Monday, May 13, 2024
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“आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा, वाया कोलकाता”

वाणी प्रकाशन से पिछले दिनों चर्चित लेखिका गरिमा श्रीवास्तव की का उपन्यास ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा‘ आया है। प्रसिद्ध पत्रकार पुष्परंजन ने इस किताब पर एक सुंदर टिप्पणी लिखी है। उसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
पुष्परंजन नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण और हिंदुस्तान में दशकों पत्रकारिता के बाद लगभग सात वर्षों तक जर्मनी में डायचेवेले के संपादक रहे. इन दिनों ब्रसेल्स स्थित समाचार एजेंसी ‘ईयू एशिया न्यूज़’ के दक्षिण एशिया संपादक हैं. पढ़िये उनकी यह टिप्पणी।

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– पुष्परंजन
तय करना कठिन है कि युद्ध बंदियों को यातना देने में जर्मन आगे थे, या ब्रिटिश? इन्हें छोड़िये, अमेरिकी, रूसी और जापानी भी युद्ध बंदी शिविर बनाने में पीछे नहीं थे। 1896 से 1907 तक का इतिहास पलट लीजिए। क्यूबा, दक्षिण अफ्रीका और फिलिपींस के कंसंट्रेशन कैंपों में बर्बरता की दास्ताँ दफन है। बेलेरियानो वेलर वाई निकोलाउ स्पेनिश जनरल थे। क्यूबा में ग़ुलाम प्रथा से मुक्ति की लड़ाई चल रही थी, जिसे कुचलने के वास्ते जनरल बेलेरियानो को फिलीपींस से वहां भेजा गया। 10 फरवरी 1896 को क्यूबा का गर्वनर बनते ही जनरल बेलेरियानो ने ‘रिकंस्ट्रक्शन पॉलिसी‘ बनाई, जिसके तहत क्यूबा के अलग-अलग इलाक़ों में कंसंट्रेशन कैंप बनाये गये। क्यूबा के कंसंट्रेशन कैंपों में तीन लाख 21 हज़ार 934 लोग क्रूरता की भेंट चढ़ गये। अमेरिकी प्रेस ने जनरल बेलेरियानो का निकनेम ‘बूचर‘ रख दिया था।
कंसंट्रेशन कैंपों के जनक जनरल बेलेरियानो की ‘रिकंस्ट्रक्शन पॉलिसी‘ अंग्रेजों को भी भा गई थी। दक्षिण अफ्रीका तफ़रीह के वास्ते जो लोग प्लान कर रहे हैं, केप कॉलोनी के बेथुली बोअर वार कंसंट्रेशन कैंप ज़रूर जाएँ। 22 अप्रैल 1901 को इसे बनाया गया, जिसमें गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित बोअर लड़ाकों और उनके परिवारों को बंदी बनाकर रखा गया था। वो डच मूल के थे। ब्रिटिश नहीं चाहते थे कि ‘बोअर रिपब्लिक‘ बने। बेथुली के तंबूनुमा बंदी गृहों में जो यातनाएं दी गईं, उससे ब्रिटेन के सभ्य समाज का चेहरा एक्सपोज़ होता है।
क्रूरता में जापानी भी किसी से कम न थे। मनीला के सांतो थॉमस विश्वविद्यालय को बंद कर जापानियों ने उसे यातना शिविर में बदल दिया था। फिलीपींस के दस कुख्यात कंसंट्रेशन कैंपों को जापानियों ने बनाया था। फिलीपींस का ‘कबानाथुआन कैंप‘ को ज़ीरो वार्ड कहा जाता था। कहते हैं, जो यहां गया, ज़िंदा लौटकर नहीं आया। आप इसपर ग़ौर कीजिएगा, युद्ध में जो जितना क्रूर हुआ, बुद्ध की विचारधाराओं को बाँचने में सबसे आगे वही दीखता है।
युद्ध से पहले बुद्ध की विचारधाराओं का आगमन जर्मनी में भी हुआ था। 1903 में लाइपज़िग नगर में भारत विद्याविद् कार्ल ज़ाइडेनश्टूकर ने जर्मन-बुद्धिस्ट आर्गेनाइजेशन की बुनियाद रखी थी। 1904 में थेरेवदा बौद्ध बन चुके जर्मन धर्मगुरू फ्लोरस एंटोन ग्वेथ ने बहुतेरे बौद्ध ग्रंथों का पाली से जर्मन में अनुवाद किया था। 1922 में भारत विद्याविद् हर्मन हेस्से अपनी महान कृति ‘सिद्धार्थ‘ की वजह से विश्व प्रसिद्ध हुए थे। 1924 में बर्लिन में डॉ. पॉल दाहेल्के ने ‘दास बुद्धिश्टिशे हाउस‘ के नाम से पहला जर्मन बौद्ध मठ का निर्माण कराया। एक तरफ़ बुद्ध, और दूसरी तरफ़ उसी जर्मन ज़मीन पर एक भयावह विचारधारा की बुआई वायमार रिपब्लिक में हो रही थी। सितंबर 1919 में एडोल्फ हिटलर ने वायमार रिपब्लिक में ‘डॉयचे आर्बाइटर पार्ताई‘ (डीएपी) की आधारशिला रखी। साल भर बाद, डीएपी का नामांतरण हुआ, ‘नेशनाल सोशलिस्टिशे डॉयचे आर्बाइटर पार्ताई‘ अंग्रेज़ी में ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी‘, जिसे ‘नाज़ी पार्टी‘ के रूप में पहचान मिली। चंद वर्षों बाद जर्मनी में बुद्ध के अनुयायी घीरे-धीरे हाशिये पर चले गये।
30 जनवरी 1933 को चांसलर बनने तक 14 साल के सफ़र में हिटलर जर्मन रेस और राष्ट्रवाद के नाम पर सहानुभूति बटोरता रहा। मगर, उसकी क्रूरता की असली पहचान कंसंट्रेशन कैंपों से हुई। 22 मार्च 1933 को म्यूनिख़ से 16 किलोमीटर दूर दाख़ाउ में हिटलर ने पहला कंसंट्रेशन कैंप खोला था। इस बंदी शिविर में उसे वामपंथियों, सोशल डेमोक्रेट और सत्ता से असहमत लोगों को क़ैद करना था। ‘के.ज़ेड. दाख़ाउ‘ से कुख्यात यह कंसंट्रेशन कैंप बहुत जल्द शुत्ज़-श्टाफेल (एसएस) का प्रशिक्षण शिविर बन गया। एसएस का काम था युद्ध बंदियों से तहकीकात, और यातना के नये-नये तरीक़ों को मानव शरीर पर आज़माना। ऐसे शिविर में जीवित इंसान गिनी पिग थे। के.ज़ेड. दाख़ाउ के गेट पर लोहे की छड़ों से संदेश गढ़ा गया- ‘आर्बाइट माख़्ट फ्राई‘ अर्थात, ‘काम से ही आपको मुक्ति मिलेगी‘। 1933 से 1945 के बीच 25 बड़े कंसंट्रेशन कैंप नाज़ियों ने बनाये थे, जिन्हें रेल यातायात से जोड़ा गया था। ‘सेटेलाइट कैंपों‘ की संख्या 1100 के आसपास बताई गई। लगभग सभी कैंपों के गेट पर सरियों से गढ़ा संदेश उकेरा गया-‘आर्बाइट माख़्ट फ्राई।‘ बाद के दिनों में कई कविताएं इस मृत्यु द्वार के हवाले से लिखी गईं।
के.ज़ेड. दाख़ाउ से 600 किलोमीटर दूर बना दुनिया का सबसे कुख्यात आउशवित्ज़ बिर्केनाउ यातना शिविर। दाख़ाउ में मानव शरीर को राख में बदल देने वाली भट्टियाँ, गैस चेंबर आउशवित्ज़ के मुक़ाबिल बहुत छोटे थे। आउशवित्ज वो जगह है, जहां मानवता शर्मशार होती है। मेरे जर्मन सहयात्री भी शर्मशार हुए थे, बॉन लौटने के बाद महीनों हमने बात नहीं की थी। आउशवित्ज़ की जब-जब चर्चा होती है, जाने क्यों ज़ख्मों का टाँका खुल जाता है। ऐसा इस बार भी हुआ है। जेएनयू भारतीय भाषा केंद्र की प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव की किताब, ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा‘ हाथ लगी। 223 पन्नों तक पहुंचते-पहुंचते ज़ख्मों का एक-एक टाँका खुल चुका था।
आउशवित्ज़ की यातना को हमने भोगा नहीं, मगर उस भोगे हुए यथार्थ के साक्षी ज़़रूर हुए हैं। पूरी किताब में पहले मैं यह ढूंढता रहा कि इस यातना केंद्र में किसकी प्रेम कथा को लेखिका ने तलाशा है? ऐसी जगह, जहां आने वालों की नियति में वस्ल नहीं, हिज़्र लिखी होती है। ‘ट्रेजिक लव ऑफ आउशवित्ज‘ बहुचर्चित प्रेम कथा है, जिसमें यहूदी महिला माला ज़िमेटबाउम (क़ैदी नंबर 19880) और एडेक गलिंस्की (क़ैदी नंबर 531) में प्यार हुआ, और दोनों आउशवित्ज़ कैंप से निकल भागे। 2021 में एक और किताब मुझे पढ़ने को मिली, ‘टैटोइस्ट ऑफ आउशवित्ज़‘। लेखिका हीथर मॉरिस ने आउशवित्ज़ में मिली एक डॉयरी के आधार पर अफ़साना गढ़ा था, जिसमें लेले नामक एक स्लोवाक यहूदी को एसएस ने आउशवित्ज कैंप में टैटू बनाने का काम दे रखा था। लेले को उस यातना केंद्र में आई लड़की सीटा से प्यार हो जाता है। न्यूयार्क टाइम्स ने ‘टैटोइस्ट ऑफ आउशवित्ज़‘ को बेस्ट सेलर बुक से नवाज़ा है। लेले और सीटा की लव स्टोरी को समकालीन अंग्रेज़ी साहित्य का मास्टरपीस माना गया है।
प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव ने भी डायरी को आधार बनाकर ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा‘ लिखी है। मगर इस पुस्तक में ‘लेले और सीटा‘ जैसे दो किरदार नहीं, अनेक चेहरे हैं। सबीना, उसके पोलिश-यहूदी पति रेनाटा, रेनाटा के परिवार का लहूलुहान इतिहास, आउशवित्ज यातना शिविर के वैज्ञानिक प्रयोग में अपनी नीली आंखें खो चुके रेनाटा के पिता, रेनाटा के दादा याकूब जो सपत्नीक आउशवित्ज में मौत के मुंह झोंक दिये गये, उनका बड़ा भाई जाकोब। दो वर्षों तक ‘लिव इन’ में सबीना के साथ रहने के बाद ब्रेक कर चुका आन्द्रेई। सबीना की अधेड़ मॉम, अपनी ज़िंसी ज़रूरतों को जैसे-तैसे शांत करने वाली। बेटी को उसकी आलमारी में मिली पोर्न सामग्री, और डिल्डो को लेकर आपत्ति है।
कहानी के केंद्र में प्रतीती सेन, जिनसे यूनिवर्सिटी के दिनों अलग हुआ अभिरूप। केवल इस कारण कि प्रतीती बलात्कार की शिकार मां से जन्मी थी, उसे जीवन संगिनी बनाना स्वीकार नहीं था। पुस्तक के फ्रेम में उपस्थित अभिरूप बार-बार दस्तक देता है, चाहे फ्रेंच पढ़ने वाली उसकी भतीजी फूचकी की चर्चा क्यों न हो। प्रतीती ने अंत में स्वीकार किया कि अभिरूप की सीमा को न समझ पाना, दरअसल मेरी अपनी सीमा थी। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय फौजियों द्वारा बलात्कार की शिकार द्रौपदी देवी, जिसने अपने दादा की उम्र वाले मौलवी से मिस्यारी निकाह (बिना मेहर का कुबूलनामा) के बाद रहमाना ख़ातून बनकर प्रतीती को पाला था। कलंक को लेकर सजग, पुरूषवादी सोच के प्रतीक प्रतीती सेन के नाना बिराजित सेन, अपनी बेटी को इसलिए त्याग देता है, क्योंकि वो बलात्कार की शिकार है। प्रतीती अपनी मां रहमाना ख़ातून की इच्छा पूरी करने हसनपुर जाती है, मगर बिराजित सेन को खुले गले से कभी नाना नहीं बोल सकी। इतने सारे किरदारों को कनेक्ट करना, किसी भी कथा लेखिका के लिए वाकई एक बड़ी चुनौती है।
शायद यह ‘बंगाल स्कूल ऑफ राइटिंग‘ का प्रभाव है, जिसने प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव को एक विस्तृत फलक तैयार करने और एक-दूसरे को कनेक्ट करने वाले लेखकीय कौशल को दिखाने का अवसर दिया है। क्राकोव में खामोश सी सबीना जब प्रतीती सेन से खुलती है, तो फ़िर दो संस्कृतियों के बीच कुछ भी पर्दा नहीं रह जाता। प्रतीती को सबकुछ बता देने की शिद्दत उसे घर से आउशवित्ज़ खींच लाई। बोली, ‘तुम भारत से यहां आ सकती हो इतनी दूर, तो क्या मैं नहीं आ सकती यहां?‘ दोनों की विफल प्रेम कथा कनेक्ट करती रही एक-दूसरे से। हज़ारों मील दूर सबीना यदि पूर्वी पाकिस्तान में लाखों औरतों पर हुए यौन अत्याचार से वाबस्ता है, तो उसे भी कनेक्टिविटी कहेंगे।
हिंदी के पाठक आउशवित्ज़-बिर्कनाउ को समझें, इस प्रयोजन से लेखिका ने नाजियों के अभ्युदय, यातना शिविर का निर्माण, उस कालखंड में कितने लोग मारे गये, न्यूरेमबर्ग ट्रायल जैसे संदर्भों की बहुकोणीय चर्चा की है। आउशवित्ज़ कंसंट्रेशन कैंप में महिला कैदियों के सिर मुंडने से लेकर, देह के साथ उनकी आत्मा को छलनी किये जाने के अनेक दृष्टांत पुस्तक में दिये गये हैं। पुस्तक में 1940 से 1945 की कुछ चिट्ठियां भी नुमायाँ हैं, जिसमें डोरा ज़ाफ्रान, कार्ल डोलिंस्की, मिरियम वेइस, पीटर लेओनार्ड के पत्र उनकी आपबीती के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
हिंदी में संभवतः यह पहली पुस्तक है, जिसमें बांग्ला सब-टाइटिल के साथ हर चैप्टर, और बंगाली में संवाद ख़ूबसूरती से पिरोये गये हैं। ‘नो अंडरवियर‘ पृष्ठ 135 से 139 तक पढ़ जाइये, गरिमा श्रीवास्तव ने साबित किया है कि वो बेबाक और साहसी भी हैं। लिखा, ‘शरीर को आगे झूलने से रोकने, छाती और कंधे के बीच संतुलन, रीढ़ को सीधा रखने के लिए ब्रेसियर ज़रूरी है।‘ आउशवित्ज़-बिर्कनाउ में बंदीनियों ने कैसे ब्रेसियर, सेनेटरी पैड का इंतज़ाम किया, उसे बेलाग होकर लिखना, कम से कम हिंदी अखबारों के चंद शब्द-संकोची संपादकों को सोचने पर विवश करेगा। जिस बात की ख़लिश रह गई, वह ये कि वाणी प्रकाशन की ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा‘ 2021 में आनी चाहिए थी। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का स्वर्ण जयंती वर्ष, और 27 जनवरी 2021 को आउशवित्ज़ मुक्ति की 75वीं वर्षगांठ, ये दो ऐसे अवसर थे, जो इस पुस्तक के प्रकाशन की महत्ता को और मज़बूत करते।
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