद बेटी की पैदाइश पर उसने कहा था । “मैं दोनों को खूब पढ़ाऊँगा । जिससे दोनों अपने पैरों पर खड़े हो सकें । मुझे ना लड़की के लिए दहेज जुटाना है, ना लड़के के लिए जायदाद ।जैसे ही वे अपनी नौकरी से लगेंगे मैं रिटायर हो जाऊँगा । परंतु वह मनचाहा कर नहीं पाता है । यह एक मध्यम वर्गीय परिवार का मुखिया है । पारिवारिक दायित्वों को निभाने के उपक्रम में वह अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ाता चलता है । वह बच्चों को अच्छी तरह पढ़ा – लिखा कर काबिल बनाने की बात इसलिए सोच रहा था ताकि उसे बेटी की शादी में दहेज देने की बाध्यता ना हो । और बेटे को काबिल बनाए ताकि उसे कोई व्यवसाय कराने में पैसा ना लगाना पड़े । अपने रिटायरमेंट के बाद अपने लिए एक सुंदर स्थान बनाकर रहने की कल्पना भी कर रहा था । बेटी के लिए दहेज और बेटे के लिए जायदाद ना जुटाने की प्लानिंग कर तो रहा है पर उसे बेटी के लिए दहेज भी जुटाना पड़ा है और बेटे को कारोबार कराने के लिए रुपए भी जुटाने पड़े हैं । यह गृहस्वामी की विडम्बना है कि वह अपनी संतान का भविष्य संवारने के लिए अपना सपना बली चढ़ा देता है । भारतीय परिवार का यह भी एक प्रमुख रूप है जहाँ पिता अपनी इच्छाओं की आहुती देता चलता ।जहाँ गृहस्वामी परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए अपनी हर इच्छा को मारता चला जाता है ।
मंज़ूर – नामंज़ूर
एक छोटा सा घर है, जिसमें एक बड़ा सा परिवार रहता है । माँ – बाप, चाचा – चाची,छह बच्चे, एकाध स्थाई मेहमान, दो – चार रैन बसेरा करते मुसाफ़िर भी होते ही हैं। परंतु कहानी यहाँ दो बहनों की ही है । यहाँ वे दोनों बहने एक ही परिवार का हिस्सा हैं । मध्यमवर्गीय परिवार जिसमें दोनों बहनों का जन्मदिन एक ही तारीख़ को पड़ता है, वे भले ही छोटी बड़ी हैं । पर वे बराबर की यानी जुड़वां ही करार दे दी गई हैं । मंज़ूर मैत्री करने की बेहद शौक़ीन है । विवाह के बाद भी वैसी ही है । मुंबई जैसे महानगर में भी उसकी खूब सहेलियाँ हैं। जयपुर आकर भी वह किसी पुराने ख़ानदानी दोस्त के बेटे को पत्र लिखती है जो सेना में मेजर है ।मंज़ूर का परिवार एक परंपारगत परिवार है फिर भी उसके आ जाने पर परिवार में इतनी स्वीकार्यता तो है कि उसके पति को कोई ऐतराज नहीं है । उसके द्वारा कोई विरोध नहीं किया गया है। वह एक आधुनिक सोच का परिवार सिद्ध होता है। विवाह पूर्व दोनों बहनों की निकटता, उनके क़िस्से, उनके ग़ुस्से एक परिवार का सहज रूप दर्शाते हैं । जैसे मंज़ूर अपनी युवावस्था में बूढ़ी होने से डरती है तो बहन नामंज़ूर को हंसी आ जाती है जिस पर उसे कि चाँटा भी पड़ता है । इस पर वह कहती है कि चाँटा भी मैंने खाया और माफ़ी भी मैंने माँगी । यह बहनों या परिवार के बीच बहुत सहज और सहनशीलता का उदाहरण है ।
वह मैं ही थी,
यह एक दम्पति की कहानी है । जो स्थानांतरण होकर किसी बड़े शहर से क़स्बे में आए हैं । सीमेंट जिसकी हवाओं में । पत्नी उमा गर्भवती है । जिस घर में आए हैं उस घर में उनसे पहले भी एक स्त्री थी जो गर्भवती थी और प्रसव के दौरान उसकी मृत्यु हो गई थी । पर जो पलंग उसने अपने लिए बनवाया था वह इसी घर में छूटा रह गया है । उसकी मृत्यु उसी पलंग पर हुई थी जिस पर यह वर्तमान गर्भवती गृहणी सोती है । आस – पास की स्त्रियों ने उसकी भयावह मृत्यु की कहानी इस स्त्री को भी सुना दी है। यह स्त्री यहाँ नहीं रहना चाहती, विशेषकर उस पलंग पर नहीं सोना चाहती । स्त्री की सासु माँ भी उनके साथ ही रह रही हैं । परंतु उसका पति या उसकी सासु माँ कोई गर्भवती के डर या उसकी इच्छा को मान नहीं देता । पड़ोस की स्त्रियों के माध्यम से वह गर्भवती स्त्री यह भी जान गई है कि पहले यहाँ रहने वाला पुरुष दूसरा विवाह करने गया हुआ है, अकेले उसका मन नहीं लगा इसलिए । इतनी जल्दी वह सामान्य हो गया यह उसे कचोटता है और कहीं ना कहीं वह अपने पति को उसकी जगह रखकर देख रही है और खुद को उस स्त्री की जगह ।
वह जब भी मनीष, यानी अपने पति से अपना डर कहती है तो वह टाल जाता है । यहाँ तक कि वह उस पलंग को भी बदलने का पत्नी का आग्रह नहीं मानता, जिससे उसकी पत्नी भयभीत है । वह साफ़ – साफ़ कह देता है कि “कोई एक औरत बच्चा जनते इस घर में मर गई तो इसका यह मतलब नहीं कि सब मरेंगी । औरतों को तो बात से बात निकालने का चस्का होता है । मेरे पास इतना वक्त कहाँ है ? अभी तबादला हुआ है नया काम समझने निपटाने के बाद बिस्तर पर लेटता हूँ तो बदन चस-चस कर रहा होता है । मुझे तो साँस लेने में भी कोई तकलीफ़ नहीं होती, ना किसी औरत का भूत मुझे सताता है । बढ़िया आरामदेह पलंग है । टीसते बदन को सुख मिलता है । गहरे सोऊँ नहीं तो अगले दिन काम कैसे करूँ ?” कभी – कभी पत्नी उसे झकझोर कर जगा देती । कहती, “दम घुट रहा है मेरा ।” एक गर्भवती पत्नी की कितनी अनदेखी करता है पति वह कहता है, ‘बेवक़ूफ़ी की बात मत करो’ , ‘हवा में सीमेंट के कण हैं, इसीलिए साँस लेने में तकलीफ़ होती है । शुरू – शुरू में सभी को होती है, फिर आदत पड़ जाती है। सबको पड़ गई तुम्हें क्यों नहीं पड़ेगी ? दम घुटकर कोई नहीं मरा आज तक । कोशिश करो, नींद आ जाएगी । आदमी चाहे तो बैठे – बैठे भी सो सकता है ।और चारा भी क्या है, तुम्हीं बतलाओ, मैंने तो कहा था कि दिल्ली(पीहर) चली जाओ, पर तुम…. ‘ अपने घर वह नहीं जा सकती । वहाँ उसकी बहनें बहुत आधुनिक हैं मौज – मस्ती करने वाली हैं, उमा के जाने पर वे अपने पिक्चर सिनेमा में बाधा से घबरा गई हैं । उसका परिवार विचित्र है उसकी बहनों को पेट बढ़ी औरत को साथ ले कर बाहर जाना पसंद नहीं क्योंकि उससे उन्हें अपनी सोफ़िस्टिकेटेड इमेज के टूटने का ख़तरा दिखाई देता है । वे एक – दूसरे के लिए खड़ी रहने वाली बहनें नहीं हैं । वे मानती हैं कि बच्चे का जन्म उसकी और उसके पति की व्याक्तिगत समस्या थी, जिससे उनका कोई सम्बंध नहीं था । गर्भवती उमा के दोनों ओर के परिवार बहुत संवेदहीन हैं ।
इसीलिए उमा पीहर जाने के नाम पर निरुत्तर ही रह जाती है बस । मनीष अपनी ही बात रखता जाता है पत्नी की सुविधा – असुविधा या उसके डर का उसके दिमाग़ में कोई ख़ास ख़याल नहीं है । । उस डरी हुई गर्भवती स्त्री उमा की बात ना तो पति ने सुनी है और ना ही पति की माँ ने ।
अगर सही – सही आकलन किया जाए तो इस परिवार का रूप काफ़ी कुछ संवेदनहीन है । उमा प्रसव के दौरान दम तोड़ देती है, पर उसने एक जीवित बेटी को जन्म दिया है । इस तरह एक और औरत के मर जाने से पहले ही संसार में एक दूसरी औरत जन्म ले चुकी है। सास और पति यानी परिवार ने अगर थोड़ी संवेदना से काम लिया होता तो शायद उमा भी जीवित होती । स्त्री के प्रति यह परिवार संवेदनशील नहीं है ।
बैंच पर बूढ़े , यहाँ एक संयुक्त परिवार है । माता – पिता उनका बेटा – बहू और उनके बच्चे । बेटे की शादी के बाद नितिन यानी उसके पिता ने चाहा भी था कि दोनों परिवार अलग – अलग रहें परंतु उनकी बहू मान्या ने मनुहार की थी,
“प्लीज़ – प्लीज़ हमारे साथ रहिये, बच्चों को – जो एक के बाद एक तीन बरस में हो लिए – दादा – दादी के संग – साथ की सख़्त ज़रूरत होती है, ऐसा आजकल की तमाम मनोवैज्ञानिक स्टडीज़ कहती हैं ।” अर्थात् बहू को किसी प्रयोजन से घर के बुजुर्ग अपने साथ चाहिए । अगर वे नहीं रहे तो उसे खुद को भी अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है या फिर बच्चों की देखभाल के लिए किसी आया को एक मोटी तनखाह पर रखना होगा । बहू ने बहुत ही विनय पूर्वक आग्रह किया है जिससे कि दफ़्तर में खुर्राट क़िस्म के बाबू रहे नितिन और उनकी सीधी – सादी पत्नी भागवती बहू बेटे की विनय और अभ्यर्थना के आगे सहज ही झुक गये । भागवती रोज़ अच्छा – अच्छा नाश्ता खाना बना बनाकर खिलाने लगी । बच्चों की फ़रमाइश पर भागवती ने चाइनीज़ आदि खाना बनाना भी सीख लिया । सास के इतनी मेहनत से खाना बनाने और नई – नई डिशेज़ बनाने के बावजूद कभी – कभी बहू यह भी कह देती कि चायनीज शेफ़ जैसा तो नहीं बना । भारतीय परिवारों में सामन्यतः जहाँ सास को अत्याचार करने वाली समझा जाता है वहीं भागवती ने अपने भलप्पन के कारण कभी लौटकर कुछ नहीं कहा और लगातार पूरे परिवार के लिए खाना बनाती रही और दूसरे काम करती रही । वह बच्चों की फ़रमाइश के नए व्यंजनों को टी वी पर देखकर सीखती और बच्चों के लिए बनाती । टी वी देखती है तो बहू उसे भी मना करती है कि बच्चों के सामने टी वी ना देखा करें । घर में अपनी तरह से रहने की स्वतंत्रता उसे नहीं है ।
इस परिवार में दो पीढ़ियाँ और उनका अंतर साथ खड़ा है । समय के साथ आ गए बदलावों के बाद आधुनिकता का भी समावेश हो गया है। सास के समय से इस समय पूर्ण परिवर्तन हो चुका है अब यह परिवार अपने नवीन स्वरूप में खड़ा है । जो बड़े – बूढ़ों को एक उपयोगिता समझता है । अपनी इच्छ्नुसार ढल जाने वाले जीव समझता है ।
ख़ुशक़िस्मत
यह एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसमें दो बेटे हैं । एक बेटा जीवित नहीं रहा है । बुजुर्ग दम्पति उस दारुण दुःख से गुजरे हैं । पिता टूट गए हैं आर्थिक रूप से भी मानसिक और शारीरिक रूप से भी । एक दूसरा बेटा और है सुशांत, वह भी भाई के सदमे में दो बरस तक बीमारी से जूझता रहा है । माँ अक्सर उसके पास आती रही है । उसकी पत्नी अभिलाषा की वह बहुत प्रशंसा करती आई है । सास – बहू दोनों के बीच अच्छा सम्बंध है । वे उसे अपनी बेटी जैसी और खुद को ख़ुशक़िस्मत बताती आई हैं । पर बेटे प्रशांत की मृत्यु के बाद वह सोचती है कि उसकी ख़ुशक़िस्मती को नज़र लग गई है । वह ख़ुशक़िस्मत कहलाने से डरने लगी है ।सुशांत के घर पूना वे अकेली ही आती रही हैं । परंतु पहली बार उनके पति भी साथ आए हैं । पति को बेटे की मौत का सदमा भीतर – भीतर खोखला कर गया है । वे अशक्त हो गए हैं । सुशांत के घर के सामने वे गिर कर बेहोश हो गए हैं । जिस बहू को वे अपनी बेटी जैसी बताती हैं उसका रवैया अचानक बदल गया है । उसकी बेटी इशिता जब दादा की ओर बढ़ती है तो बेटी जैसी बहू ने इशिता को डाँट कर ऊपर जाने के लिए कहा है । वह नहीं चाहती कि उसकी बेटी बीमार बूढ़े दादा के साथ पल भर भी व्यर्थ गँवाए ।
जब कथानायिका नलिनी पति को अस्पताल ले जाने के लिए कहती है तो बहू इच्छुक नहीं है । कभी इतवार बताती है, कभी ससुर को चलने में असमर्थ बताकर टाल देती है । नलिनी द्वारा एम्बुलेंस की बात भी अनसुनी कर दी गई है । बहू कह देती है कि कल तो आप दिल्ली जा ही रही हैं वहीं अपने डॉक्टर से पूछ लीजिएगा । पोता जब दादा को बाथरूम यह कहकर ले जाने लगता है कि मैं ले जाऊँगा नाना को भी मैं ही ले जाता था । पर उसकी माँ अभिलाषा उसे कह देती है तुम जाओ, पापा हैं न । यानी यह एक ऐसा परिवार है जहाँ पत्नी की बात सर्वोपरि है, मान्य है । वह अपने पिता को अपने पास रख सकती है । अपने बच्चों से अपने पिता की सेवा करा सकती है पर पति के पिता को नहीं रख सकती और उसके बच्चे भी उनकी सेवा नहीं कर सकते । जहाँ बच्चों का दादी – दादा के साथ सम्पर्क में रहना अच्छा माना जाता था । वहीं इस परिवार की बहू अपने बच्चों को दादा – दादी से दूर ही रखना चाहती है जबकि वह अपने पिता के लिए अपने बच्चों से काम कराती रही है ।
इस परिवार का रवैया एकदम विचित्र लगता है तब, जब पिता चल भी नहीं सकते और बेटा – बहू उन्हें अपने पास रखकर इलाज कराने के स्थान पर उन्हें अकेली माँ के साथ फ़्लाइट से दिल्ली भेज देते हैं । रास्ते में खड़े से गिर जाने के कारण सिर में चोट लगी है । नाक से खून भी आ गया है, पसलियाँ भी टूटी हुई हैं, पिता की उमर सत्तर के आस – पास है । पर बेटे को नहीं लगता कि उसके पिता को उसकी ज़रूरत है इस समय । वह पिता को एयरपोर्ट व्हील चेयर पर बैठा कर ले जाने की सलाह दे रहा है । यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है । परिवार के बदले हुए संस्कारों की झाँकी है । यह परिवार का कुरूप और अग्राह्य स्वरूप है जहाँ बच्चों के मन में बूढ़े हो गए अशक्त माता – पिता की परेशानियाँ मायने ही नहीं रखतीं ।
मेरे देश की मिट्टी, अहा
यह कहानी एक अनाथ लड़की लल्ली की है जिसने अपने जीवन का आरम्भिक समय किसी रिश्तेदार के घर काटा । परिवार में ठीक ही ठाक रही । परंतु जब उसका विवाह रिश्तेदार की बेटी की मृत्यु के बाद उसके विधुर पति से करवाना तय हुआ है तो वह एक मुस्लिम लड़के के साथ भाग गई है । वह लल्ली से लैला बन गई । लल्ली को निकाह के वक्त अपनी राय लिया जाना बहुत अच्छा लगा है, क्योंकि कभी उसकी हाँ या ना का कोई महत्व नहीं रहा । वह सुख का सपना लिए अपना परिवार चलाने उस मुस्लिम युवक के साथ रहने को चली गई । वह शहर से गाँव ले जाई जाती है । पता चला शौहर की एक और पत्नी पहले से मौजूद है । परंतु पहली पत्नी का इंतक़ाल हो गया तो लैला बनी लल्ली गाँव खेड़ी फिर से गई । उसका मन वहीं लग गया उसने अपने सास – ससुर की बहुत अधिक सेवा की और मरने वाली के दो बरस के बच्चे को खूब लाड़ – प्यार भी किया ।
ख़ैर लैला ने पति के साथ एकल परिवार में ना रह कर, रहने के लिए संयुक्त परिवार चुना । वह एक अलग बात है कि उसने वहाँ अपना भी स्वार्थ देखा ।लल्ली या लैला इंटरमीडिएट पास है । वह गाँव में साथिन नियुक्त कर दी गई है । इसी के माध्यम से वह अपनी धाक जमाती है ग्रामीणों के मध्य ।
परिवार को देखें तो उसके शौहर ने शहर में भी एक और बीवी रख ली है । इस मुस्लिम लड़के से जब लल्ली ने ब्याह रचाया था तो एक कारण यह भी था कि यह डेढ़ पसली का लड़का था मार – पीट करना उसके बस का नहीं था । परंतु मार -पीट करना तो जैसे शौहर का फ़र्ज़ होता है । वह गाँव आया है और वहाँ पता चला है कि लैला ने अपनी भी नसबंदी करा ली है । यह बात शौहर के धर्म के ख़िलाफ़ है तो शौहर का आपा खोना तय था ही । आपा खोया इतना कि तलाक़ तलाक़ तलाक़ भी बोल दिया । लैला कुटी – पिटी ठीक, पर राहत की साँस ली उसने । एक नौजवान के साथ शादी भी रचा ली, साल के भीतर ही बच्चा भी हो गया । परिवार अपना तो बन ही गया और लैला ने अपने पति की पहली ब्याहता के बेटे को भी अपने साथ ही रखा । इस तरह यहाँ तीन चार परिवार एकत्र हैं एक लल्ली का हिंदू परिवार, एक लैला का पति वाला एकल परिवार और फिर संयुक्त परिवार और अंत में ब्याह रचाकर वह फिर एकल परिवार की गृहिणी बन गई है । इस तरह लैला के परिवार का स्वरूप भी कई बार बदलता है ।
वो दूसरी
इस कहानी में एक संयुक्त परिवार है । जहाँ एक भाई की पत्नी की मृत्यु हो गई है जिस कारण उसका दूसरा विवाह किया गया है । जिस स्त्री से विवाह किया गया है उसका घर वेश्याओं के मोहल्ले में है । इसीलिए नई पत्नी उनके प्रभाव में है और वह ग़ज़ल गायकी की शौक़ीन भी है । ब्याही जाकर भी वह ग़ज़ल गाना नहीं छोड़ती । ज़ाहिर नहीं है परंतु भीतर – भीतर उसके पति भी उसकी कला के दीवाने हैं । जब बेटे का विवाह होता है और दुल्हन घर में आती है तब भी वो ग़ज़ल ही गा रही है । उसकी जेठानी का ही ज़िम्मा है चारों बेटों की देखभाल का । एक उनकी अपनी भतीजी भी है । जेठानी कभी पक्षपात नहीं करतीं । वे पूरी ज़िम्मेदारी के साथ सारे बच्चों और परिवार की देख – भाल करती हैं । छोटी की तो कोई ज़िम्मेदारी ख़ैर है ही नहीं । वह तो ग़ज़ल गायकी और चौपड़ में व्यस्त रहती है । इस परिवार में वैसा ही हो रहा है जैसा कि अक्सर संयुक्त परिवार में होता ही है, कि जो सक्षम होता है वही ज़िम्मेदारी भी वहन करता है । खाना बनना शुरू हुआ कि दूसरी चौपड़ बिछा कर बैठ जाती और अपनी बहू से कहती कि आओ बीबी दो एक बाज़ी हो जाएँ । अर्थात् उसका कोई व्यवहार सास जैसा नहीं कहा जा सकता था । जेठानी नहीं चाहतीं कि नई बहू उनके साथ बहुत देर तक बैठे । नई बहू के साथ दूसरी भी गर्भवती है । यह बात घर में लज्जा की बात लगी । संयुक्त परिवार की महिला मुखिया ताई सास ने नई बहू को शहर भेज दिया । घर में दो बच्चियाँ पैदा हुईं, एक नई बहू को और एक दूसरी सासू माँ को । दूसरी यानी सासू माँ की बेटी जीवित नहीं रही है । अब वह सदमे के कारण गम्भीर हो उठी और सदमे से बाहर भी नहीं आ सकी । बोली तो बस इतना कि “एक पहली थी, बच्चा जन्मा तो सलामत रहा, खुद चल बसी । एक करमजली मैं हूँ, बच्ची को लील खुद ज़िंदा बैठी हूँ ।”
यहाँ इस परिवार की स्त्रियों में जेठानी ही ज़िम्मेदारियों का वहन करती रही हैं । संयुक्त परिवार यही है, कोई एक जो ज़िम्मेदार होता है वही अपने कर्तव्यों को पूरा करता चलता है । कोई दूसरा ज़िम्मेदार नहीं भी हो सकता, जैसे दूसरी है ।पुराने समय के परिवारों में आपसी प्रतिस्पर्धा आज की तरह नहीं थी कि बड़ी ने कोई काम क्यों नहीं किया या किसी छोटी ने कोई काम क्यों नहीं किया । वह आपसी सामंजस्य का समय था, जिसे जो आता था वह वो काम कर लेता था । थोड़ी ऊँच-नीच चलती रहती थी बहुत सहनशीलता थी आपस में, जो आधुनिक परिवारों में दिखाई नहीं देती ।
कितनी क़ैदें
इस कहानी में परिवार के नाम पर पति – पत्नी ही हैं । एक रात पति, पत्नी मीना को वहाँ ले गया जहाँ वह खुद काम करता है । नदी के नीचे जहाँ पानी ख़त्म हो जाता है । पानी के बाद पचहत्तर फ़ीट नीचे फिर से जमीन है । मीना बेहद घबराई है कि धरती के नीचे वे मर जाएँगे घुट – घुट कर । इसी डर से वह पति के प्रणय निवेदन को भी ठुकरा देती है । वे सही सलामत लौट रहे हैं, लिफ़्ट में हैं और लाईट चली जाती है । लिफ़्ट बाद हो गई है । वे वाक़ई घुट कर मार जाने की कगार पर पहुँच जाते हैं । तब मीना अपने अतीत की बातें साझा करती है पति से कि क्यों वह उससे प्यार नहीं कर सकी । पर आज बताने के बाद वह आज़ाद हो गई और अब वह उसे प्यार कर सकेगी । मौत के साए में पति विचलित हुए बग़ैर उसकी नशा करने की कहानी और लड़कों के साथ शारीरिक सम्बंध बनाने की कहानी सुनता रहता है । बस कोई कहानी मात्र समझकर । परंतु लिफ़्ट में काफ़ी देर बँद रहने के बाद, जीवन की आशा छूटने के बाद अचानक ही लिफ़्ट चल पड़ती है और जीवन की आस छोड़ चुके वे दोनों सुरक्षित ऊपर आ जाते हैं ।
मीना कहती है कि, “लगता है मैं तो लिफ़्ट की ही नहीं ज़िंदगी की क़ैद से निकल आई हूँ ।”
उधर मनोज सोच रहा है कि “यहाँ तक तो ठीक है। पर अब सवाल मौत का नहीं, ज़िंदगी का है । क्या मैं इसकी पिछली ज़िंदगी की सलाख़ों से बरी रह सकूँगा ?” यहाँ इस परिवार का वही रूप है जो चलता आ रहा है । ऐसा नहीं कि पत्नी की ग़लतियों का उसके ऊपर कोई असर ही नहीं पड़ा । बल्कि अब उसे सामान्य रह पाने और उसके साथ जीवन गुज़ारने के बारे में भी संदेह है ।इस तरह वह पति पारम्परिक रीतियों पर ही चल रहा है । पत्नी के खुद गलती मान लेने के बाद भी वह खुद के सम्बन्धों को सामान्य होते नहीं देखता । इस तरह यह एकल परिवार अतीत की खोह में गिर कर भ्रमित हो गया है ।
मृदुला गर्ग जी की कहानियाँ अपने अलग अन्दाज़ में दिखाई देती हैं । उनके विषय अलग हैं और परिवारों के स्वरूप भी भिन्न -भिन्न हैं । जहाँ मंज़ूर – नामंज़ूर जैसी बिंदास कहानियों के परिवार हैं, वहीं ख़ुशक़िस्मत जैसी कहानियों के परिवार भी हैं। जिनके करीबी होने का भ्रम तो है पर वे समय पर करीबी साबित ना होकर ग़ैरज़िम्मेदार ही साबित होते हैं । या डैफ़ोडिल जल रहे हैं में एकल परिवार की अजीब सी घटना है । मृदुला जी की कहानियाँ अलग – अलग विषयों पर अपना अलग ही संसार रचती हैं ।
– निर्देश निधि
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!