Tuesday, May 14, 2024
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मैंने गढ़ा है अपना पुरुष

फ़िल्म निर्माण और अभिनय से जुड़ी हिंदी की सुपरिचित कवयित्री लीना मल्होत्रा स्त्री दर्पण पर” गाहे -बगाहे” नाम से एक स्तम्भ शुरू कर रहीं हैं।वे स्त्री लेखन पर विशेषकर कविताओं पर टिप्पणियाँ लिखा करेंगी।इस क्रम में उन्होंने प्रतिभाशाली युवा कवयित्री अनुपम सिंह ने पहले कविता संग्रह पर लिखा है।
अनुपम का यह संग्रह”मैंने गढ़ा है अपना पुरुष” हिंदी कविता में एक नये कंस्ट्रक्ट की बात करता है।अब तक तो पुरुष ही अपनी नायिकाओं को गढ़ते रहे हैं लेकिन उन्होंने नहीं जाना कि एक स्त्री भी अपने पुरुष नायक को गढ़ना चाहती है।आखिर उसकी दृष्टि से भी चीजों को क्यों न देखा जाए।लीना जी ने अनुपम की कविताओं में प्रेम और यौनिकता की नई इबारत देखी है।
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परिचय
लीना मल्होत्रा
दो कविता संग्रह प्रकाशित
1. मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान, 2011 बोधि प्रकाशन
2. नाव डूबने से नहीं डरती,2016 किताब घर , दिल्ली
3. आधी खिड़की
2023 प्रकाशनाधीन सेतु प्रकाशन
रंगमंच में अभिनेत्री के तौर पर जुड़ी रही, दम्भद्वीप, नाटककार विजय तेंदुलकर, बाकी इतिहास बादल सरकार, नाटकों में मुख्य भूमिकाएं की।
फ़िल्म लेखन व निर्देशन में गहरी रुचि। वर्तमान में एक फ़िल्म ‘an afternoon’ ka निर्देशन कर रहीं हूँ।
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प्रेम और यौनिकता की नई इबारत:
अनुपम सिंह की कविताएं
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अनुपम् सिंह की कविताओं में एक स्वतंत्र चेतना सम्पन्न स्त्री का मन है जो अपनी शर्तों पर प्रेम करती है। यह प्रेम स्त्री -विमर्श की भूमि पर पका है ।वह अपने प्रेमी से यह अपेक्षा रखती है कि वह स्त्री का आदर करें उसके अस्तित्व को समझे उसके साथ समानता का व्यवहार करें और उसे स्पेस दे, कि वह प्रकृति की श्रंखला की एक कड़ी ही हो और उसके प्रेम में बनावटी कुछ न हो बल्कि प्रकृतिस्थ होते हुए ही प्रेम भी अपने सहज रूप में हो, इतना सहज कि केवल प्रेमिका के अधिकार और टिड्डे की उड़ान के अधिकार को एक ही तराजू में तौल जा सके–
“संभल कर चलना होगा हरी घास पर
उड़ते हुए टिड्डे को पहले उड़ने देना होगा”
प्रेम का यह विलक्षण व उदात्त रूप है जिसमें समानता की मांग केवल अपने लिए नहीं है बल्कि अपने सहजीवियों के लिए भी है तो ऐसे पुरुष का मन चाहती है जो प्रकृति के साथ रमा हुआ है जिसे बाजार छू नहीं गया है ।वह बाजारवाद की घुसपैठ को देखने में सक्षम हैं और उसका विरोध करने में समर्थ व इच्छुक । इस तरह इन कविताओं में आंदोलन की आहटें भी हैं। मदन कश्यप अपनी एक कविता में स्त्री की सुंदरता का बखान करते हुए कहते हैं- ‘जब उसने आंदोलन में मुट्ठी लहराई तो वह सबसे सुंदर लगी’ किंतु यहां स्त्री भी पुरुष के सौंदर्य के मानदंड व अपने प्रेम की कठोर कसौटी पर पुरुष को परखती है–
“मुझसे प्रेम करने के लिए तोड़ने होंगे नदियों के सारे बाँध
एक्वेरियम की मछलियों को मुक्त कर
मछुआरे के बच्चे से करना होगा प्रेम “
स्त्री की ऐंद्रिकता केवल उसकी देह के सौंदर्य में नहीं है बल्कि उसके आमंत्रण व उसके व्यवहार में है-
“जब उठूंगी सिगार पीकर उसकी जांघ से
तब कोई दूसरा काम चाहिए होगा उसे
मैंने अपने सारे अरबी घोड़े खोल दिए हैं
कि एक पुरुष को काम मिल सके “
या फिर
” तुम्हारी अर्ध-रात्रि की बातें
मेरे सफेद बिस्तर को लाल कर देती हैं
अतृप्ति कविता को जन्म देती है
मेरी स्त्री को सिर्फ कविता नहीं तृप्ति भी चाहिए “
यह आज की स्त्री की कविताएं हैं जो मन को आत्मा के और देह को मन के कपाट के पीछे नही छुपाती बल्कि एक साहसी स्वीकृति से अपनी व्यैक्तितता को लिंग विभेद से ऊपर उठा कर ले जाती है-
“इसलिये अपनी योनि देखना एक देह को देखना है अपनी देह से परिचित होना है ।”
यह स्त्री अपने जीवन के प्रसंगों को अपने प्रेमी के सामने उधेड़ने में सक्षम है ।यह उस नैतिकता को नहीं मानती जो पुरुष को कौमार्य सौंप कर प्रमाण पत्र चाहता है। यह उन प्रेमियों को, जिन्होंने उसे छोड़ दिया , उस उत्तेजना को, जिसे समाज ने स्त्री की उत्तेजना होने के कारण अश्लीलता का नाम दिया, में अपनी उत्तेजना को याद रखती है ।उसकी उपेक्षा अपनी प्रतीक्षा को सगर्व अपने प्रेम के घेरे में लेती है।
“किसी दिन तुम पूछोगे मेरे प्रेमियों के नाम मैं अपना निजी कहकर टाल जाऊंगी लेकिन प्रेमी वही नहीं था
जिसने कोई वादा किया और निभाया भी जिसके साथ में पाई गई सिविल लाइंस के कॉफी हाउस में
जिसके साथ बहुत सारी कहानियां बनी
और शहर की दीवार पर गाली की तरह चस्पां की गई
वह भी था जिसके आगोश में
जाड़े की आग मुझे पहली बार प्रिय लगी
जिसमें कोई वादा नहीं किया
और स्वप्न टूटने से पहले ही चला गया
मैं वह आग हर जाड़े में जलाती हूँ
वह भी जिसके सम्मुख मैंने
सबसे झीना वस्त्र पहना
फिर धीरे धीरे उतार दिया
जो मुझे नहीं किसी और को प्रेम करता था”
उनकी कविताओं में प्रेम अनेक बार आता है और वह कोई पाखंड नहीं करती उसको छुपाने का, कोई दोष नहीं देती है अपने पुराने प्रेम को, वह किसी को कटघरे में खड़ा नहीं करती, उसे अपनी गलतियों पर अपने चयन अपनी प्रतीक्षा अपने हर निर्णय पर गर्व है —
“अपने चेहरे से नहीं उड़ने देती
नीले रंग की तितलियां
उसको प्रेम हुआ है
पहली बार नहीं
दूसरी तीसरी बार
वह अनगिनत बार पढ़ चुकी है प्रेम में”
“वह आ रहा है “कविता में अनुपम सिंह एक ऐसी प्रेमी की कल्पना करती हैं जो नया है यानी उससे पूर्व भी प्रेम रहे हैं लेकिन फिर भी वह कहती हैं–
” मेरा पहला स्पर्श
अधूरा संबंध
दीवार पर गिरती परछाइयां मेरी
वह ले जाएगा मेरा बचा हुआ पूरा जीवन
आखिर वह मेरा नया यार है’
तो यह कविता समाज की बनाई उस धारणा को तोड़ती है जिसमें हम कहते हैं कि प्रेम जीवन में एक ही बार होता है और एकनिष्ठा प्रेम का आधार है और इस तरह से वह उन रूढ़ियों को मिटा कर एक नई इबारत लिखती हैं ।
अनुपम सिंह की कविताओं की बेबाकी और ईमानदारी स्त्री मन की उन भीतरी तहों को स्पर्श करती है जिन्हें वह अनुकूलन के चलते स्वयम से भी छुपाती रहीं किंतु यह कविताएं स्त्री जीवन की अनुभूतियों को नकारना या छुपाना भी नहीं चाहती । यह स्वयम को एक मनुष्य के रूप में देखे जाने की मांग है ।इसलिए यह सिर्फ प्रेम कविताएं नहीं हैं ,यह स्त्री के अस्तित्व को उसकी सम्पूर्णता और उसकी गरिमा में देखे जाने की मांग करती हैं। यह अपने इच्छित पुरुष की मांग पितृसत्तात्मक समाज के सम्मुख रखकर उन्हें स्वयम को उसमें ढालने की चुनौती भी देती हैं। यह गढ़न व्यक्तिगत नहीं एक सामाजिक माँग है , जो इस व्यवस्था को आमूल रूप से बदलने की उसे नवीनता देने और नई गढ़न की आकांक्षा लिए है।
यह स्त्री के मातृत्व के नैसर्गिक अधिकार पर उंगली रखती हैं जिसे पितृसत्ता ने अपने वंशवाद के नाम पर स्त्री से हड़प लिया। इसके लिए वह बिल्ली को उपादान बनाती हैं । सहजीवियों के साथ एक ओर यह समानता का अद्भुत समीकरण स्थापित करता है दूसरी ओर स्त्री के पितृसत्ता द्वारा लगातार वंचित किये जब से वह अपनई सहजीवी मादा से कितनी कमतर स्थिति में हैं इस पर ध्यान खींचती हैं –
“बिल्ली अपने बच्चे को
जिस सावधानी से मुँह में दबाए रखती है
उसे देख मेरी स्त्री
जुड़वाँ बच्चों की माँ बनना चाहती है
बस! कोई न पूछे बच्चे के पिता का नाम।”
अनुपम की कविताओं में माँ पर लिखी मार्मिक कविताएं हैं ।उनकी कविताओं में आंचलिकता और लोक बहुत सहज रूप में आता है । शिल्प व भाषा के स्तर पर भी यह कविताएं बहुत उम्दा हैं और इन्हें पढ़ा जाना चाहिए।
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परिचय
लीना मल्होत्रा
दो कविता संग्रह प्रकाशित
1. मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान, 2011 बोधि प्रकाशन
2. नाव डूबने से नहीं डरती,2016 किताब घर , दिल्ली
3. आधी खिड़की
2023 प्रकाशनाधीन सेतु प्रकाशन
रंगमंच में अभिनेत्री के तौर पर जुड़ी रही, दम्भद्वीप, नाटककार विजय तेंदुलकर, बाकी इतिहास बादल सरकार, नाटकों में मुख्य भूमिकाएं की।
फ़िल्म लेखन व निर्देशन में गहरी रुचि। वर्तमान में एक फ़िल्म ‘an afternoon’ ka निर्देशन कर रहीं हूँ।
अनुपम सिंह की कुछ कविताएं
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1
मैंने गढ़ा है अपना पुरुष
मैं उसकी जाँघ पर कुहनी टिकाए
सिगार पी रही हूँ मैंने अपना पतझड़ उसके टोप में छुपा दिया है मुझसे सभी नायिकाएँ रश्क कर रही हैं। कि मैंने अपना पुरुष कैसे गढ़ा
मैंने कहा- वह पुरुष नहीं एक मायावी है मायावी
वेणुवन में रहता है सिंह की सवारी करता है
लेकिन मैं उसकी जाँघ पर कुहनी टिकाकर
सिगार पीती हैं
बस इतने से ही वह पराजित है और ‘कन्फेस’ करने के लिए तैयार है
वह कहता है कि बहुत औरतें सोई उसकी जाँघ पर लेकिन इतनी बेफ़िक्री और अड़ियलपन वे डरी मिमियाती भेड़ थीं
किसी में नहीं देखा
वे सब सत्ता की गायें थीं
मैं जब उठूंगी सिगार पीकर उसकी जाँघ से
तब कोई दूसरा काम चाहिए होगा उसे
मैने अपने सारे अरबी घोड़े खोल दिए हैं कि एक पुरुष को काम मिल सके।
******
2
दुख भी पुश्तैनी होते हैं
खेत गायब थे
मेड़ों से साखू के पेड़ गायब थे गायब हो गई थी दूब
मेड़ गायब थी बस! था तो पिता के बाएँ पाँव का जूता जो प्लास्टिक का था सड़ न सका इंतज़ार करता रहा नाप के पाँवों की
मैंने देखा
पहनकर चला आया आख़िर! पिता के जूते में
बेटे का ही पाँव आता है। यह दुख के पुश्तैनी होने की कथा है।
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3
हमारे गाँव की विधवाएँ
उदास रंगों में लिपटी ये औरतें हमारे गाँव की विधवाएँ हैं हमारी दादियाँ चाचियाँ माँएँ हैं जवान भाभियाँ बहनें हैं जो उजाड़ रंगों को ओढ़ अँधेरे में सिसकियाँ भर रही हैं
दूर जा रहे पोते-पोतियों के लिए विधवा दादियाँ दूर से ही छोड़ देती हैं अपने प्रेमाशीष
विधवाएँ टूटी हुई बाल्टियाँ हैं
जिनमें सगुन का जल नहीं भरा जाता
विधवा माएँ बेटियों के ब्याह में अपने आँचल से उनका सिर नहीं ढकती बस! हारी आँखों से निहारती रहती हैं।
मन-ही-मन क्षमा माँग लेती हैं विदा होती बेटियों से और खो जाती हैं अपने बिसरे जंगलों में
शुभ कार्यों से बेदखल ये म मंगलाचार को रुदन के राग में गाती हैं
हमारे गाँव की विधवाएँ और बिल्लियाँ एक जैसी हैं
बहुवर्णी स्त्रियाँ कैसे बनीं विधवाएँ बिल्लियों में किसने भरे ये रंग न विधवाएँ जान पाती हैं न ही बिल्लियाँ।
****
4
मेरा नया यार
वह आ रहा है
नदियों पहाड़ों समुद्रों हवाओं और आसमानों को भेदकर वह पाताल से आ रहा है जंगलों में रास्ता बनाता हुआ खेतों से चलकर आ रहा है वह आ रहा है धरती के बीज को सिरजकर
वह जहाँ भी होगा
वहीं से आएगा
साँझ का झीना पर्दा हटाकर वह रात की चादर फेंक देगा
मेरी नाकामयाबियों
आलोचनाओं
मेरी चालाकियों मेरी अभीप्सा और चाहत का सब रंग
धूर्तताओं
मेरी ईर्ष्या
आक्रोश मेरा
मेरी बेवफ़ाई
उम्मीद मेरी
मेरे उत्साह का काजल अब उसका होगा
मेरा पहला स्पर्श अधूरा चुम्बन दीवार पर गिरती परछाइयाँ मेरी वह ले जाएगा
मेरा बचा हुआ पूरा जीवन
आख़िर ! वह मेरा नया यार है।
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