दिव्या विजय
जन्म – 20 नवम्बर, 1984
बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर। पहला कहानी संग्रह ‘अलगोज़े की धुन पर’ राजपाल एंड सन्स से प्रकाशित। दूसरी पुस्तक ‘सगबग मन’ भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित। हिन्दी साहित्य की मूर्धन्य पत्रिकाओं कथादेश, हंस, नया ज्ञानोदय आदि में कहानी लेखन। प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और अग्रणी वेबसाइट्स के लिए सृजनात्मक लेखन। अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय व लेखन। मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट, मुंबई लिट-ओ-फ़ेस्ट 2017 से सम्मानित। ‘अलगोज़े की धुन पर’ के लिए 2019 का स्पंदन कृति सम्मान। ‘सगबग मन’ के लिए 2020 का कृष्ण प्रताप कथा सम्मान।
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कहानी
बिट्टो
कभी–कभी ज़िन्दगी में घटने वाले हादसे ज़िन्दगी का विभाजन कर देते हैं. ज़िन्दगी दो हिस्सों में बँट जाती है. एक हादसे के पहले वाली..दूसरी हादसे के बाद वाली. हर बात ऐसे ही याद रह जाती है…उस घटना की लक़ीर से कटी हुई. जैसे नीलाभ हर बात यूँ ही याद करता है, बिट्टो के पहले और बिट्टो के बाद.
छोटा सा क़स्बा था. पेइंग गेस्ट जैसी सुविधाएँ तब यहाँ प्रचलित नहीं थी. किरायेदार को खाना खिलाने की आफ़त मोल लेना मध्यमवर्गीय घरों में नयी बात थी जिसके लिए घर की स्त्रियाँ राज़ी नहीं होती थीं. नए आदमी का घर के भीतर प्रवेश सावधानी की दृष्टि से ठीक नहीं माना जाता था. जवान होती लड़कियाँ हर घर में थीं. एक अलग दरवाज़े से किरायेदार का आना–जाना तय रहता और उसमें भी वक़्त तय था. ज़्यादा देर होने पर किच–किच होने की पूरी सम्भावना रहती थी. गुजरात में दूरांत स्थित इस क़स्बे में बग़ैर ‘खाने–पीने‘ वाले किरायेदार को ही तरजीह दी जाती थी. मकान पक्के थे पर कस्बे के मुहाने पर कच्चे मकानों की लड़ियाँ खेतों के संग संग पिरोई हुई चलती थीं. बैंक की परीक्षा पास करने के बाद नीलाभ को ट्रेनिंग के लिए पहली पोस्टिंग यहीं मिली थी.
घर पर जब डाक से यहाँ पोस्टिंग की सूचना मिली तो कुछ दिनों की ज़द्दोजहद के बाद आख़िर उसने यहाँ आने का निर्णय ले ही लिया. माँ साथ आना चाहती थी पर उसने मना कर दिया. बाबूजी अकेले कैसे रहते? माँ की चिंता थी हमेशा घर में रहा बेटा कैसे बाहर अकेला रह पायेगा. बाहर का खाना खाते ही बीमार जो पड़ जाता था. फिर हमेशा की तरह बाबूजी ही समस्या का समाधान ढूँढ़ लाये. बाबूजी के ऑफ़िस में रामधन जी हेडक्लर्क हैं, उन्हीं के रिश्ते की बहन रहती हैं वहाँ. बाबूजी ने जब उनसे ज़िक्र किया तो उन्होंने उसी वक़्त बहन से बात कर किराये के कमरे की और खाने–पीने के टिफ़िन की बात भी कर डाली. खाने का नाम सुन उन्होंने थोड़ी ना–नुकुर ज़रूर की पर फिर मान गयीं. माँ ने गली वाले हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया और बाबूजी मिट्ठन हलवाई की जलेबियाँ बँधवा लाये. माँ उदास होते हुए भी अब सहज थीं और बाबूजी उसका होल्डाल बँधवाते हुए संतुष्टि से मुस्कुरा रहे थे.
स्टेशन छोड़ने आये बाबूजी ने उसका गाल थपथपाते हुए कहा था “मन लगाकर काम करना, नयी नौकरी है आने की जल्दबाज़ी मत करना. हमारी चिंता में मत घुलना. थोड़ा–सा वक़्त है, पलक झपकते ही बीत जायेगा.” उसने गर्दन हिला दी और नम आँखें छिपाने के लिए हाथ में पकड़ी किताब में चेहरा घुसा लिया. वो पहली बार घर से बाहर जा रहा था. माँ–बाबूजी बचपन से उसका सबसे बड़ा सम्बल रहे हैं. उसे कभी उनसे कोई शिकायत नहीं रही. जहाँ उसके बाक़ी दोस्तों की अपने माता–पिता से विचार न मिलने के कारण तनातनी रहती थी वहीं उसकी बातें माँ–बाबूजी से बेहतर तरीक़े से कोई समझता ही नहीं था. उसने जीवन के सबसे अच्छे पल अपने घर में उन्हीं के साथ बिताये थे. उसे अपने भीतर अकेलापन उगता महसूस हुआ. बैग की बाहरी जेब में खोंसी हुई बोतल निकालकर उसने पानी के दो घूँट भर जैसे गले तक आ पहुँचा अकेलापन भीतर ठेल दिया.
रात–भर के सफ़र के बाद जब वो छोटे से स्टेशन पर उतरा तो बीते दिन का उदास कोहरा कुछ हद तक छँट गया था. वहाँ उतरने वालों में वो अकेला यात्री था. स्टेशन के नाम पर टीन की शेड थी जिसके नीचे स्टेशन बाबू की मेज़–कुर्सी थी. बगल में एक तिपाई पर कपड़े से लिपटा घड़ा था जो उस वक़्त उघड़ा पड़ा था. रेल की पटरी के साथ चलते खेतों में खड़े बिजूकों पर एक कुत्ता मुस्तैदी से भौंक रहा था. पास ही एक गड्ढे में भरे पानी में कुछ गौरैया पंख फैलाये नहा रहींं थीं. उसने उधर ही क़दम बढ़ा लिए, आहट से भी गौरैया उड़ी नहीं, वो मज़े से नहाती रहीं. थोड़ा आगे ताँगे में जुता घोड़ा उनींदे ताँँगे वाले को लादे धीरे–धीरे इधर ही आ रहा था. वो उसी में सवार हो लिया, बाबूजी के हाथ का लिखा परचा निकाल पता ताँँगे वाले को बताया. वो उनींदा ही घोड़े को हाँके चलता गया. रेलवे स्टेशन गाँव की सीमा पर था. अंदर की ओर चलते हुए नीलाभ ने देखा कि सारा खुलापन हवा हो गया. खेतों के बीच बनी दस–बीस झोंपड़ियों के बाद मंदिर, और मंदिर के अचानक बाद ढेर सारे पंक्तिबद्ध पक्के मकान. मगर उनमें अब भी खाना चूल्हों पर ही पकता होगा क्योंकि दीवारों पर असल रंग के ऊपर एक और रंग पैबस्त था जो सिर्फ़ धुएँ का हो सकता था.
कच्चे मकान, पक्के मकान पार कर एक और तरह के मकान थे जिन्हें छोटे–मोटे बँगले की उपाधि आसानी से दी जा सकती थी. बँगले यूँ कि एक तो वे थोड़े बड़े थे, उनमें छोटे से बग़ीचे की गुंजाईश भी थी जहाँ क़िस्म–क़िस्म के पेड़–पौधे लगे हुए थे. उनकी बनावट भी भिंची हुई नहीं, खुली–खुली थी. गंदगी का नामो–निशान नहीं था और एक लिहाज़ से वे ख़ूबसूरत थे. ऐसे ही एक बँगलेनुमा मकान के सामने जब ताँँगा रुका तो अनचाहे ही ख़ुशी वाली मुस्कराहट में उसके होंठ फैल गए. बाबूजी पर एक बार फिर प्रेम उमड़ आया.
ताँँगे वाले को पैसे देकर जैसे ही उसने अंदर पाँव रखा एक कोहराम उसके कानों से टकराया. एक लड़की बाल खोले बरामदे की सीढ़ियों पर सर पटक–पटक कर रो रही थी. उसके इर्द–गिर्द कुछ बच्चे उसे साँँत्वना देने की मुद्रा में खड़े थे. एक ने नीलाभ को देखा तो उसे वहाँ से उठाना चाहा मगर लड़की ने उसका हाथ झटक दिया और दुगुने वेग से रोना शुरू कर दिया. लड़की का रोना हृदय–विदारक होते हुए भी अत्यंत मधुर था. नीलाभ स्वर की कोमलता से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रह सका. वह वहाँ क्यों खड़ा है यह उसके चित्त से उतर गया. वह एकटक आवाज़ की दिशा में देखता रहा. आवाज़ का कोहरा नीलाभ के इर्द–गिर्द बिखर रहा था. लडकी के रोने की आवाज़ नीलाभ को अपने स्वागत में लगायी हुई बंदनवार सरीखी लगी. अपनी दीदी की ओर इस तरह घूरता पा एक बच्चे ने ग़ुस्से में आँखें दिखायीं. नीलाभ अचकचा कर दो क़दम पीछे हटा और दरवाज़े के बाहर लगा घंटी का बटन दबा दिया.
घंटी बजते ही दो बातें एक साथ हुईं. उस लड़की ने सर उठाकर यूँ आँखें तरेरीं गोया उसके रोने में नीलाभ ने ख़लल डाला हो. साथ ही सर का आँचल सँभालती एक मध्यम वयस् की स्त्री आ खड़ी हुई. यही शायद रामधन जी की बहन होंगी, नीलाभ ने अनुमान लगाया. वह क्षण–भर को ठिठकी खड़ी रहीं पर उसके साथ सामान देखते ही उनके मन में उसकी पहचान कौंध गयी. फिर तो मायके से आये किसी व्यक्ति के लिए कोई भी स्त्री जितनी गर्मजोशी दिखा सकती है उतनी ही आत्मीयता से वो उसे अंदर लिवा ले गयीं. जितनी देर में वह चाय–बिस्कुट लायीं नीलाभ कमरे का मुआयना करता रहा. एक दीवार पर हाथ जोड़े लड़की की तस्वीर थी जिस पर ‘शुभ दीपावली‘ लिखा था. दूसरी दीवार पर आले बने हुए थे जिनमे से कुछ पर सस्ते फूलदान रखे थे और कुछ पर ट्रॉफ़ियाँ विराजमान थीं.
“ये सब हमारी बिट्टो ने जीतीं हैं. बड़ी होशियार है.” चाय की ट्रे लाती हुईं वह बोलीं. फिर उसके शहर का हाल यूँ पूछने लगीं जैसे वो शहर न होकर उनका कोई संबंधी हो. नीलाभ भी बिस्कुट टूंगते हुए प्रसन्न मन से उनके मोहल्ले की एक–एक गली से गुज़रते हुए सारा हाल देने लगा. तब तक बाहर बरामदे से रुदन का स्वर सप्तम सुर को छूने लगा था. नीलाभ ने असहज होकर कमरे की खिड़की से झाँका. उसकी असहजता को भाँप उन्होंने हँसते हुए कहा,
“हमारी बिट्टो ज़रा नरम मिज़ाज की है. सहेलियों से झगड़ा हो जाये तो तुरंत मन पर ले लेती है.” उन्होंने दरवाज़े के पास जाकर आवाज़ लगायी, “बिट्टो तनिक अंदर तो आओ, देखो तुम्हारे मामा के यहाँ से आये हैं.”
बिट्टो तो अंदर नहीं आई पर एक बच्चा भागता हुआ आया और हाँफते हुए सूचना दी,
“चाची, बिट्टो दीदी ने कुछ दिन पहले जो गुड़हल का पौधा लगाया था वो मर गया इसलिए बिट्टो दीदी का मन ज़रा ख़राब है.”
आख़िरी बात उसने नीलाभ की ओर देख कर कही और न चाहते हुए भी नीलाभ मुस्कुरा उठा. बिट्टो की माँ यह देखकर झेंप गयी और शीघ्रता से बाहर जाकर बिट्टो को दबे स्वर में कुछ समझाया. इसके बाद सारी आवाज़ें बंद हो गयीं और एक ख़ामोशी पसर गई. नीलाभ को प्रतीत हुआ जैसे उसके स्वागत में लगी रंगीन झालरें यकायक तेज़ हवा चलने से उतर गयीं.
इस सन्नाटे को तोड़ने वाली बिट्टो के माँ की पदचाप थीं. वो आहिस्ता से उनके पीछे हो लिया. बगल की गैलरी में सीढ़ियाँ थीं, ऊपर एक कमरा था जिसमें दायीं दीवार से सटा हुआ लकड़ी का एक छोटा पलंग और सामने की दीवार से लगी हुई एक मेज़–कुर्सी थी. एक अलमारी भी थी जिसके पल्ले लटके हुए ज़रूर थे पर फिर भी पूरे कमरे में वह सबसे अधिक वैभवशाली नज़र आ रही थी. पल्लों पर चॉक से उकेरे गए कुछ अमूर्त्त चित्र थे जो रंगों के बग़ैर भी आलीशान नज़र आ रहे थे.
“ये हमारी बिट्टो की कारीगरी है. अभी साफ़ कर देती हूँ.” कहते हुए उन्होंने अपनी साड़ी का पल्लू उठा लिया.
“नहीं नहीं…रहने दीहिये. ये बेहद ख़ूबसूरत हैं.” नीलाभ ने उन्हें तुरंत रोक दिया. “तुम हाथ–मुँह धो लो. हम खाना तैयार कर भिजवाते हैं.” बिट्टो की माँ हँसते ही चलीं गयीं. नीलाभ कुर्सी पर बैठा तो उसे मकान का फाटक नज़र आया और छोटा–सा बग़ीचा भी, जहाँ मरा हुआ गुड़हल पड़ा था. गुड़हल बिलकुल बेजान और मुरझाया हुआ था. शायद उसका जीवन पहले ही ख़त्म हो चुका था पर किसी आस से बिट्टो ने उसे वहाँ से हटाया न होगा. कमरे के दूसरी ओर भी खिड़कियाँ थीं जहाँ से किसी स्कूल का बास्केटबॉल कोर्ट दीख पड़ रहा था.
कमरा उसे अच्छा लगा. कमरा ऐसा था जहाँ बग़ैर किसी व्यवधान के स्वयं के साथ रहा जा सकता है. यह सोचकर कि उसे पहली बार कमरा मिला है जो पूर्ण–रूपेण मात्र उसका है वह उल्लसित हो उठा. वहाँँ अपने शहर में उसके पास पढ़ने के लिए कमरा था पर उसमें कितना सामान माँ ने अटा रखा था जिसे लेने गाहे–बगाहे वह चलीं आती. घर में मेहमान आते तो उसके कमरे में ठहरते और वह स्वयं माँ–बाबूजी के कमरे में नीचे गद्दा बिछा कर सोता. यह सब याद कर स्नेह–भरी मुस्कराहट उसके होठों पर खिल आई. तनख़्वाह का पहला चेक देखकर बाबूजी को कैसा लगेगा यह सोचना वह रोमांच से भर गया. रात को बिस्तर पर लेटा तो थकन तारी थी…सफ़र की थकन, नयी जगह का अजनबीपन, सामान जमाने की क़वायद. खिड़की पर गिरती पेड़ों की परछाई से आकृति बनाते वो जाग के उस पार पहुँचा ही था कि कुछ आवाज़ों ने उसे घेर लिया. उसने खिड़की से झाँका तो कोई कुदाल से मिट्टी खोद रहा था. धीरे–धीरे आवाजें धूमिल पड़ गयीं और वह नींद में डूब गया. अगली सुबह बगीचे में मिट्टी का ऊँचा ढूह बना हुआ था और उस पर एक नया–नकोर गुड़हल का पौधा रोपा हुआ था. बिट्टो स्कूल जाने को तैयार उसे प्रेम से सहला रही थी. कल की पीड़ा को कितनी सरलता से निष्कृति दे उसने नए जीवन को मिटटी में और अपने मन में रोप दिया था. बिट्टो की निष्कपटता पर उसका मन उष्णता से भर गया.
उसे देख बिट्टो भागती हुई भीतर गयी और टिफ़िन का डब्बा ला उसे पकड़ा दिया. वो मुस्कुराया और बैंक की ओर चल पड़ा. बैंक घर से अधिक दूर नहीं था. उसने देखा उससे कुछ दूरी पर बिट्टो भी चल रही थी. संभवतः उसका स्कूल भी निकट होगा. थोड़ा आगे चलकर उसने देखा कि बैंक और स्कूल की इमारतें समीप ही थीं. स्कूल देखकर उसे अपना बचपन याद हो आया और याद हो आई बाबूजी की. वह हर रोज़ उसे स्कूल छोड़ने जाते थे. उसका बैग भी सदा वही पकड़ते रहे…बड़े हो जाने के बाद भी. बाबूजी उसे बहुत चाहते हैं…सामान्यतः माँ–बाप जितना अपने बच्चों को चाहते हैं उससे बहुत अधिक. उसके सतत् निर्माण की प्रक्रिया में जितने भी सफल क्षण हैं उनका सम्पूर्ण श्रेय उन्हें जाता है. बिट्टो अपनी सलवार कीचड़ से बचाते आगे बढ़ गयी. वह कुछ क्षण वहीं खड़ा छोटे बच्चों को देखता रहा फिर वह भी आगे बढ़ चला.
बैंक के लोग मिलनसार और हँसमुख थे. कुल जमा चार लोगों का स्टाफ़, सभी अच्छे लगे उसे. ठीक ही बीत जायेगी यहाँ…उसने सोचा. पाँच बजे बाहर निकला तो बिट्टो के स्कूल के बाहर भीड़ जमा थी. कोई मदारी करतब दिखा रहा था. बिट्टो भी उसे दीख पड़ी, बिट्टो की आँखें मदारी के करतब को फलाँँगती सामने किसी की आँखों में उलझीं थीं. उसने अनदेखा कर दिया और आगे बढ़ गया.
घर पहुँचा तो बिट्टो उससे पहले वहाँ मौजूद थी और घास पर लेटी शून्य में ताक रही थी. नीलाभ अपलक उसे देखता रहा, उसे महसूस हुआ जैसे निर्जन वन में कोई पक्षी अकेला कूक रहा हो. बचपन में कक्षा में साथ पढ़ने वाली जिस लड़की को वह चुपचाप देखा करता था…उसे लगा वक़्त लाँँघ कर किसी चमत्कार से वह यहाँ आ गयी है. वो लड़की भी चुप–सी भावाकुल नेत्रों से कहीं ताका करती थी. नीलाभ ने अक्सर उसे यूँ देखते पाया था. दो लोगों का भिन्न समय–काल में क्या एक–सा हो पाना संभव है? वह अचरज में डूबा बिट्टो की पलकों का कम्पन देख रहा था. उसकी तन्द्रा टूटी चाची की आवाज़ से. बच्चों की देखा–देखी बिट्टो की माँ को वो भी चाची पुकारने लगा था.
“बिट्टो…ओ बिट्टो, यहाँ पड़ी–पड़ी क्या कर रही है। जा छत पर से कपड़े ले आ.” नीलाभ मन ही मन मुस्कराया…लोग कितने ख्व़ाब अजाने तोड़ देते हैं. लेकिन क्या जानने पर वे ख्व़ाब साबुत रह पाएँँगे? बिट्टो दुपट्टा सँभालती सीढ़ियों की ओर बढ़ चली और बिट्टो की माँ मुस्कुराती हुई नीलाभ से उसके दफ़्तर के पहले दिन की खोज–ख़बर लेने लगी. उनकी बातों से उसे याद आया बाबूजी को फ़ोन करना है. उसने चाची के फ़ोन से दो घंटी घर पर दे दी. पलट कर बाबूजी का फ़ोन आया तो वे सिलसिलेवार सारी बातें पूछते गए और वो सारा ब्यौरा देता गया कि जगह छोटी है मगर ख़ुशनुमा है. लोग भी बहुत अच्छे हैं और वो बहुत आराम से है.
बाबूजी उसकी नौकरी से ख़ुश हैं और सारे परिवार को गर्व से उसके बारे में बताते हैं कि पहली बार में ही उसकी बढ़िया नौकरी लग गयी है. उसके सीधे– सादे बाबूजी जिन्होंने मास्टर की छोटी–सी तनख़्वाह में जीवन गुज़ार दिया उनके लिए उसकी यह नौकरी छोटी बात नहीं है. यूँ भी वो उनके जीवन का इकलौता स्वप्न है जिसे उन्होंने मन से सींचा है. अपने बाबूजी को ख़ुश देखकर वो भी प्रसन्न है. वो सदा उनकी ख़ुशी का बायस बनेगा…ख़ुद से किया हुआ यह वायदा आज उसने अपने मन में फिर दोहराया. कमरे से बाहर निकलने लगा तो जाल के पार आसमान में ताकती दो आँखें जाने कहाँ गुम थीं. कुछ ख़्वाब किसी के तोड़े नहीं टूट सकते. इस उम्र के ख़्वाब शायद ऐसे ही होते हैं. वो क्षण–भर को ठहरा फिर आगे बढ़ गया.
अब वो अक्सर बिट्टो को कभी पढ़ते हुए, कभी खेलते हुए देखता. कमरे की खिड़की से जो बगीचा नज़र आता वही अक्सर बिट्टो का खेलघर बनता. बिट्टो के खेल भी निराले थे.. कभी तिनके जुटा घोंसला बना पक्षियों का इंतज़ार कि कोई पंछी उसे अपना बसेरा बनायेगा. कभी गिर गए फूलों को वापस शाख से जोड़ने का जतन कि उसका बगीचा गुलज़ार लगे. कभी भागते हुए किसी गिलहरी की पूँछ छू जाने पर बिट्टो की पुलक–भरी ख़ुशी उसे पहली मंज़िल पर महसूस हो जाती थी. उसका पढ़ना भी वहीं होता. किसी पेड़ की शाख पर अपना छोटा–सा लैंप लटका वहीं पढ़ने बैठ जाती. इस पेड़ का चुनाव भी काफ़ी दिलचस्प होता. पहले वो समझ नहीं पाया था मगर रोज़ देखने के अभ्यास से वो समझ पाया कि जिस पेड़ की सुगंध उसे आकर्षित करती वो दिन उसी पेड़ के नाम होता. पढ़ते हुए कुछ दाने अपने इर्द–गिर्द बिखरा देती और बिलकुल स्थिर होकर चोर निगाहों से आने वाले पक्षियों को ताका करती. फिर औचक चौंका कर उन्हें उड़ा देती. पक्षियों की चौंक भरी फड़फड़ाहट बिट्टो की किलकारी में कैसे तब्दील होती यह देखना नीलाभ को प्रिय हो गया था. वह बिट्टो की दिनचर्या से अनजाने ही जुड़ गया था. उसके अधिकतर कामों का समय बिट्टो से बँध गया था.
सर्दियों ने दस्तक दी थी. बिट्टो पढ़ते हुए ऊँघ रही थी. हाथ पर मूँँगफली के दाने रखे थे कि भूले–भटके कोई गिलहरी हाथ पर चढ़ आये. नीलाभ बालकनी में बैठ अख़बार पढ़ रहा था तभी बाइक के तेज़ हॉर्न से उसकी तन्द्रा टूटी और बिट्टो उछल कर खड़ी हो गयी. एक लड़का हेलमेट पहने ख़ास अंदाज़ में हॉर्न देते निकल गया. मगर नीलाभ उन आँखों को पहचान गया, ये वही आँखें थीं जिन पर एक रोज़ मदारी के करतब के पार बिट्टो की आँखें जा टिकी थीं. यह बात उसके अवचेतन में इतनी स्पष्ट थी कि मात्र थोड़े–से दोहराव ने दृश्य को निर्बाध उसके समक्ष प्रकट कर दिया. उसने बिट्टो की भीनी मुस्कराहट भी देखी तो वह बेचैन हो उठा. उस शाम बिट्टो खाने के लिए बुलाने आई तो उसने चाची को कहलवा भेजा कि वो बाहर जा रहा है.
बिट्टो ने हँसते हुए पूछा, “किसके साथ बाहर जायेंगे?”
उसकी हँसी ने उसे द्रवित किया या क्रोधित…उसे भी नहीं पता. वह बग़ैर कुछ कहे निकल गया. वह तय नहीं कर पाया किस ओर जाना है. वह अपने मन के अजाने ही स्टेशन वाली सड़क पर जा पहुँचा. फिर न जाने क्या सोच भीतर चला गया. आज स्टेशन बाबू अपनी जगह पर थे. सफ़ाचट बालों वाले तोंदियल आदमी..किसी बात पर ठहाके लगाते हुए. उनके आस–पास लोगों का जमावड़ा यूँ लगा था जैसे कोई ख्याति–प्राप्त व्यक्ति आ पहुँँचा हो. उस दिन जो स्टेशन चुप पड़ा था आज चहक रहा था. आज चारों ओर चहल–पहल थी. किसी ट्रेन का समय हो चला था और उस छोटे–से स्टेशन पर भी अफ़रा–तफ़री मच गयी. आज सब कुछ व्यवस्थित था बस उसका मन बेतरतीबियों के बीच भटक रहा था. उसने सबकी नज़रें बचाकर घड़े का ढक्कन हटाया और बाहर निकल आया. उसका यह कृत्य अतार्किक था. समान दृश्य–पटल रच देने भर से अतीत का सर्जन नहीं किया जा सकता.
गयी रात वापस लौटा तो थका होने के बावजूद नींद नहीं आ सकी. वह देर तक बास्केटबॉल कोर्ट देखता रहा. एक दूधिया हैलोजन लाइट अँधेरे को चीर रही थी. बाक़ी सब कुछ थिर था. वह वीरान कोर्ट में बॉल थपकने की आवाज़ सुनने की असफल चेष्टा करता रहा. पीपल की पत्तियों की आड़ से कटे चाँद को देखता रहा. रात का अपना ही साम्राज्य होता है, दिन के वक़्त जो दीखता है, रात में और अधिक साफ़ दिखाई पड़ता है यह उसने पहली बार ही महसूस किया. उसे प्रतीत हुआ रात की आँखें होती हैं जो हम पर निगरानी रखे रहती हैं…हमारी सोच को पढ़ सकती हैं. यह सोचकर उसके बदन में सिहरन भर गयी और उसने अपने मन को कुछ भी ने सोचने की सख़्त ताकीद कर दी. वह नहीं चाहता था कि उसके मन की इबारतें दिन के उजाले में सबको दीख पड़ जाएँ. रात अपनी ख़ामोशी से गुलज़ार थी. दिन का शोर न जाने कहाँ सो रहा था. कोर्ट में कुछ पेड़ों की परछाईंयाँ दिखीं तो उसे लगा उसका मन वहाँ कुलाँचे भर रहा है.
अगले कुछ दिनों में उसने बार–बार उस लड़के को देखा था. कभी घर के चक्कर लगाते हुए, कभी स्कूल से लौटती बिट्टो के पीछे आते. संभवतः आरम्भ में जिज्ञासावश यह सब बिट्टो को अच्छा लगा था. लड़के को देखते ही उस की सहेलियाँ उसे इशारा करतीं और हँस पड़तीं. उसके घर लौटते ही ब्लेंक कॉल्स का सिलसिला शुरू हो जाता. घर में सब हैरान–परेशान थे. जिस दिन सब इधर–उधर होते बिट्टो देर तक फ़ोन पर टँगी रहती. बिट्टो की हँसी में रहस्य का भाव आ गया था. उसकी आँखें अक्सर सड़क पर टिकी होतीं. चाची किसी काम के लिए कहतीं तो दस बार में सुनती. इन दिनों उसकी डाँट खाने की आवृत्ति भी निरंतर बढ़ती जा रही थी. पर फिर भी बिट्टो प्रसन्न थी. उसकी चहक दोगुनी हो गयी थी.
पर थोड़े ही दिनों बाद नीलाभ ने एक परिवर्तन लक्षित किया. बाइक की संख्या एक से दो और दो से कई में परिवर्तित हो गयी. कभी वे लोग झुण्ड में आते कभी एक–एक कर. अजीब इशारे करते…चिल्लाते हुए निकल जाते. उनके आते ही मुहल्ल्ले वाले अपनी छतों से, खिड़कियों से झाँकने लगते. उनकी वक्र दृष्टि किसी से छिपी नहीं रह गयी थी. बिट्टो परेशान होने लगी थी. उसकी मुस्कराहट धूमिल पड़ने लगी थी. वह निरंतर किसी तनाव में रहती.
एक रोज़ नीलाभ ने बालकनी से लगी छत पर बिट्टो को अपनी सहेली से कहते सुना,
“वो लड़का मुझे अच्छा लगता था इसलिए मैंने उससे फ़ोन पर बात की मगर उसने अपने दोस्तों को न जाने क्या कहा कि सब मुझे देख भद्दे इशारे करते हैं. इन दिनों कई अनजान लोग फ़ोन करने लगे हैं. शायद उसने मेरा नंबर सबको दे दिया. मुझे घर से बाहर निकलते भी डर लगता है. यूँ लगता है सब मुझे घूर रहे हैं.” ये सब बताते हुए वो रुआँँसी थी.
बिट्टो की सहेली कहते हुए हिचकिचा रही थी. वह धीमी आवाज़ में बोली, “मेरे भाई ने बताया कि वे सब तेरे बारे में बहुत ख़राब बातें करते हैं. तूने सिर्फ़ फ़ोन पर बात की और वो न जाने क्या–क्या कहता है. तू उस लड़के से कभी बात मत करना.” झिझकते हुए उसने जोड़ा, “भैया ने यहाँ आने को मना किया है, तू किसी को बताना मत मैं यहाँ आई थी.”
बिट्टो क्षण–भर को हतप्रभ रह गयी फिर उसकी आँखों में गाढ़े रंग की लकीर खिंच गयी. उसने ठहरी हुई आवाज़ में कहा “मुहब्बत बेजा बात है.”
इसके कुछ ही दिनों बाद घर के भीतर कोई फूल और ख़त फ़ेंक गया. वो सामान हाथ लगा चाची के. उस दिन घर में ख़ूब कोहराम मचा था. शायद बिट्टो को चाचा–चाची से मार भी खानी पड़ी थी. बिट्टो की दबी सिसकियाँ उसने सुनी थीं. सुना तो उसने और भी बहुत कुछ था. गाहे–बगाहे हल्की–सी जान पहचान वाले लोग भी उसे टोकने लगे थे.
“कोने के शर्मा जी के मकान में किरायेदार हो न? आजकल की लड़कियाँ स्कूल पढ़ने तो जाती नहीं है. सुना है कि उनकी लड़की का स्कूल ही में किसी से…” फिर खीसें निपोर देते. नीलाभ का मन चाहता कि कहने वाले को वहीं गाड़ दे पर उसके सहमे–चुप्पे मध्यवर्गीय संस्कार आड़े आ जाते और वह सिर झुकाए निकल जाता. घर पर मातमी माहौल छाया रहता. चाची रोतीं कि ऐसी लडकी देने से अच्छा भगवान उन्हें निपूता रखता. उन लोगों के सामने पड़ने से वह बचने लगा था. उसे न जाने क्यूँ लगता कि कहीं कोई उसे न गुनाहगार ठहरा दे. खाना भी वह अपने कमरे में खाता.
बिट्टो भी तो घर के अंदर रहने लगी थी. बाहर की दुनिया से उसका सम्बन्ध लगभग ख़त्म हो चला था. नीलाभ को लगा वो ठूँठ हो गयी है. उसकी आँखों का रंग उन धुएँ सनी दीवारों सा हो गया था जो उसने पहली बार इसी क़स्बे में देखा था. कितने ही दिनों तक वो स्कूल नहीं गयी थी. उसे मालूम था सब उसकी बातें करते हैं. एक रोज़ स्कूल के अध्यापक उनके घर आये. परिवार के साथ देर तक गुफ़्तगू होती रही.
अगले रोज़ कई दिनों बाद स्कूल यूनिफ़ॉर्म पहने वो उसकी बगल से निकली तो उसकी नज़रें नीचे थीं. उसने न पत्तों को सहलाया, न कोई गीत गुनगुनाया. बिट्टो ने कहीं पढ़ा था कि बात करने से पेड़–पौधे जल्दी बढ़ते हैं पर अब उसे उनके जल्दी बढ़ने की चिंता भी न थी. दो सफ़ेद कबूतर बग़ैर दाने के उसके क़रीब आ गए. उनको देखकर भी वो जड़ रही. सड़क पर कई फ़ीट के फ़ासले पर जैसे बिट्टो नहीं उसकी परछाई तैर रही थी.
नीलाभ को पहले वाली बिट्टो याद आई. जलप्रपात की भाँति निर्बाध बहती बिट्टो. जड़ बिट्टो को देखना उसके भीतर का जीवन सोख ले रहा था. बिट्टो के मन की विचलन उस तक भी तो पहुँची थी. वही कहाँ पहले की तरह रह गया था. नीलाभ को उस घर की चुप्पी अखरती. उसे बिट्टो का खिलंदड़पन याद आता. वो अक्सर सोचता, कैसे छोटी सी बात जीवन का बहाव पलट देती है. अब बिट्टो वहाँ नहीं थी, उसे वहाँ एक सहमी–ख़ामोश औरत दिखती थी. नीलाभ की ट्रेनिंग ख़त्म होने को थी. उसे वापस अपने शहर लौटना था. माँ–बाबूजी उसकी प्रतीक्षा में थे. लौटने से पूर्व वह उसे फिर पहले की भाँति देखना चाहता था पर उससे कुछ भी कह पाना कहाँ संभव था.
उसे याद आया बचपन में उसके रूठ जाने पर बाबूजी उसे मनाने के लिए छोटे–छोटे ख़त लिखा करते थे. उसने नोटपैड उठाया तभी एक चिड़िया उसके सर पर से गुज़री तो वह चौंक गया. उसकी चोंच धूप जैसी पीली थी और पैरों में एक मनका बँधा था. यह वही चिड़िया थी जिसे कुछ रोज़ पहले एक कौवे के मुँह में दबा देख बिट्टो छटपटाई थी और उसे बचाने के लिए दूर तक भागती चली गयी थी. बगीचे की ओर खुलते मेहमानों वाले कमरे के रोशनदान में चिड़िया का घोंसला था. मगर उसने बच्चे को उसमें नहीं रखा था. उसकी माँ कहती है कि पक्षी मानव–गंध पहचानते हैं. उनका छुआ हुआ अंडा या बच्चा अपने घोंसले में वे नहीं रखते. उसे बिट्टो ने बड़े जतन से पाला. छोटा सद्यःजात बच्चा बिट्टो के अथक प्रयासों से जी गया था. उसने ख़त में लिखी उसी चिड़िया की बात. वो उड़ना सीख रही थी..छोटी–छोटी उड़ान..एक डाली से दूसरी डाली तक की उड़ान.
बिट्टो के लैंप पर किसी ततैये ने अपना ढूह बना लिया था. वो कितने दिनों से यूँ ही पड़ा था. किसी ने उसे न जलाया, न उसकी जगह बदली लेकिन वो जानता था बिट्टो ये ढूह देखकर भी उतना ही चकित हो जायेगी जितना वो तितलियों को देखकर होती है. उसने यह बात भी एक ख़त में लिख रख दी थी.
दुनिया के नक्शे पर नयी–नयी जगह ढूँढ़ उनकी बाबत सोचना और वहाँ की गलियों और लोगों की कल्पनायें बुनना उसे बेहद पसंद था. नीलाभ ने बिट्टो को लिखा था कि तुम भी कभी ये कर देखना. कल्पनाएँ जीवन को और भी प्रीतिकर बना देती हैं.
बिट्टो की एक पेंसिल कभी उसने बगीचे से उठाई थी. उसने लिखा कि कैसे बेजान चीज़ें भी ज़िंदा लोगों को क़ैद कर लेती हैं. कैसे उन्हें छूकर हम किसी की अँगुलियों का स्पर्श महसूस कर सकते हैं. उसने लिखा कि वह समझता है कभी–कभी सबके बीच रहकर भी सबसे छिप जाने को मन होता है. आँखों को धूप से बचाते चश्मे सुकूनदेह भले ही लगते हों मगर वह सब अस्थायी है. स्थायित्व खुले आसमान और धूप में ही होता है.
वह हफ़्तों तक ये ख़त सँभाले रहा. कई दफ़ा सोचता बिट्टो को ये ख़त पकड़ा दे परन्तु वह पुराने हादसे से ही अब तक उबर नहीं पाई थी. उसके लिए किसी नयी तकलीफ़ का सबब वह नहीं बनना चाहता था.
आख़िरी दिन जाने से पहले उसने बिट्टो को लिखे सारे ख़तों का एक पुलिंदा बनाया. छत के एक कोने में मधुमालती की लतरें झूलती थीं। बिट्टो जब कहीं नहीं होती थी, वहाँ होती थी। वो ख़त नीलाभ ने वहीं रख छोड़े. सबसे विदा लेकर उसने पीछे मुड़कर देखा तो बिट्टो ठीक वहीं नज़र आई थी.
एक कोने में क़ायदे से रखे हुए ख़त बिट्टो को मिले थे. आखिरी ख़त में लिखा था “मुहब्बत बेजा बात नहीं है.”
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किताबें
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