Friday, November 29, 2024

नीलम शंकर

1.वाणी प्रकाशन से'सरकती रेत' कहानी संग्रह प्रकाशित 2010 में

2 'हमारे अवरोध' कहानी संग्रह प्रकाशक के पास प्रकिशनाधीन

3 कुछ कविताएं साक्षात्कार, काव्य में पहले छपी थी। फिर लिखा लेकिन भेजा नहीं

4 कुछ कहानियों का उड़िया में अनुवाद

5. लेखक सांगठनिक कार्य में बरसों तक सहयोग किया आभीभीयथायोग्य करती हूः

6. हाशिए के लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का कार्य जारी है।

7 स्वतन्त्र लेखन, पूर्व में बैंककर्मी

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उम्मीद और रोशनी

रमेश ने उल्टी गिनती गिनना शुरू कर दिया था | इंतजार करते-करते दशहरा तो बीत गया | उम्मीद अभी भी बंधी थी कि शायद छै महीनों से बकाया पगार इकठ्ठी ही मिलेगी जैसे पहले होता आया था| अब वह अखबार कहाँ लेता था | सबसे पहले उसने अपने खर्च में यही कटौती की थी कि सौ सवा सौ भी बच जाएगा तो कम से कम दाल की छौंक का घी का खर्चा तो निकल आयेगा | अखबार तो वह रोज सबेरे पान की दुकान पर जाता एक अठ्ठनी का गुटका पाउच लेता अपने मतलब की ख़बरों पर नजर दौड़ता | खबर पढ़-पढ़कर मन ही मन कुढ़ता आज इस संस्थान को सरकार इतने दिनो का बोनस डिक्लेयर कर रही कल उस संस्थान का | मन ही मन बुदबुदाया ‘साले तनख्वाह न सही कम से कम बोनस ही दे देते तो अच्छा रहता |’ सबसे छोटा वाला कितना दुखी होता हैं जब उसे त्योहार पर नए कपडे नहीं खरीद पाते | पत्नी अलग “चार साल से मरी फैक्टरी तरसा के रख दे रही पूजा को भी नहीं नयी साडी ले पाते बाकी फंक्शन की तो बात दूर |” बस उसे नहीं शिकायत थी तो अपनी बड़ी बेटी से पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी | आजकल का समय न नाज –नखरे, न फैशन, न सजने संवरने का शौक बस एक ही काम पढाई और मन बहलाने को माँ के साथ काम में हाथ बंटा लेती | वह सोंचता उसकी हर सहेली के पास मोबाईल है पर उसकी बेटी ने कभी कहा तक नहीं | एक दिन उसके दिल ने कचोटा “क्यों बेटा तुम्हे जरुरत नहीं पड़ती न, तुम तो मेरे मोबाईल से ही काम चला लेती हो कितनी अच्छी हो |” कहते हुए उसने बेटी को अपने से सटाया तो नहीं लेकिन अपना सर उसके सर पर रख दिया था | वह उसे कभी बेटी नहीं बेटा ही कह कर पुकारता था | ऐसा नही कि वह किसी प्रगतिशीलता की वजह से कहता, उसे बेटा कहने में सहजता महसूस होती थी | फिर अब दूसरा त्योहार नजदीक आ रहा दीवाली | जुलाई - अगस्त से न, त्योहार ही त्योहार आते रहते हैं | पता नहीं किसने इतने सारे त्योहार बना दिए | hum hindustani bhi na bina utsav tyohar k jee hi nhi sakte.ab 20 ,25 saalon se bin paise ka koi tyohar ni hota.bachpan me kuchcho ban gaya ,pass paros jut mil liye ho gai gawnai man gaya tyohar . ab .....? आज के समय में त्योहार क्या खाली-पीली बातों, गानों से मनाएँ जा सकते हैं | is baat se उसकी टेंशन बढ़ने लगती थी | ड्यूटी तो वह रोज जाता था टिफिन लेकर | काम हो न हो पर आठ घंटे तो बिताना ही पड़ता था | जो ऊपरी आदेश था | तभी तो चार-चार ,छै-छै महीने की इकठ्ठी तनख्वाह मिल जाती थी | अब तो हद कर दी है आठ महीने हो गए, ख़बरें हवा में उडती “कि जल्दी ही फैक्ट्री पर ताला लगने वाला है |” कभी ‘फलां कम्पनी इसका अधिग्रहण कर लेगी, kabhi taala bandi ho jaigi. |’ तो छंटनी तो करेगी ही| अपने हिसाब से रखेगी | कंही ‘मैं भी न आ जाऊँ छटनी के दायरे में” | यह भय उसे सबसे अधिक सताता | उम्र के पचास बरस पार कर रहा | इस उमर में किसी दूसरे शहर जाकर काम करना इतना आसान होता है क्या ? हर घड़ी यही कसमकस | घर में पत्नी से अलग झांव - झांव, खर्चे - पानी को लेकर | कभी गाँव से थोडा बहुत अनाज आ गया तो राहत पर बाकी खर्चे तेल, मसाला, सब्जी, दूध अब वह क्या क्या गिनाए | बाहर शहर में तो बरतन मांजना हो तो भी पैसा ही खर्च करो गाँव थोड़े ना कि चूल्हे की राख निकाली, मांजा बरतन चकाचक हो गए | साला $$$ पानी का भी बिल मुंह बाए खड़ा रहता हैं | बिजली तो है ही | जब से बिलिंग का काम निजी कम्पनियों को मिला गया है अब चालाकी भी नहीं कर पाता | जैसे - जैसे दीवाली नजदीक आ रही रमेश की चिंताएं बढ़ रही | एक दिन पत्नी “कहो जी पिछले सारे त्योहार तो कम्पनी ki सूखाढ me भेंट चढ़ गए | सb त्योहार घर की चारदीवारी में ही किसी तरह निबटा लिया| कोई नहीं ही जान पाया होगा | पर दिवाली ? इसमें तो ढेर सारा इंतजाम करना पड़ता है | लाइटिंग, घी - तेल के दिए, पटाखे | पहले तो ठीक था पास - पड़ोस में लाई, खील – खिलौना गरी ही प्रसाद में बाँट दिया जाता था और यही चलन भी था | ससुरा पता नहीं कहां से अब तो यह सब बंद हो गया सीधे – सीधे मिठाई का डिब्बा चलन में आ गया | खील बतासे खिलौना आउटडेटेड हो गया | घर में आता तो सभी के हैं बस भगवान् जी को भोग लगाओ और जो बचे उसे उसका नया संस्करण दे कर ख़त्म करो | अब तो कोई भी बच्चा खील - खिलौना नहीं खाता | यह सब तो सफाई कर्मी , धोबी ....कुछ ..कुछ ऐसी ही कामगारों के ही बीच में बंट जाता हैं |gareebi k chalte unke beech tiki hai parampara. रमेश बीबी के साथ त्योहार पर खर्च का हिसाब कम से कम में करने की भी सोंच रहे तो भी नहीं जुगाड़ हो पा रहा | पत्नी के दिमाग में एक तरकीब सूझी “क्यों जी क्यों न इस बार हम सभी गाँव चल चले बहुत साल हो गए, कोई भी त्योहार वहां नहीं मनाया | केवल आने जाने का भाडा ही तो लगेगा|” रमेश को सुझाव तो जंचा पर उसमें भी कई पेंच आ गए | त्योहार का इंतजाम न करना पडेगा तो क्या घर वालों को कपडा न दिलाना पडेगा त्योहार पर | वह भी कर ही दिया तो बच्चे पीछे पड जायेंगे | पत्नी न भी बोली मन ही मन तो सोंचेगी जरुर | जब सब का बजट बन सकता था तो क्या मेरा नहीं आ सकता ? रमेश बहुत गुणा - गणित लगाया यह सुझाव भी असफलता की भेंट चढ़ गया | जब इंसान पर हल्की सी भी निराशा की परत चढ़ती हैं और परिस्थितियां विषम ही होती जा रही हो तो हताशा परत दर परत चढने लगती हैं | अनेक तरह के पलायनवादी विचार जन्मने लगते हैं | उसे एक अजीब और भयानक विचार आया | क्यों न पत्नी से कह दूँ कि माँ का फोन आया था अब की पट्टीदारी में कोई मर गया फिलहाल तो बरसी होने तक त्योहार नहीं मनाया जा सकता | सभी खर्चों से मुक्ति मिल जायेगी | पर इतना बड़ा झूठ बोलने का जिगरा भी तो होना चाहिए | रमेश वह कहां से लाए उसे तो अपने मासूम बच्चों का चेहरा याद आने लगता उनकी उम्मीदे तो सीधे पापा रमेश पर ही आकर टिकती हैं | अपने आपको धिक्कारता अपने पौरुष पर भी गाहे - बगाहे प्रश्न चिन्ह लगता | इतना परेशान वह कभी भी नहीं हुआ था | इस मामले में वह खुशनसीब था कि पत्नी बच्चे ज्यादा तंग na करते थे | पर अपना भी तो जमीर होता हैं जो इन सब से मुक्त नहीं होने देता हैं | मुख्य इंतजाम उसी के माथे पर किससे शेयर करे अपनी परेशानी | ऐसा नहीं कि इन परेशानियों से वही गुजर रहा होगा आखिर उसके सहकर्मी भी तो हैं उसी के जैसे | ताज्जुब कोई आपस में साझा नहीं कर रहा | समय भी बदलता जा रहा | सुख-दुःख जैसे अब बाँटने की परम्परा ही कम होती जा रही हैं | जैसे हर भारतीय परंपरा पर बाजारवाद चढ़ गया | वैसे ही सुख - दुःख की बाँटने की परम्परा भी कोई नया रूप ले लेगी | महानगरों में तो हर बात में पैसा चाहे दुखो का हो या सुखों का मौका | खैर दर्शन बघारने से रमेश का काम नहीं ही चलेगा असलियत में आना ही पड़ेगा | रोज अखबार देख रहा अब शायद कोई खबर आ जाये कि कर्मियों का बकाया भुगतान दीवाली के पहले होगा | सभी महकमों की ख़बरें आ रही नहीं आ रही तो रमेश की उस कंपनी की जिसमें वह काम करता हैं | केवल त्यौहार की ही चिन्ता हो रमेश को , ऐसा नहीं था | बेटी के कंप्यूटर कोर्स की सेकंड सेमेस्टर फीस भी मुह बाए खरी है |कई दिनों से उसे टाल रहा |आज कल – आज कल | उसे बेटी के सामने सर उठाने में भी ग्लानि हो रही | क्योंकि अब वोह चुप चुप सी रहने लगी थी | शब्द से ज्यादा मौन मारक होता है | अब कोर्स तो पूरा कराऊंगा ही कराऊंगा | शादी तो बाद की बात है | वोह भी इंतज़ाम तो मुझे ही करना है | पहले जो जरुरी है उसे देंखे | कई दिनों की उहापोह |पत्नी को बताएं की न बताएं | फिर वही दर्शन घुमड़ रहा | वर्तमान खुशहाल तो भविष्य अपने आप ठीक हो जायेगा, बस अपने पौरुष पर भरोसा होना चाहिए | बैंक गया अपनी फिक्स्ड डिपाजिट तुड़ा देने के संकल्प के साथ | पहले घर में दिए तो जले रोशनी तो हो फिर देखा जायेगा | आखिर हर कोई कुछ न कुछ के इंतजाम में लगा ही होगा .......अब कौन है जो घरेलू मामलात आपस में बांटता हैं | मैं भी क्यूँ बांटू | रोशनी तो घर में होनी ही चाहिए पारंपरिक या आधुनिक या दोनों ही ...................| कभी-कभी बाहर का उंजाला ही भीतर के अँधेरे को कम करता हैं | फिलवक्त रमेश के पास उम्मीदों की रोशनी थी | नीलम शंकर

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किताबें

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