Wednesday, December 4, 2024

शेफाली राय
छात्रा – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
ग्राम- बीरपुर जिला – गाजीपुर
उत्तर प्रदेश (233231 )

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मन्नू भंडारी की रचनाओं की स्त्रियां

किसी भी मनुष्य को लोग उसके व्यक्तित्व और जीवन में उसकी रचनात्मकता से जानते हैं | हर प्राणी जो इस संसार में है, वह अपने आप में बहुत कुछ होता है | कुछ तो ऐसा होता है, जिससे वो खुद रूबरू नहीं होता है | हर एक स्वतंत्र व्यक्तित्व को अपनी सामाजिक सहभागिता के लिए कुछ बाह्य प्रस्तुति की भी जरूरत हो जाती है | जब रचनाकार कोई सृजन करता है तो सबसे पहले वो खुद से फिर अपने समाज से प्रभावित होता है| एक लोकतान्त्रिक समझ का रचनाकार ही अपनी जगह हर व्यक्ति के हृदय में बना पाता है | मन्नू भंडारी जिनकी रचनाएँ हमारे जेहन में होती हैं| उनकी रचनाएँ झीने परदे की तरह होती हैं! सबकुछ अपने आस – पास घटित प्रतीत होता है | ये समय जहाँ बस वर्चस्व का वार और स्व का स्वार्थ निहितार्थ है , तब कुछ बोलना भी मानसिक द्वंद्व से जूझने जैसे हो जाता है और उस समय राजेश जोशी की पंक्तियाँ मन में उथल-पुथल मचा रही होती हैं कि’ जो विरोध में बोलेंगे, जो सच – सच बोलेंगे मारे जाएंगे , जो अपराधी नहीं होंगे वो मारे जाएंगे! फिर भी मन्नू भंडारी का महाभोज हम पढ़ते हैं ‘इंसानियत की खाद पर ही कुर्सी के पाए अच्छी तरह जमते हैं |’ आपका बंटी में सूक्ष्म बाल मन:स्थिति और स्त्री पुरुष के द्वंद्व ,एक प्लेट सैलाब, एक कहानी यह भी आदि तक संघर्षों को दिखाती हैं | अपनी बातचीत में वो कहती हैं , मैं बूढ़ा होना नहीं पसंद करती , भले ही मैं बूढी हो गयी हूँ शारीरिक तौर पर ! इस तरह हम देखें तो हमारे अनुभव हमारे विचारों को बुनते हैं | एक बड़ा रचनाकार, अपने खुद के जीवनसंघर्षों एवं समाजोन्मुख पारखी नजरिये से होता है | जब ये स्त्री-प्रश्न विचार की समस्या के रूप में हमारे समय और समाज से टकराता है, तो हम देखते हैं कि मन्नू भंडारी जब लिख रही होती हैं तो वो समय कुछ और रहता है | आज भी परिवर्तन तिल भर का ही दिखाई देता है | जब वो अपनी रचनाओं में स्त्री पात्रों को दिखाती हैं तो वो उन्हें एक आर्थिक रूप से सक्षम स्त्री के रूप में , चाहे आपका बंटी हो या यहीं सच है | यानि की उनकी ये हमेशा से कामना रही है कि स्त्रियाँ अपना जीविकोपार्जन करें | इन उदाहरणों से हम उनसे सीख ले सकते हैं कि बदलाव का एक महत्वपूर्ण रूप हमारे आर्थिक आधार पर निर्भर करता है | अपनी रचनाओं में वो दिखाती हैं कि एक स्त्री जहाँ आर्थिक रूप से सक्षम होती है, घर के काम भी करती है, तो कभी अनेकानेक समस्याओं के कारण वो अपने हक के लिए लड़ती भी है, और तब एक पारिवारिक द्वंद्व उपस्थित होता है और एक बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है | मन्नू भंडारी कहती हैं कि जीवन में एक बिन्दु ऐसा आता है, जब महसूस होता है कि बस। अब और आगे नहीं, और वही जीवन का निर्णायक क्षण होता है। ये स्त्रियों के साथ पवित्रता को नत्थी कर दिया गया है, ये गलत है | इसे जोड़ने वाला भी पुरुष ही है | जब ये समाज एक विधवा, तलाकशुदा स्त्री को हेय दृष्टि से देखता है, वहीं पुरुष जो अपनी स्त्री के रहते हुए भी हर जगह मुंह मारे फिरता रहता है | इसकी आजादी स्त्रियों को भी होनी चाहिए कि अपने जीवन को वो जी सकें| यदि वो किसी एक जगह से नहीं रह सकी, तो उनके पास ये विकल्प हो कि कहीं और वो रह सकें | हाँ ! अगर इस देह मुक्ति को सेक्स से जोड़कर देखना चाहें तो ये गलत है | उनका मानना है कि एक साथ कई सेक्स संबंध गलत हैं, लेकिन अगर एक रिश्ते के टूटन का एहसास उसे है तो वो ये निर्णय ले सकती है | ज्योति चावला से एक साक्षात्कार में वो विवाह के मुद्दे पर उठे सवाल का जवाब देते हुए कहती हैं “मेरे ख्याल में तुम भारत के संदर्भ में विवाह-संस्था के भविष्य के बारे में जानना चाहती हो…तो इतना समझ लो कि सारे आधुनिकीकरण के बावजूद कुछ सदियों तक तो इसे कोई ख़तरा नहीं है लेकिन इसके स्वरूप को ज़रूर बदलना होगा। इसके परम्परागत दक़ियानूसी रूप ने तो इसे परिवार में पुरुष के वर्चस्व का आधार बना रखा है, जिसमें स्त्री के लिये विवाह संबंध नहीं, मात्र बंधन बन कर रह गया है। अब आज की आधुनिक स्त्री इस बंधन को स्वीकार करने को तैयार नहीं, परिणाम जैसी कि अभी हमारी बात हुई थी तलाक की बढ़ती संख्या। ऐसी स्थिति में विवाह की जरूरत पर ही प्रश्न उठने लगे हैं। आजकल विशेष रूप से महानगरों में ‘लिव-इन’ परम्परा की जो शुरुआत हुई है वह एक तरह से विवाह संस्था का नकार ही है। जब तक संबंध अच्छी तरह निभा, साथ रहे …जैसे ही संबंध गड़बड़ाया अलग। यहाँ तलाक की उस बेहूदी और झंझटिया प्रक्रिया से गुज़रने की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि युवा लोगों का इसकी ओर रुझान बढ़ रहा है। पर बच्चों का इससे एक तरह से नकार ही है और यदि स्वीकार है तो अलग होने पर उनकी समस्या फिर बंटी वाली ही होगी। अब बच्चों के लिये जो समस्याग्रस्त हैं ‘लिव-इन’ की वह परम्परा इस देश में जड़ें जमा पाएगी भला? संभव ही नहीं है। स्कैंडिनेवियन कंट्रीज-स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे में कोई तीन पीढ़ियों से लिव-इन की परम्परा चल रही है पर मात्र चालीस पैंतालिस प्रतिशत लोग ही इस तरह रहते हैं। इन आँकड़ों की मेरी जानकारी बहुत प्रमाणिक नहीं है कुछ कम ज़्यादा हो सकती है पर इतना तो तय है कि वहाँ भी आधी जनता के क़रीब तो विवाह कर के ही रहती है। अब हमारा तो परम्परावादी देश है। यहाँ से तो विवाह संस्था के समाप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। बस जैसा कि मैंने पहले कहा विवाह के रूप को बदलना होगा और महानगरों में तो इसका सिलसिला शुरू भी हो गया है जो धीरे-धीरे आगे भी फैलेगा | ”
स्त्री प्रश्नों पर बातें करते हुए जब कई नाम जैसे मेरी वोल्सनक्राफ्ट, मेरी रोबिन्सन, जोआन्ना बेली, अन्ना सीवार्ड, सूसन ब्राउनवेल एन्थनी, एलिजाबेथ कैण्डी स्टैण्टन, क्लारा जेटकिन , रोजा लक्जमबर्ग, सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, ताराबाई शिंदे, पंडिता रमाबाई,दुर्गाबाई देशमुख, वंदना शिवा , मीरा , महादेवी आदि कई नाम लिए जाते हैं, तब मन्नू भंडारी की एक बात से सहमति रखते हुए अपनी ये बात कहना चाहूंगी कि हम स्त्री विमर्श का रूप अपने घरों- गांवों की औरतों में भी देखते हैं , जहाँ न ही उनके पास कोई किताबें हैं, न इन नामों को वो जानती हैं, न ही किसी संगठन से वो जुड़ी होती हैं , वो बस रोजमर्रा की जिंदगी के थपेड़े के अनुभवों की पुंज हैं | लेखिका गीतांजलि श्री की माई इस मायने में बेहतरीन कृति है |जहाँ माई के जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण हमें देखने को मिलता है | जो प्रतिदिन समस्याओं से संघर्ष करती दिखाई देती है |
हमारा समाज बदलाव को बदलाव के नजरिये से नहीं बल्कि उसी पुराने परम्परागत, रूढिवादी चश्मे से देखने का अभ्यस्त है , तब कहाँ और किस कदर उसे स्वीकार्यता होगी कि ये बदलाव हो रहा है जो कि बेहतर है | तब स्त्री विमर्श को हमें बस स्त्री तक सिमटा नहीं रहने देना है | हम एक ऐसी धुरी पर खड़े हैं , जिसके चारों ओर एक रेखा खींची हुई है वो रेखा हमारी रेखा को निर्धारित करती है| ये दौर राजनीतिक घेरे से घेरा हुआ लोकतान्त्रिक मूल्यों की बलि चढाये हमारे बीच उपस्थित है | इसलिए हमारी चेतना का विषय हमारे लिए पूरा समाज होना चाहिए |

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