Thursday, November 21, 2024
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धुरी से छूटी आह पर पहली प्रतिक्रिया मिली है। Virender Bhatia जी ने बहुत मन से टिप्पणी लिखी है । ऐसे सजग पाठक ही किताब का नसीब बनाते हैं। बहुत शुक्रिया वीरेंद्र जी।

गोये गोये गोगा गोगा
लीना मल्होत्रा की “धुरी से छूटी आह”
गोये गोये गोगा गोगा,! मुझे लगता है ऐसा ही कुछ अपने बचपन में आप भी गुनगुनाते होंगे, गाते होंगे ! ऐसा ही कुछ या कोई और गीत जिसके अर्थ आपको मालूम नहीं थे लेकिन जब आप नया-नया बोलने सीखे होंगे और भीतर को प्रकट करने की इच्छा हुई होगी ! मैं भी ऐसा ही कोई गीत या वाक्य बोलता था ! मुझे याद नहीं है लेकिन मेरी बुआ बताती हैं कि तुम ये बोलते थे!
लीना मल्होत्रा अपने काव्य संग्रह “धुरी से छूटी आह” के आत्मकथ्य में लिखती हैं कि बचपन में वे एक खिड़की की ठंडी सलाखें पकड़ कर ये गीत गाती थीं ! ठंडी सलाखें उनकी मुट्ठी की पकड़ से गर्म होने लगती और वही गर्मी उन्हें भीतर महसूस होने लगती ! एक समय के बाद वही खिड़की उनके भीतर खुल गयी और जो कुछ उन्होंने देखा उसी खिड़की से देखा !
मुझे मेरे बचपन के गीत इसलिए याद नहीं क्योंकि ऐसी कोई खिड़की मेरे भीतर कभी नहीं खुली ! भीतर की खिड़की का खुल जाना साक्षी भाव का उदय हो जाना है जिस से होकर आप न सिर्फ स्वयं बल्कि दुनिया को भी उसी साक्षी नजर से देखने लगते हैं ! खुद को साक्षी भाव से देखना इंसान के जीवन की सबसे बड़ी घटना है ! जब दो लोग उलझ रहे होते हैं तब तीसरा पक्ष जो साक्षी होता है वह बताता है कि गलत कौन है, गलती किसकी है ! खुद के भीतर ऐसी खिड़की का खुल जाना हमारे जीवन की महानतम घटना कही जानी चाहिए !
लीना मल्होत्रा जी का नवीनतम काव्य संग्रह जब हम पढ़ते हैं तो उनके भीतर खुली खिड़की हमे बार बार दिखाई देती है जिसमे से वे दूर तक देखती हैं, देर तक देखती हैं और फिर भीतर से जो प्रकट करती है वह पाठक की “आह” में बदल जाता है ! कहते हैं “आह” दो प्रकार की होती है! एक रूह से निकला आर्तनाद और दूसरा रूह से निकला आनंद ! दोनों ही तरह की “आह” लीना मल्होत्रा की कविताओं में भीतर तक पगी है ! ये तभी संभव है जब कोई लेखक आपकी रूह तक पहले पहुंचे ! और लीना मल्होत्रा रूह तक सीधे पहुँचने वाली कवयित्री हैं !
मैं किसी भी संग्रह को पढता हूँ तो यह देखने की मेरी बुरी आदत है कि लेखक सिर्फ लेखक ही है या साहित्यकार है ! लेखक को लेखन के सरोकार मालूम भी हैं या वह सिर्फ आत्ममुग्धता का मारा ही लिख रहा है ! लेखक बाहर से बटोरता है उसे बाहर ही बाँट देता है या पहले वह भीतर भरता है फिर अंश अंश बाहर उड़ेलता है ! बाहर का लेकर बाहर ही उड़ेल देने वाला लेखन दरअसल पत्रकारिता है साहित्य नहीं है ! हर कलम पकड़ने वाला आदमी लेखक हो सकता है लेकिन हर लेखक साहित्यकार नहीं होता ! क्योंकि हर कलम वाले के भीतर की खिड़की खुल ही गई हो यह जरुरी नहीं ! हम अक्सर सूचनाएँ भरते हैं सूचनाएँ उड़ेल देते हैं ! सूचनाओं का ज्ञान में संवर्धन नहीं होने देते ! हम जल्दबाजी के लेखक होते हैं जो साहित्य लिखने से अक्सर चूक जाते हैं ! और लीना मल्होत्रा जी को मैं बहुत समय से पढ़ रहा हूँ, उनके साहित्य मर्मज्ञ होने में मुझे कोई संदेह नहीं, उनसे सीखने को मुझे और सबको बहुत कुछ मिलता है, यह उनके लेखन का बहुपक्षीय आयाम है !
“धुरी से छूटी आह” शीर्षक कविता है ! मैं इस टाइटल को सोच सोच कर ही इतना हैरान हुआ हूँ कि कैसे लोग इतना खूबसूरत सोच लेते हैं ! यह कविता उसी साक्षी भाव का एक नमूना है ! इस कविता पर या बहुत सारी ऐसी कवितायेँ हैं जिनमें एक एक कविता पर लम्बी समीक्षाएं लिखी जा सकती हैं ! मैंने जब इस किताब की समीक्षा लिखने की सोची तब सोचा कि एक कविता पकड़ते हैं और उसकी समीक्षा लिखते हैं ! लेकिन यह काम फिर कभी ! आज तो सम्पूर्ण किताब के बारे में कहने की इच्छा है !
लेखक को क्यों लिखना चाहिए यह मेरे जैसे अधिसंख्य लेखकों को मालूम नहीं है ! लेखन की कोई सापेक्षता भी है या यह सिर्फ आत्म श्लाघा, आत्म प्रवंचना या आत्म संतुष्टि तक ही सीमित है ! लीना मल्होत्रा को पढ़ते हुए आप इस उत्सुकता को इस सवाल को तुष्ट हुआ पाते हैं कि कवयित्री को लिखने की जितनी तमीज़ है उतना ही उन्हें पता भी है कि उन्हें क्यों लिखना चाहिए ! स्त्री लेखक (लेखिकाएं) अक्सर स्व अनुभूतियाँ लिखती हैं ! प्रेम उनके जीवन का पूर्णकालिक कृत्य है इसलिए प्रेम लिखती हैं प्रेम के द्वंद्व लिखती हैं ! लीना मल्होत्रा भी ये सब लिखती हैं लेकिन इनमे दर्शन है, दिशा है, सलाह है,फलक का आकाश है, और गहराई है ! उथलापन या हल्कापन नहीं है कहीं ! इसके साथ साथ कविता को कहाँ किस रूप में आगे आना चाहिए, कविता क्या कर सकती है , कविता की अपनी जमीन कितनी उर्वरा होती है, कविता कितनी सक्षम है मनुष्य को बदलने में यह समझ हर कलम में नहीं होती ! ऐसी ही एक कविता यहाँ पढ़िए
जबकि बंद किताब भी एक कारागार थी
जिसमे कैद थी कविता
फड़फड़ा रही थी उसकी उड़ान
वह उड़ना चाहती थी
उस कारागार तक
जिसमे बंद था हत्यारा
वह हत्यारे की आँखों में आँखे डालकर उसे समझती
कि बिगड़े हुए छंद से गिरी हुई मात्रा कैसे उठायी जाती है
कैसे बना है सकता है हत्यारे से मनुष्य
और जिंदगी की लय को फिर से संवारा जा सकता है
जब सारे रास्ते बंद होने के बाद भी
थोड़ी सी कोशिश से
एक नए रास्ते का निर्माण किया जा सकता है !
वह जेलर के सामने खड़े होकर
जिरह करना चाहती थी किसी वकील की तरह
कि उसे फांसी नहीं रोज एक कविता पढ़कर
उसकी व्याख्या करने की सजा दी जाए
वह जज से निवेदन करना चाहती थी
यह बात कानून में लिखने लायक थी
कि कविता हत्यारे को नहीं
हत्या के विचार को मार सकती है
और कानूनन इसे हर घर
कस्बे
और शहर में लागू किया जाए !
जो कविता की ताकत को जानते हैं, जो कविता को जीते हैं, जिनके भीतर कविता को देखने की खिड़की खुली है, वे कविता की इस ताकत को जानते हैं कि कविता हत्या के विचार को मार सकती है कि जीवन के बिगड़े हुए छंद की मात्रा को उठा कर उसकी लय संवार सकती है ! कविता के होने की कहीं कोई अत्युत्तम और श्रेष्ट व्याख्या कहीं मिलती है तो इस कविता में दिखाई देती है ! कविता जहाँ जहाँ कारागारों ,मजदूरों ,महिलाओं ,पीड़ितों ,दमितों ,दलितों के बीच गई वहां उसने जीवन की लय बदली है, ! प्रगतिशील आंदोलन के काम आने वाली यह एक बेहतरीन कविता है और लीना मल्होत्रा इस कविता के माध्यम से बताती हैं कि वे कविता के हर आयाम से परिचित हैं, दरअसल कलम को लेखन की सार्थकता स्पष्ट होना ही सबसे बड़ी लेखकीय योग्यता होती है ! मैं लीना जी की इस लेखकीय योग्यता और इस कविता की व्याख्या पर 50 पन्ने खर्च कर सकता हूँ !
एक और कविता पढ़िए
सबसे सुन्दर प्रेम कथाओं के नायक भगोड़े हुए
या सन्यासी
जब प्रेमिकाओं के अश्रुओं से गल गई
सत्तर फीसदी पृथ्वी
उन्होंने तप किया उसी पत्थर पर
जिसे छाती पर धरे
प्रेमिकाओं ने चिरकाल तक की प्रतीक्षा
गर्व के पर्वत जो चूर चूर हो समतल हुए
उसी बची हुई धरती पर
उन्होंने परम मोक्ष के ध्वज फहराए और अमर हुए !
उनकी अंतर्दृष्टि न देख पाई रक्तरंजित स्मृतियाँ
जिसे बैकपैक की तरह उठाये
वे अंतरलोक की यात्रा पर निकल गईं
और फिर लौट नहीं पाईं
अपनी ही देह में !
महसूस कीजिये इस कविता का फलक ! द्वंद्व के विस्तार की दृष्टि, प्रेम का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, विछोह, वेदना और टीस का तीखापन, आदर्शो का भोथरापन, लिजलिजी जमीन पर खड़े मोक्ष के धवजवाहक! अहम् के भुरभुरा कर गिरे समतल हुए पर्वत पर खड़े भगोड़े प्रेमी और उनके काँधे पर बेताल सा लटका उनका अहम ! 14 पंक्तियों की एक कविता में कितना कुछ लिखा जा सकता है! यह कलम का सामर्थ्य है, यह कवयित्री के भीतर की उस खिड़की का कमाल है जिसमे से वह दुनिया देखती हैं ! यह उस दर्शन का कमाल है जो पहले भीतर तक जीया जाता है और फिर लिखा जाता है ! रूह तक जब आह पहुंचेंगी तो आह निकलेगी ही! धुरी से आह छूट नहीं सकती, धुरी के चक्कर काटेगी जीवन पर्यन्त! लेकिन कवियत्री का अगर यह उद्घोष है कि कोई आह अपनी धुरी छोड़ भी सकती है तो मुझे लगता है यह एक अलग क्रांति है जो साक्षी भाव पैदा होने के बाद हमारे भीतर घटित होती है ! अध्यात्म की भाषा में इसे डिटैच होना कहते हैं कि सब अपना है, सब अपने हैं लेकिन सब आज़ाद हैं ! प्रेम को भीतर जी लेने के बाद, विरक्तियो को साक्षी होकर देखने के बाद भी ऐसी ही कोई स्थिति पैदा होती है !
बहरहाल एक शानदार काव्य संग्रह के लिए लीना मल्होत्रा जी को हार्दिक बधाई देता हूँ! दूसरी बधाई निश्चित तौर पर प्रकाशक को देनी बनती है जिसने किताब के संयोजन और प्रकाशन में अद्धभुत काम किया है ! प्रकाशन पर प्रयोग करने की प्रकाशक की इस हिम्मत कला की मैं भूरी भूरी प्रसंशा करता हूँ ! यह एक संग्रहणीय किताब है जो मेरे पास होना मुझे जरुरी लगती है ! आप भी पढ़ेंगे तो आपका मन भी यह किताब सहेज लेने को करेगा !
अपने जीवन में अभिव्यक्ति के पहले पायदान पर खड़े होकर गाये गए “गोये गोये गोगा गोगा” की शब्दमयी यात्रा का सार ग्रन्थ है धुरी से छूटी आह !
वीरेंदर भाटिया
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